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________________ गोवरपीठ] ४२१, जैन-लक्षणावली [गौरववन्दनादोष गोमूत्र की तरह टेढ़ी-मेड़ी तीन विग्रह वाली पर्यायों को ग्रहण करता है-उसे गौण प्रत्यक्ष गति गोमूत्रिका गति कहलाती है। यह गति चार कहते हैं । समय में परिपूर्ण होती है। गौण्य-१. गुणानां भावो गौण्यम् । तद् गौण्यं पदं गोवरपीठ-छाणेण लेविदूण जाणि पीडा[ढा]णि स्थानमाश्रयो येषां नाम्नां तानि गोण्यपदानि । यथा किज्जति ताणि गोवरपीडाणि णाम । (धव. पु. १४, आदित्यस्य तपनो भास्कर इत्यादीनि नामानि । पृ. ४०)। (धव. पु. १, पृ. ७४); गुणेण णिप्पण्णं गोण्णं । गोबर से लेप करके जो पीठ किये जाते हैं वे गोवर- जहा सूरस्स तवण-भक्खर-दिणयरसण्णा । (धव. पु. पीठ कहलाते हैं। ६, पृ. १३५) । २. गुणेण णिप्पण्णं गोण्णं । जहा गोवृत्तिक - गोवृत्तिकाः गोश्चर्यानुकारिणः । (अनु- सूरस्स तवण-भक्खर-दिणयरसण्णाओ। वड्ढमाणयो. हरि. व. पृ. १७)। जिणिदस्स सव्वण्हु-वीयराय-परहंत-जिणादिसण्णागायों की चर्या का अनुकरण करने वाले अर्थात् जो ओ। (जयध. १, पृ. ३१)। गायों के समान निर्गमन, प्रवेश, स्थान और प्रासन १ जो पद गुण के प्राश्रय से निष्पन्न होते हैं, उन्हें प्रादि क्रियाओं को करते हैं तथा गायों के समान गोण्य पद कहा जाता है। जैसे—सूर्य के तपन श्रीर भोजन भी करते हैं वे गोवृत्तिक साधु कहलाते हैं। भास्कर प्रादि नाम । गोवषमुद्रा-बद्धमुष्टेर्दक्षिणहस्तस्य मध्यमातर्ज- गौतम-गौतमाः- लघुतराक्षमालाचचितविचित्रन्योविस्फारितप्रसारणेन गोवृषमुद्रा । (निर्वाणक. पादपतनादिशिक्षाकलापवद्वृषभकोपायत: कणभिपृ. ३२)। क्षाग्राहिणः । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. १७)। दाहिने हाथ की मटी बांध करके मध्यमा और अतिशय छोटी अक्षमाला से लिप्त विचित्र पैरों के तर्जनी अंगुलि फैला कर पसारने को गोवृषमुद्रा पतनादि को शिक्षा से युक्त बैल के प्राश्रय से भिक्षा कहते हैं। के ग्रहण करने वाले तापसों को गौतम कहा गोसर्ग-देखो गौसगिककाल । जाता है। गौण-से कि तं गोण्णे? २ खमइत्ति खवणो गौरव-गुणावबोधप्रभवं हि गौरवम् xxx || तवइत्ति तवणो जलइत्ति जलणो पवइत्ति पवणो से (द्वात्रिशिका ६-२८)। तं गोण्णे । (अनुयो. सू. १३०, पृ. १४०)। गुणों के ज्ञान से जो महानता उत्पन्न होती है उसे क्षमाशील होने से क्षमण, तापकारक होने से तपन, धर्म का गौरव कहते हैं। जलाने से ज्वलन और वहने से पवन; इन नामों को गौरववन्दनक-१.xxx गारवं सिस्वाति क्रमश: क्षमादि गण के अनुसार निष्पन्न होने से णीयोऽहं । (प्रव. सारो. १६२) । २. शिक्षा बन्दनगौण नाम कहा जाता है। कप्रदानादिसामाचारीविषया, तस्यां विनीतः कुशलोगौण काल- गौणकालस्तु पर्याय स्थितिः स्यात् ऽहमित्यवगच्छन्त्वमी सर्वेऽपि साधव इत्यभिप्रायवान समयादिका । (प्राचा. सा. ३-२३)। यथावदावर्ताद्याराधयन् यत्र वन्दते तद् गौरववन्दपर्यायों की स्थितिस्वरूप समय व प्रावली प्रादि को नकमित्यर्थः। (प्रव. सारो. व. १६२, पृ. ३७)। गौण काल या व्यवहार काल कहते हैं। वन्दना देने प्रादि की सामाचारी (अनुष्ठानविशेष) गौरण प्रत्यक्ष-गौणं तु संव्यवहारनिमित्तमसर्व विषयक शिक्षा में 'मैं विनीत व दक्ष 'ऐसा सभी पर्यायद्रव्यविषयमिन्द्रियानिन्द्रियप्रभवमस्मदाद्यध्यक्षं साधु समझ लें; इस अभिप्राय से जो यथायोग्य विशदमच्यते । (सन्मति. अभय. व. २-१, पृ. मावर्त प्रादि का प्राराधन करते हुए जहां वन्दना ५५२)। की जाती है, यह गौरववन्दनक दोष कहलाता है। इन्द्रिय और मन के प्राश्रय से उत्पन्न होने वाला यह वन्दना के ३२ दोषों में १४वां दोष है। हम जैसों का जो प्रत्यक्ष निर्मल होकर समीचीन गौरववन्दनादोष-१. गारवं गौरवम् आत्मनो व्यवहार का कारण है तथा सब द्रव्यों और उनकी माहात्म्या[त्म्यमा] सनादिभिरावि:कृत्य रस-सुखपर्यायों को विषय नहीं करता है-द्रव्य को कुछ ही हेतो; यो वन्दनां करोति तस्य गौरववन्दनादोषः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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