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________________ क्षेत्रपरिवर्तन] ३९७, जैन-लक्षणावली [क्षेत्रपूजा शरीरो लोकस्याष्टमध्यप्रदेशान् स्वशरीरमध्यप्रदे- एकैकनभःप्रदेशप्रतिसमयापहारेण यावता कालेन शान् कृत्वोत्पन्नः, क्षुद्रभव ग्रहणं जीवित्वा मृतः, स सर्वात्मना निष्ठामुपयाति, तावान् कालविशेषो एव पुनस्तेनैवावगाहेन द्विरुत्पन्नस्तथा त्रिस्तथा बादरं क्षेत्रपल्योपमम् । एतच्चासंख्येयोत्सपिण्यवचतुरित्येवं यावद् धनांगुलस्यासंख्येयभागप्रमिता- सर्पिणीमानम् ।xxx तथा स एव पूर्वोक्तः काशप्रदेशास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जनित्वा पुनरेकैक- पल्यः पूर्ववदेकैकं बालाग्रमसंख्येयखण्डं कृत्वा तैराप्रदेशाधिकभावेन सर्वो लोकः प्रात्मनो जन्मक्षेत्र- कर्ण भूतो निचितश्च तथा क्रियते यथा मनागपि न भावमुपनीतो भवति यावत्तावत् क्षेत्रपरिवर्तनम् । तत्राग्न्यादिकमाक्रामति, एवं भृते तस्मिन् पल्ये ये (स. सि. २-१०, भ. प्रा. विजयो. १७७५)। आकाशप्रदेशास्तैर्बालाः स्पृष्टा ये च न स्पृष्टास्ते ४. सो कोऽवि णत्थि देसो लोयायासस्स णिरवसे- सर्वेऽप्येककस्मिन् समये एकैकाकाशप्रदेशापहारेण सस्स । जत्थ ण सव्वो जीवो जादो मरिदो य बहु- समुध्रियमाणा यावता कालेन सर्वात्मना निष्ठामुपवारं ।। (कातिके. ६८)। ५. सूक्ष्मनिगोदजीवः यान्ति तावान् कालविशेषः सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपमम । अपर्याप्तक: सर्वजघन्यप्रदेशशरीरः लोकस्याष्टमध्य- इदमप्यसंख्येयोत्सपिण्यवसपिणीमानमेव केवलं पूर्वप्रदेशान् स्वशरीरमध्ये कृत्वा उत्पन्नः क्षुद्रभवग्रहणं स्मादसंख्येयगुणम् । (प्रव. सारो. व. १०२६, प. जीवित्वा मतः, स एव जीवः पुनस्तेनाऽवगाहेन ३०४) । दो वारानुत्पन्नः, त्रीन् वारानुत्पन्नश्चतुर्वारानुत्पन्नः १ क्षेत्र से अभिप्राय प्रागमोक्त विधि के अनुसार इत्येवं यावत अगुलस्य असंख्येयभागप्रमिताकाश. पल्य में भरे हुए बालानों से स्पष्ट प्राकाश का है। प्रदेशास्तावतो वारान तत्रैवोत्पद्य पूनः एकैकैकप्रदे- उसके उन प्रदेशों में से प्रत्येक समय में दोनों प्रोर शाधिकत्वेन सर्वलोक: निजजन्मक्षेत्रत्वमुपनीतो से एक-एक प्रदेश के अपहृत करने पर जितने काल भवति यावत्तावत्क्षेत्रपरिवर्तनं कथ्यते । (त. वृत्ति में वे सब समाप्त हों उतने कालविशेष को क्षेत्रश्रुत. २-१०)। पल्योपम कहा जाता है। ३ सर्वजघन्य अवगाहना वाला सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्य- क्षेत्रपालमुद्रा-ऊर्ध्वशाखं वामपाणि कृत्वाऽङगपर्याप्तक जीव लोक के पाठ मध्यप्रदेशों को अपने ष्ठेन कनिष्ठिकामाक्रमय दिति क्षेत्रपालमुद्रा । शरीर के मध्य में करके उत्पन्न हम्रा और क्षुद्रभव- (निर्वाणक. पृ. ३१) । ग्रहण तक जीवित रहकर मरा। फिर वही उसी बायें हाथ की अंगुलियों को ऊपर फैलाकर अंगठे अवगाहना से धनांगल के प्रसंख्येय भाग प्रमाण से कनिष्ठा को दबाने पर जो मद्रा बनाती है. उसे जितने प्राकाशप्रदेश हैं उतने बार वहीं उत्पन्न क्षेत्रपालमुद्रा कहते हैं। होकर तत्पश्चात् एक-एक प्राकाशप्रदेश की प्रषि क्षेत्रपुरुष-यो यस्मिन् सुराष्ट्रादौ क्षेत्रे भवः कता से जव समस्त लोक को अपना जन्मक्षेत्र कर स क्षेत्रपुरुषो यथा सौराष्ट्रिक इति, यस्य वा यत लेता है तब उसका क्षेत्रपरिवर्तन पूरा होता है। क्षेत्रमाश्रित्य पुंस्त्वं भवतीति । (सूत्रकृ. नि. शी. क्षेत्रपल्योपम-१. तथा क्षेत्रमित्याकाशम्, ततश्च पम-१. तथा क्षत्रमित्याकाशम्, ततश्च वृ. ५५, पृ. १०३) । प्रतिसमयमुभयथापि क्षेत्रप्रदेशापहारे क्षेत्रपल्योप- जो जिस सौराष्ट्र प्रादि क्षेत्र में उत्पन्न हम्मा है उसे मम् । (अनुयो. हरि. व. प. ८४)। २. क्षेत्रमा- वहां का क्षेत्रपुरुष कहते हैं । जैसे---सौराष्ट्रिक । काशप्रदेश रूपं तत्प्रधानं क्षेत्रपल्योपमम् । (संग्रहणी. अथवा जिस क्षेत्र का प्राश्रय लेकर पुरुष के परुषत्व दे. ५.४, पृ. ५) । ३. बायरसुहुमायासे खेत्तपएसा- होता है उसे क्षेत्रपुरुष कहते हैं। णुसमयमवहारे । बायरसुहमं खेत्तं उस्सप्पिणीयो क्षेत्रपूजा-१. जिणजम्मण-णिक्खमणे णाणपनीर असंखेज्जा ।। (प्रव. सारो. १०२६)। ४. इयमत्र तिस्थचिण्हेसु । णिसिहीसु खेत्तपूजा पुव्वविहाणेण भावना-स एवोत्सेधागुलप्रमितयोजनप्रमाणवि- कायव्वा ॥ (वसु. श्रा. ४५२)। २. जन्म-निःक्रमणविष्कम्भायामावगाढःपल्यःपूर्ववदेकाहोरात्रं यावत्स- ज्ञानोत्पत्तिक्षेत्रे जिनेशिनाम । निषिष्यास्वति प्ताहोरात्रप्ररूढ लागैराकणं निचितो भ्रियते, तत- कर्तव्या क्षेत्र पूजा यथाविधि ॥ (गण. पा. २२३)। स्तै लायें नभःप्रदेशाः स्पृष्टास्ते समये समये ३. गर्भ-जन्म-तपो-ज्ञानलाभ-निर्वाणसम्भवे । क्षेत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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