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________________ प्रस्तावना इसकी टीका में अभयदेव सरि ने अचेल का अर्थ 'न विद्यन्ते चेलानि वासांसि यस्यासावचेलकः' इस निरुक्ति के साथ निर्वस्त्र-जिनकल्पिक-ही किया है। मूलाचार (१-३०) में वस्त्र, चमड़ा, वल्कल अथवा पत्र (पत्ता) आदि से शरीर के न ढकने को पाचेलक्य का स्वरूप बतलाते हुए उसे लोकपूज्य बतलाया है। भगवती आराधना में जिस दस प्रकार के कल्प का निर्देश किया गया है उसमें प्राचेलक्य पहला है। इसकी टीका में अचेलकता-निर्वस्त्रता-का प्रबलता से समर्थन करते हुए अपराजित सूरि ने उसके आश्रय से इन गुणों का प्रादुर्भाव बतलाया है-त्याग, आकिंचाय, सत्य, लाघव, अदत्तविरति, भावविशुद्धिमय ब्रह्मचर्य, उत्तम क्षमा, मार्दव, प्रार्जव, तप, संयमविशुद्धि, इन्द्रियविजय और कषायका अभाव आदि । मागे एतद्विषयक शंका-समाधान में उन्होंने प्राचारप्रणिधि, ग्राचा रांग का द्वितीय अध्ययन लोकविजय, वस्त्रषणा', पात्रषणा, भावना, सत्रकृतांग का पुण्डरीक अध्ययन, प्राचारांग, उत्तराध्यर और दशवकालिक आदि प्रागमों के नामोल्लेखपूर्वक कुछ अवतरण भी दिये हैं। आगे प्राचारांग के वस्त्रविधायक अन्य सूत्र का भी निर्देश करते हए उन्होंने बतलाया है कि उसका विधान कारणविशेष की अपेक्षा से किया गया है। __ उत्तराध्ययन (२-१३) में कहा गया है कि ज्ञानी साधु चाहे अचेल हो और चाहे सचेल हो उसे इसको धर्मोपकारक जानकर खिन्न नहीं होना चाहिए। आगे इसी उत्तराध्ययन (२३-२६) में पाश्वपरम्परा के शिष्य केशिकुमार ने गौतम गणधर से प्रश्न करते हुए कहा है कि वर्धमान स्वामी ने तो अचेलक धर्म का उपदेश दिया है और भगवान् पार्श्व ने सान्तरोत्तर-विशेषवस्त्रयुक्त-धर्म का उपदेश दिया है। एक मार्ग के प्रवर्तक दोनों के उपदेश में यह भेद क्यों ? उत्तर में गौतम ने कहा है कि जनसमुदाय को साधुत्व का परिज्ञान कराने के लिए अनेक प्रकार का विकल्प किया गया है । लिंग का प्रयोजन संयम का निर्वाह और ग्रहण (ज्ञान) है। वस्तुतः मोक्ष के साधक तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं। अटटांग-यह एक कालका भेद है। तिलोयपण्णत्ती के अनुसार यह ८४ त्रुटित प्रमाण, अनुयोगद्वार सूत्र के अनुसार ८४ लाख त्रुटितप्रमाण तथा ज्योतिष्करण्डक के अनुसार ८४ लाख महात्रुटित प्रमाण है। इन कालवाचक शब्दों में क्रमादि का व्यत्यय भी हुआ है । जैसे-अनुयोगद्वारसूत्र (सूत्र ३६७, पृ. १४६) में उनका क्रम इस प्रकार है -१ त्रुटितांग, २ त्रुटित, ३ अटटांग, ४ मटट, ५ अवांग, ६ अवव, ७ हुहुकांग, त्पलांग, १० उत्पल, ११ पद्मांग, १२ पदम, १३ नलिनांग, १४ नलिन, १५ अर्थनिपूरांग, १. देखिये पीछे पृ. ३४ का ३रा टिप्पण । २. प्राचेलक्कु सिय सेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे । जेट्रपडिक्कमणे वि य मासं पज्जोसवणकप्पो । भ.पा. ४२१. ३. दशवैकालिक का पाठवां अध्ययन । ४. पाचाराम (द्वि. श्रुतस्कन्ध) की प्रथम चूलिका का ५वां अध्ययन । ५. इसी चूलिका का छठा अध्ययन । ६. प्राचाराग्र की तीसरी चूलिका। ७. सूत्रकृ. द्वि. श्रुतस्कन्ध का प्रथम अध्ययन । ८. प्रायिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया । भिक्षूणा [यः] ह्रीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्ब मानबीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति । तथा चोक्तमाचाराङ्गे-सुदं मे पाउस्संतो भगवदा एवमक्खादं-इह खलु संजमाभिमुखा दुविहा इत्थी-पुरिसा जादा भवंति । तं जहा-सव्वसमण्णागदे णो सव्वसमण्णागदे चेव । तत्थ जे सव्वसमण्णागदे थिरांगहत्थ-पाणि-पादे सविदियसमण्णागदे तस्स ण णो कप्पदि एगमवि वत्थं धारिलं एव परिहिउं एव अण्णत्थ एगेण पडिलेहगेण इति । भ. पा. ४२१ टीका, पृ. ६१२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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