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________________ जैन - लक्षणावली लचणवैशिष्ट्य देश-काल की विशेषता अथवा लक्षणकार की मनोवृत्ति के कारण एक ही लक्ष्य के लक्षण में कहीं कुछ विशेषता या विविधता भी देखी जाती । जैसे— ७० — कर्मभूमि - कर्मभूमिक का यौगिक अर्थ कर्मभूमिभिन्न- भोगभूमि में उत्पन्न हुआ जीव होता है । इस अभिप्राय को व्यक्त करने वाला लक्षण समवायांग की अभयदेव विरचित वृत्ति में पाया जाता है । स्थानांग में लक्षित 'अकर्मभूमि' के लक्षण से भी यही अभिप्राय ध्वनित होता है । परन्तु धवलाकार ने वेदनाकालविधान के अन्तर्गत सूत्र ८ की व्याख्या करते हुए 'अकर्मभूमिक' से देव और नारकियों को ग्रहण किया है । प्रकरण वहाँ काल की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट वेदना के स्वामी का है । वह चूंकि भोगभूमिजों के सम्भव नहीं है, अतएव सूत्रस्थ 'प्रकम्मभूमियस्स' पद का अर्थ वहाँ 'देव नारकी' किया गया है । श्रक्षौहिणी - पउमचरिउ और पद्मचरित्र (पद्मपुराण) के अनुसार अक्षौहिणी का प्रमाण २१८७०० तथा घवला के अनुसार वह ६०६०६०६००० है । अचेलक - अचेल, अचेलक और प्रावेलक्य ये समानार्थक शब्द हैं । श्राचारांगसूत्र १८० में (पृ. २१८) अचेल शब्द उपलब्ध होता है । प्रसंग वहाँ चरित्र को वृद्धिंगत करने का है । इसके लिए वहाँ कहा गया है कि मोक्ष के निकटवर्ती कितने ही जीव धर्म को ग्रहण करके धर्मोपकरणों के विषय में सावधान होते हुए धर्म का आचरण करते हैं । इस प्रकार से जो काम भोगादि में आसक्त न होकर धर्माचरण में दृढ़ होते हैं तथा समस्त गृद्धि - भोगाकांक्षा को - दुःखरूप समझकर उसे छोड़ देते हैं वे ही महामुनि होते हैं । ऐसा महर्षि चेतन-अचेतन परिग्रह में निर्ममत्व होकर विचार करता है कि मेरा कुछ भी नहीं, मैं अकेला हूं। इस प्रकार एकत्वभावना को भाता हुआ जो अचेल - वस्त्रादि सब प्रकार के परिग्रह से रहित साधु- संयम में उद्यत होकर प्रवमौदर्य में स्थित होता है वह सब प्रकार के उपद्रव को सहन करता है । इसकी टीका में शीलांकाचार्य ने 'प्रचेल' का अर्थ 'अल्पवस्त्रवाला या जिनकल्पिक' किया है । आगे उक्त आचारांग के सूत्र १८२ में कहा गया है कि जो साधु वस्त्र का परित्याग करके संयम में दृढ है उसके अन्तःकरण में इस प्रकार का प्रार्तध्यान नहीं होता है - मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है, वस्त्र की मैं याचना करूंगा, धागे की याचना करूंगा, सुई की याचना करूंगा, जोडूंगा, सीऊंगा, बड़ा करूंगा, छोटा करूंगा, पहिनूंगा और शरीर को श्राच्छादित करूंगा इत्यादि । इसकी टीका में भी शीलांकाचार्य ने प्रथमतः अचेलका अर्थ प्रल्प अर्थ में 'नम्' मानकर 'अज्ञ' पुरुष का उदाहरण देते हुए 'अल्पचेल' किया है । पर श्रागे चलकर सम्भवतः प्रसंग की प्रतिकूलता का अनुभव करते हुए उन्होंने यह भी कह दिया है-- अथवा जिनकल्पिक के अभिप्राय से ही इस सूत्र की व्याख्या करनी चाहिए । इसी श्राधारांग सूत्र (२०८ - १० ) में अपवाद के रूप में यह भी बतलाया है कि जो भिक्षु तीन वस्त्रों को ग्रहण कर संयम का परिपालन कर रहा है उसे कैसी भी शैत्य आदि की बाघा क्यों न हो, चौथे वस्त्र की याचना नहीं करना चाहिए तथा विहित वस्त्रों को धारण करते हुए भी उन्हें धोना नहीं चाहिए । शीत ऋतु के बीत जाने पर तीन की अपेक्षा दो और फिर दो की उसे भी छोड़कर अचेल हो जाना चाहिए। ऐसा करने से उपकरणविषयक कायक्लेशरूप तपका आचरण होता है । स्थानांगसूत्र में (सू. ४५५, पृ. ३२५) अल्पप्रतिलेखा, लाघविक प्रशस्त, वैश्वासिक रूप, तप अनुज्ञात और विपुल इन्द्रियनिग्रह, इन पांच स्थानों द्वारा अचेलको वस्त्रहीन साधु को - प्रशस्त बतलाया है । Jain Education International अपेक्षा एक रखकर अन्त में लघुता प्रगट होती है तथा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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