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________________ गोतीर्थ ४२०, जैन-लक्षणावली [गोमूत्रिकागति पाहार परोसने वाले के अंग व वेष-भूषा आदि पर कार्य कारणोपचारात्, यद्वा कर्मणोऽपादानविवक्षा दृष्टि न रखकर जैसा भी भोजन प्राप्त होता है गूयते शन्द्यते उच्चावचः शब्दैरात्मा यस्मात्कर्मण उसे ग्रहण करते हैं। इसीलिये उसे गौ के समान उदयात्तद् गोत्रम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २२-२८८, वृत्ति होने से गोचार या गोचरी वृत्ति कहते हैं। पृ. ४५४, प्रव. सारो. वृ. १२५०, पृ. ३५६)। गोतीर्थ-गोतीर्थमिव गोतीर्थम-क्रमेण नीचो ११. गूयते शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात् नीचतरः प्रवेशमार्गः। (जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, कर्मणस्तद् गोत्रम् । (धर्मसं. मलय. य. ६०८)। १७१ पृ. ३२५)। २ जिसके द्वारा जीव ऊंच और नीच कहा जाता है जहां पर गाय-भैंस प्रावि पानी पीते हैं और जो वह गोत्र कर्म कहलाता है। ५ मिथ्यात्व प्रादि ऊपर से नीचे की ओर ढाल होता है ऐसे नदी व कारणों के द्वारा जीव के साथ सम्बन्ध को प्राप्त तालाब प्रादि के घाट को गोतीर्थ कहते हैं। इस हा जो कर्म-पूदगलस्कन्ध उच्च अथवा नीच गोतीर्थ के समान जो लवण समुद्र के उभय पार्श्व (लोकनिन्ध) कुल में उत्पन्न कराता है, उसे गोत्र भागों में क्रम से नीचे नीचे प्रवेशमार्ग से सहित कहते हैं। ६ सन्तानक्रम से पाये हए प्राचरण का स्थान है वह 'गोतीर्थ' नाम से प्रसिद्ध है। नाम गोत्र है। गोत्र -१. उच्चर्नीचैश्च गूयते शध्द्यत इति वा गोदोहिका-१. गोदोहिगा गोदोहने आसनमिवागोत्रम् । (स. सि. ८-४)। २. गूयते तदिति सनम् । (भ. प्रा. विजयो. २२४) । २. पाणिभ्यां गोत्रम् । गूयते शब्द्यते तदिति गोत्रम् । (त. वा. ६, तु भुवस्त्यागे तत्स्याद् गोदोहिकासनम् । (योगशा. २५, ५); उच्चर्नीचश्च गूयते शब्द्यतेऽनेति ४-१३२)। ३. गोदोहिगा गोदोहे आसनमिव गोत्रम् । (त. वा. ८, ४, २)। ३. गोत्रं उच्चनी. पाणिद्वयमुक्षिष्याग्रपादाभ्यामासनम् । (भ. प्रा. चभेदलक्षणम्, तद् गच्छति प्राप्नोत्यात्मेति गोत्रम् । मूला. २२४) । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ८-५); १ गोदोहन के समय जिस प्रकार दोनों एड़ियों को यदयाज्जीवो गच्छत्युच्चीचैश्च जातीरुच्चाबचा- ऊपर उठा कर बैठा जाता है, इस प्रकार के प्रासनस्तन गोत्रम् । (त. भा. हरि. व सिद्ध. व. विशेष को गोदोहिका कहा जाता है। ८-१३)। ४. तथा गां वाचं त्रायत इति गोत्रम्, गोनिषद्या-देखो गोदोहिका । गोणिसेज्जा जंघाद्विष हि क्रिया कर्मव्युत्पत्त्या , नार्थक्रियार्था द्वयं संकोच्य गोरिवासनम्। भ.प्रा. मला. २२४)। इत्यच्च र्भावादिनिबन्धनमदृष्टमित्यर्थः। (श्रा. प्र. दोनों जंघात्रों को संकुचित करके गाय के समान टी.१५. गमयत्युच्च-नीचकुलमिति गोत्रम्, उच्च- बैठने को गोनिषद्या कहते हैं। नीचकुलेसु उप्पादो पोग्गलक्खंघो मिच्छत्तादिपच्च- गोनिषद्यापपर्यङ्क (गोरिणसेज्जाद्धपलियंक)एहि जीवसंबद्धो गोदमिदि उच्चदे। (षव. पु. ६, गोणिसेज्जप्रद्धपलियंकं गोनिषद्या गवासनमिव अर्द्धपृ. १३; पु. १३, पृ. २०)। ६. संताणकमेणागय- पर्यकम् । (म. प्रा. विजयो. २२४)। जीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा । (गो.क. १३)। गाय के बैठने के समान अर्घपयंक प्रासन को गोनि७. गोत्रं तु यथार्थकुलं वा। (विपाक. अभय. वृ., पृ. षद्यार्थपर्यक कहते हैं। ८); गोत्रं प्रावर्थिकी संज्ञवेति । (विपाक. अभय. गोपुर-पायाराणं वारे घडिदगिहा गोवुरं णाम । इ., पृ. १३)। ८. गोत्रं नाम तथाविधकपुरुषप्रभवो (धव. पु. १४, पृ. ३६) । वंशः । (योगशा. स्वो. विव. १-४७)। ६. गां प्राकारों के द्वार पर जो गृह बनाये जाते हैं उन्हें त्रायत इति गोत्रम्, शुभाशुभां वाचमुच्चारणकाला- गोपुर कहा जाता है। तरार्थप्रतिपत्तिजनकत्वात् पालयतीति यावद्, गूयते गोमत्रिकागति-१. गोमूत्रिकेव गोमत्रिका। क शुभाशुभता प्राणिनां यद्वशात् तद्वा गोत्रम् । (पंचसं. उपमार्थः ? यथा गोमूत्रिका बहुवा तथा त्रिविस्वो. वृ. ३-११६, पृ. ३३-३४)। १०. तथा गूयते ग्रहा गतिर्गोमूत्रिका चातुःसामयिकी। (त. वा. २, शब्द्यते उच्चावचैः शब्दर्यत्तद् गोत्रं उच्च-नीचकुलो- २८, ४, धव. पु. १, पृ. ३००)। २. गोमुत्तिो त्पत्तिलक्षणः पर्यायविशेषः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि गोत्रं तिविग्गहो। (धव. पु. ४, पृ. ३०)। हा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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