SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ जैन-लक्षणावली १६ अर्थनिपूर, १७ अयुतांग, १८ अयुत, १६ नयुतांग, २० नयुत, २१ प्रयुतांग, २२ प्रयुत, २३ चूलिकाँग, २४ चूलिका, २५ शीर्षप्रहेलिकांग, २६ शीर्षप्रहेलिका। ज्योतिष्करंडक (२, ६४-७०) में-१ लतांग, २ लता, ३ महानलिन, ४ नलिनांग, ५ नलिन, ६ महानलिनांग, ७ महानलिन, ८ पद्मांग, ६ पद्म, १० महापांग, ११ महापद्म, १२ कमलांग, १३ कमल, १४ महाकमलांग, १५ महाकमल, १६ कुमुदांग, १७ कुमुद, १८ महाकुमुदांग, १६ महाकुमुद, २० त्रुटितांग, २१ त्रुटित, २२ महाश्रुटितांग, २३ महात्रुटित, २४ अटटांग, २५ अटट, २६ महापटटांग, २७ महापटट, २८ ऊहांग, २६ ऊह, ३० महाऊहांग, ३१ महाऊह, ३२ शीर्षप्रहेलिकांग, ३३ शीर्षप्रहेलिका। इस मतभेद का कारण माथुरी और वालभो वाचनाओं का पाटभेद रहा है। अतिचार-प्रसंग के अनुसार इसके अनेक लक्षण उपलब्ध होते हैं। जैसे-पिण्डनियुक्ति (१८२) में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार इन चार के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि किसी श्रावक के द्वारा प्राधाकर्म (साधु को लक्ष्य करके जिस भोजनपाक क्रिया को प्रारम्भ किया जाता है उस क्रिया को और उसके निमित्त से निष्पन्न भोजन को भी प्राधाकर्म कहा जाता है) का निमंत्रण देने पर उसे साधु यदि स्वीकार करता है तो वह अतिक्रम दोष का भागी होता है । तत्पश्चात् साधु जब उसे स्वीकार करके जाने के लिए उद्यत होता है-पैरों को उठाता-धरता प्रादि है-तब वह व्यतिक्रम दोष का पात्र होता है। तदनन्तर उक्त प्राधाकर्म को ग्रहण करने पर अतिचार दोष होता है। अन्त में उसके निगनने पर वह चतुर्थ अनाचार दोष का पात्र होता है। स " मूलाचार (११-११) में भी चौरासी लाख गुणों के उत्पादन प्रकरण में उक्त अतिक्रमादि चार का नामोल्लेख मात्र किया गया है। उसकी टीका में वसुनन्दी ने उनका स्वरूप इस प्रकार बतलाया हैसंयतसमूह के मध्य में स्थित रहकर विषयों की इच्छा करना, इसका नाम अतिकम है। संयतसमूह को छोडकर संयत के विषयोकरणों के जुटाने को व्यतिक्रम कहते हैं। व्रत की शिथिलता और कुछ असंयम के सेवन को अतिचार कहा जाता है। व्रत को भंग करके स्वच्छन्दतापूर्ण जो प्रवृत्ति की जाती है, यह अनाचार कहलाता है। ___षट्खण्डागमप्ररूपित शीलव्रतविषयक निरतिचारता को स्पष्ट करते हुए घवलाकार ने मद्यपान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद; इनका त्याग न करने को अतिचार कहा है (पु. ८, पृ. ८२)। हरिभद्र सूरि ने श्रावकप्रज्ञप्ति की टीका में असत् अनुष्ठानविशेषों को, तथा अावश्यकनियुक्ति की टीका में संज्वलन कषायों के उदय से होने वाले चारित्रस्खलनविशेषों को अतिचार कहा है। प्रा. अमितगति ने द्वात्रिंशिका में विषयों में प्रवर्तन को अतिचार निर्दिष्ट किया है। १. तिलोयपण्णत्ती आदि अन्य ग्रन्थगत इन कालमानों की तालिका ति. प. भाग २, परिशिष्ट पृ. ६६७ पर देखिये। २. इह स्कन्दिलाचार्यप्रवृत्तौ दुष्षमानुभावतो दुभिक्षप्रवृत्त्या साधूनां पठन-गुणनादिकं सर्वमप्यनेशत् । ततो दुर्भिक्षतातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्ती द्वयोः संघमेलापकोऽभवत् । तद्यथा-एको वालभ्यामेको मथुरायाम् । तत्र च सूत्रार्थसंघटनेन परस्परं वाचनाभेदो जातः, विस्मृतयोहि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेदो न काचिदनुपपत्तिः। तत्रानुयोगद्वारादिकमिदानी प्रवर्तमानं माथुरवाचनानुगतम्, ज्योतिष्करण्डकसूत्रकर्ता चाचार्यों वालभ्यः, तत इदं संख्यास्थानप्रतिपादनं बालभ्यवाचनानुगतमिति नास्त्यनुयोगद्वारसंख्यास्थानः सह विसदशत्वमुपलभ्य विचिकित्सितव्यमिति । ज्योतिष्क, मलय. वृत्ति २-७१, पृ. ४१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy