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________________ गृहिलिङ्ग ] करने वाला, परस्पर के विरोध से रहित धर्मादि तीन पुरुषार्थों का साधक; प्रतिथि, साघु एवं दीन जन का यथोचित उपकार करने वाला, दुरभिनिवेश - दुष्ट अभिप्राय - से सदा दूर रहने वाला, गुणों का पक्षपाती, देश-काल के प्रतिकूल श्राचरण से रहित, बलाबल का ज्ञाता, व्रती व ज्ञानी जन का पूजक, पोष्यवर्ग - माता-पिता श्रादि- का पोषक, दीर्घदर्शी, विशेषज्ञ, कृतज्ञ, लोकवल्लभ, लज्जालु, दयालु, सौम्य – क्रूरता से रहित श्राकृति का धारक, पर उपकारक, अन्तरङ्ग शत्रुरूप षड्वर्ग - काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष- का परित्याग करने वाला तथा जितेन्द्रिय; इन गुणों से युक्त मनुष्य गृहस्थधर्म का धारण करने वाला होता है । गृहिलिङ्ग – गृहिलिङ्ग दीर्घकेश - कच्छाबन्धादिः । ( त. भा. सि. वृ. १०-७ ) । लम्बे केश रखने और कच्छा (कटिवस्त्र) बांधने प्रादि रूप गृहस्थों के वेष को गृहिलिङ्ग कहते हैं । गृहिलिङ्गसिद्ध - १. गृहिलिङ्गे स्थिताः सन्तो ये सिद्धा ते गृहिलिङ्ग सिद्धा: । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ७८) । २. गृहिलिङ्गे सिद्धाः गृहिलिङ्गसिद्धाः मरुदेवीप्रभृतय: । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-४, पृ. २२ ) । १ गृहस्थ के वेष में स्थित होते हुए जिन्होंने सिद्धपद प्राप्त किया है उन्हें गृहिलिङ्गसिद्ध कहते हैं । गृहिसंक्लिष्ट - गृहिसम्बन्धिनां तु द्विपद-चतुष्पद - धन-धान्यादीनां त (तृ)प्तिकरणप्रवृत्तो गृहिसं क्लिष्टः । एवंभूतः संसक्तोऽतिशयेनाविशुद्धत्वात संक्लिष्टोऽभिधोयते । (श्राव. ह. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ८४ ) । जो गृहस्थ सम्बन्धी दास-दासी श्रादि द्विपद, गायभैंस श्रादि चतुष्पद और धन-धान्यादि की तृप्ति - सन्तोषार्थं उनके संग्रह -- में संलग्न रहता है, वह विशुद्धिरहित होने से गृहिसंक्लिष्ट कहलाता है । गृहीतग्रहणाद्धा - श्रप्पिदपोग्गल परियदृभंतरे गहिदपोग्गलाणं चेय गहणकालो गहिदगहणद्धा णाम । (घव. पु. ४, पृ. ३३८ ) । विवक्षित पुद्गल परिवर्त के भीतर केवल गृहीत पुद्गलों के ग्रहण का जो काल है उसे गृहीतग्रहणाद्वा काल कहा जाता है । गृहीतमिथ्यादर्शन - १. परोपदेशतो जातं तत्त्वार्थानामरोचनम् । गृहीतमुच्यते सद्भिमिथ्यादर्शन Jain Education International ४१६, जैन-लक्षणावलो [गौचार मङ्गिनाम् ॥ ( पंचसं श्रमित. १-३०७ ) । २. संसर्गाज्जायते यच्च गृहीतं तच्चतुर्विधम् । ( धर्मसं. श्रा. ४-३३ ) । १ जो दूसरे के उपदेश से तत्त्वार्थ का अश्रद्धान होता है उसे गृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं । गृहीशिता - शुभवृत्तिक्रियामंत्र विवाहैः स्वोत्तरक्रियैः ॥ अनन्यसदृशैरेभिः श्रुतवृत्तिक्रियादिभिः । स्वमुन्नति नयन्नेष तदार्हति गृहीशिताम् ।। (म. पु. ३८, १४५, - ४६ ) ; विशुद्धस्तेन वृत्तेन ततोऽभ्येति गृहीशिताम् । वृत्ताध्ययनसम्पत्त्या परानुग्रहणक्षमः ॥ प्रायश्चित्तविधानज्ञः श्रुतिस्मृतिपुराणवित् । गृहस्थाचार्यतां प्राप्तस्तदा घत्ते गृहीशिताम् ॥ (म. पु. ३६, ७३-७४) । जो उत्तर क्रियाओं के साथ उत्तम वृत्ति, उत्तम क्रिया, मन्त्र और विवाह आदि के द्वारा उन्नति करता है वह गृहीशिता - गृहस्थों की प्रमुखता - के योग्य होता है । गोचार - १. यथा सलील-सालंकारवरयुवतिभिरुपनीयमानघासो (चा. सा. - घासे) गौर्न तदङ्गगतसौन्दर्यनिरीक्षणपरः, तृणमेवात्ति, यथा वा तृणोलूप (चा. सा- तृणोलपं) नानादेशस्थं यथालाभमभ्यवहरति, न योजनासम्पदमवेक्षते तथा भिक्षुरपि भिक्षापरिवेषकजन मृदुल लितरूप-वेष-विलासावलोकन नि रुत्सुकः शुष्क द्रवाहारयोजना विशेषं चानवेक्षमाणः यथागतमश्नाति इति गौरिव चारो गोचार इति व्यपदिश्यते, तथा गवेषणेति च । (त. वा. ६, ६, १६; चा. सा. पृ. ३५) । २. कान्तातारुण्यलावण्यलीलालोकन जल्पन । स्मेरास्याब्जपदन्यासविलासाद्यनिरीक्षणः | गौर्यथाऽत्ति तृणव्रातं क्षिप्तं भुञ्जीत यत्नतः । तथाऽन्नाद्यमनास्वाद्य गोचरज्ञो यथोचितम् ॥ ( श्राचा. सा. ५, १२५ - २६ ) । ३. गोर्बलीवर्दस्येव चारोऽभ्यवहारो गोचारः प्रयोक्तृजन सौन्दर्यं निरीक्षणविमुखतया यथालाभमनपेक्षितस्वादोचित संयोजनाविशेषं चाभ्यवहरणात् । (अन. ध. स्वो. टी. ६–४ε) । १ जैसे गाय घास डालने वाली स्त्री के श्रंगगत सौन्दर्य को नहीं देखकर केवल घास का ही भक्षण करती है श्रथवा अनेक देशों में स्थित जो भी तृणसमह उपलब्ध होता है उसका ही उपभोग करती है, उसकी योजना को नहीं देखती उसी प्रकार साधु भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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