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________________ गृहस्थ] ४१८, जैन-लक्षणावली [गृहिधर्मयोग्यगृही पांच अणुवत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा- धम्मरयणस्स जुगो अक्खुद्दो रूववं पगइसोमो । व्रतों को धारण करते हुए कुछ अंश में पाप से लोअप्पियो अकूरो भीरू असढो सुदप्पिणो ॥ लज्जासहित होते हैं उन्हें गृहमेधी-गृहस्थ श्रावक-कहा लुप्रो दयालू मज्झत्थो सोमदिट्ठी गुणरागी। सक्कजाता है। हसपक्खहुत्तो सुदीहदंसी विसेसन्नू । बुद्धाणुगो गहस्थ-१. गृहम् अगारम्, तत्र तिष्ठन्तीति गृहस्थाः। विणीग्रो कयन्तुप्रो परहित्थकारी अ। तह चेव (सूत्रकृ. शी. व. १-१४, पृ. २६५)। २. क्षान्ति- लद्धलक्खो इगवीसगुणो हवइ सड्ढो । (प्रा. दि. योषिति यो सक्तः सम्यग्ज्ञानातिथिप्रियः। स गृह- पृ. ४२-४३ उद्.)। २. न्यायसंपन्न विभवः शिष्टास्थो भवेन्नून मनोदैवतसाधकः ।। (उपासका. ८७३)। चारप्रशंसकः । कुल-शीलसमैः साद्धं कृतोद्वाहोऽन्यगो३. नित्य-नैमित्तिकानुष्ठानस्थो गृहस्थः । (नीतिवा. जैः ।। पापभीरुः प्रसिद्धं च देशाचार समाचरन् । २-१८)। अवर्णवादी न क्वापि राजादिषु विशेषतः ।। अनति२ जो क्षमारूप स्त्री में प्रासक्त रहकर सम्यग्ज्ञानरूप व्यक्तगुप्ते च स्थाने सुप्रतिवेश्मिके ।। अनेकनिर्गमअतिथि से प्रेम करता है तथा मनरूप देवता का द्वारविजितनिकेतनः ॥ कृतसङ्गः सदाचारसाधक-उसे वश में रखने वाला-है उसे गृहस्थ तापित्रोश्च पूजकः । त्यजन्नुपप्लुतं स्थानमप्रवृत्तकहते हैं। ३ श्रावकोचित नित्य और नैमित्तिक श्च गहिते ॥ व्ययमायोचित कुर्वन् वेषं वित्तानुसाअनुष्ठानों के करने वाले मनुष्य को गहस्थ कहते रतः । अष्टभिर्धीगुणर्युक्तः शृण्वानो धर्ममन्वहम् ।। अजीर्ण भोजनत्यागी काले भोक्ता च सात्म्यतः । गृहस्थधर्म-देखो गृहिधर्म । गृहे तिष्ठतीति गृह- अन्योन्याप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपि साधयन् ।। यथावदस्थः, तस्य धर्मो नित्य-नैमित्तिकानुष्ठानरूपः । (ध. तिथौ साधौ दीने च प्रतिपत्तिकृत् । सदानभिनिवि. बि. मु. वृ. १-१)। ष्टश्च पक्षपाती गुणेषु च ॥ प्रदेशाकालयोश्चयां घर में जो रहता है वह गही या गहस्थ कहलाता त्यजन् जानन् बलाबलम् । वृत्तस्थज्ञानवृद्धानां है। उसका धर्म नित्य और नैमित्तिक अनन्ठान है। पूजकः पोष्यपोषकः ।। दीर्घदर्शी विशेषज्ञः कृतज्ञो गहस्थाचार्य - क्रियास्वन्यासू शास्त्रोक्तमार्गेण लोकवल्लभः। सलज्जः सदयः सौम्यः परोपकृतिकरणं मता । (?) कुर्वन्नेवं क्रियां जैनो गृहस्था- कर्मठः ॥ अन्तरङ्गारिषड्वर्गपरिहारपरायणः । चार्य उच्यते ।। (रत्नमाला ५०)। वशीकृतेन्द्रिय ग्रामो गृहिधर्माय कल्पते ॥ (योगशा. गृहस्थोचित अन्य क्रियाओं को शास्त्रोक्त मार्ग से १,४७-५६)। कराने वाले प्राचार्य को गहस्थाचार्य कहते हैं। २ न्याय से-स्वामि-मित्रद्रोहादिसे रहित होकरगहिरपी-गृहिणी कोलीन्यादिगुणालंकृता पत्नी। धनका उपार्जन करने वाला, सदाचारप्रशंसक, समान (सा. घ. स्वो. टी. १-११)। कुल व शील वालों के साथ विवाह को करने वाला, कुलीनता प्रादि गुणों से अलंकृत पत्नी को गृहिणी पाप से भयभीत, देश के अनकूल आचरण करने कहते हैं। वाला, परनिन्दा से रहित; जो गह न प्रतिव्यक्त गहिधर्म-देखो गृहस्थधर्म । १ पंच य अणुव्वयाई हो-गृहान्तरों से दूरवर्ती हो-और न अतिगुणव्वयाई च होंति तिन्नेव । सिक्खावयाइं चउरो गुप्त-गृहान्तरों से अतिशय घिरा हुमा होगिहिधम्मो बारसविहो अ।। (दशवै. नि. ६, २, जहां पड़ोस अच्छा हो, तथा जो जाने-माने २४६) । २. सोऽपि द्वादशव्रतधारण-यतिजनोपास- के बहुत द्वारों से रहित हो ऐसे गृह में रहने टर्न.टान-ठील-जपोभावनासंधयादिभिरुपचीय. वाला; सत्संगति में तत्पर, माता-पिता का पूजक, मानः । (प्रा. दि. पृ. २)। निरुपद्रव स्थान में निवसित, निन्द्य माचरण से १ पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावत दूरवर्ती, प्राय के अनुसार व्यय एवं धन के अनुसार इन बारह व्रतों के पालन को गृहिधर्म कहते हैं। वेष करने वाला, पाठ बुद्धिगुणों से सम्पन्न, प्रतिगृहिधर्मयोग्य गही- १. संस्कारचतुर्दशकसंस्कृतो दिन धर्म को सुनने वाला, अजीर्ण होने पर भोजनगृही गृहिधर्माय कल्पते । (प्रा, दि. पृ. ४२); त्यागी, समय पर सात्म्य-प्रकृति के अनुकूल-भोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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