SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गौसर्गिककाल ] (मूला. वृ. ७-१०७) । २. गौरवं स्वस्य महिमन्याहारादावथ स्पृहा || ( अन. ध. ८ - १०३ ) । ३. गौरवाद्वन्दनकसमाचारी कुशलोऽहमिति गर्वादन्येऽप्यवगच्छन्तु मामिति यथावदावर्तादीनाराधयतो वन्दनम् । (योगशा. स्वो विव. ३ - १३० ) । १ श्रासन आदि के द्वारा अपने गौरव को प्रकट करके अथवा रस और सुख के हेतु से श्राचार्य की वन्दना करने वाले के गौरव नामक वन्दनादोष होता है । गौसगिककाल -- गवां पशूनां सर्गो निर्गमो यस्मिन् काले स कालो गोसर्गः । गोसर्ग एव गौसर्गिको द्विघटिकोदयादूर्ध्व कालो द्विघटिकासहितः मध्याह्नात् पूर्व: । (मूला. वृ. ५-७३) । गायों के निकलने के काल को गौसर्गिक काल कहते हैं, अर्थात् दो घड़ी सूर्योदय के पश्चात् और मध्याह्न से दो घड़ी पूर्व के काल का नाम गौसर्गिक काल है । ४२२, जैन- लक्षणावली ग्रन्थ - १. ग्रथ्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वाऽर्थं इति ग्रन्थः । (श्राव. नि. हरि. वृ. १३०, पृ. ८७ ) । २. विप्रकीणार्थग्रथनाद् ग्रन्थः । ( अनुयो, हरि वृ. पृ. २२) । ३. गणहरदेव विरइददव्वसुदं गंथो । ( धव. पु. ६, पृ. २६० ) ; अरहंतवुत्तत्थो गणहरदेवगंथि सद्दकला गंथो । (घव. पु. ६, प. २६८ ) ; आयरियाणमुवएसो गंथो । ( धव. पु. १४, पु. ८) । ४. ग्रथ्नन्ति रचयन्ति दीर्घीकुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्थाः । (भ. श्री. विजयो. व मूला. ४३) । १ जिसके द्वारा, जिससे अथवा जिसमें अर्थ को गूंथा जाता है वह ग्रन्थ कहलाता है । ४ जो संसार को लंबा करते हैं उन्हें ग्रन्थ (परिग्रह ) कहा जाता है । ग्रन्थकर्ता - बीजपदणिलीणत्यपरूवयाणं दुवैालसं गाणं कारओ गणहरभडारो गंथकत्तारो । X X X वीजपदाणं वक्खाणश्रोत्ति । ( धव. पु. ६, पृ. १२७) । बीजपदों में निहित अर्थ के प्ररूपक बारह अंगों के कर्ता व बीजपदों के व्याख्याता गणधर भट्टारक को ग्रन्थकर्ता कहा जाता है । ग्रन्थकृति -जा सा गन्थकदी णाम सा लोए वेदे समये सद्दपबंधणा अक्खरकव्वादीणं जा च गंथरचणा कीरदे सा सव्वा गंथकदी णाम । ( ष. खं. ४, १, ६७ - व. पु. ६, पृ. ३२१) । Jain Education International [ग्रहण लोक, वेद श्रथवा समय विषयक जो शब्दप्रवन्ध रूप रचना की जाती है, तथा अक्षरात्मक काव्यादिकों की भी जो रचना की जाती है, उसे ग्रन्थकृति कहते हैं । लोक से यहाँ हस्ती, अश्व, तंत्र, कौटिल्य एवं वात्सायन आदि शास्त्र; वेद से द्वादशांग और समय से नैयायिक-वैशेषिकादि दर्शन अभीष्ट रहे हैं । ग्रन्थसम —- गणहरदेवविरइददव्वसुदं गंथो, तेण समं सह वट्टदि उपज्जदित्ति बोहिय-बुद्धाइरियेसु ट्ठिदबार हंगसुदणाणं गंथसमं । ( धव. पु. 8, पृ. २६० ); अरहंतवृत्तत्थो गणहरदेवगंथिश्रो सद्दकलाओ गंथो णाम । तत्तो समुप्पण्णो भद्दबाहुआदिथेरेसु वट्टमाणो कदिप्रणियोगो गंथेण सह उत्तदो गंथसमं णाम । ( धव. पु. ६, पृ. २६८ ) । अरहन्त के द्वारा जिसका श्रर्थं कहा गया है तथा गणधर देव के द्वारा जो प्रथित किया गया है, ऐसे शब्दसमूह का नाम ग्रन्थ है। उस शब्दसमूह रूप ग्रन्थ से जो बोधितबुद्ध श्राचार्यों के भद्रबाहु श्रादि स्थविरों के द्वादशांग श्रुत का ज्ञान रहा है, वह ग्रन्थ के साथ उत्पन्न होने से ग्रन्थसम कहलाता है । ग्रन्थि - १. गंठित्ति सुदुब्भेतो कक्खड घण- रूढ गूढगण्ठिव्व । जीवस्स कम्मजणितो घणरायद्दोस परिणमो ॥ (विशेषा. भा. ११६२ ) । २. राग-द्वेषपरीणमो दुर्भेदो ग्रन्थिरुच्यते । (योगशा. स्वो विव. १-१७) । १ जिस प्रकार किसी वृक्षविशेष की कठोर गांठ अतिशय दुर्भेद्य होती है उसी प्रकार कर्मोदय से उत्पन्न जो जीव के घनीभूत राग-द्वेष परिणाम उस गांठ के समान दुर्भेद्य होते हैं, उन्हें ग्रन्थि कहा जाता है ।। ग्रन्थिम - गंथण किरियाणिफण्णं फुल्ल मादिदव्वं गंथिमं णाम । ( धव. पु. ६, पृ. २७२ ) । ग्रथन क्रिया से सिद्ध होने वाले पुष्पमाला प्रावि रूप द्रव्य को ग्रन्थिम कहा जाता है । ग्रहरण - १. ग्रहणं शास्त्रार्थोपादानम् । ( नीतिवा. ५-४७; योगशा. स्वो विव. १-५१, पृ. १५२ ) । २. ग्रहणं सद्गुरूपदिष्टार्थविज्ञानम् । (भ. श्री. मूला. ४३१) । १ शास्त्र के अर्थ के उपादान - श्रात्मसात् करने For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy