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________________ ५२ जैन-लक्षणावली के श्रावकधर्म का प्ररूपक एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। गाथासंख्या इसकी ४०१ है। इसमें प्रथमतः श्रावक के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जो सम्यग्दृष्टि प्रतिदिन मुनि जनों से सामाचारी–साधु और श्रावक से सम्बद्ध आचार को-सुनता है वह श्रावक कहलाता है। आगे श्रावक के बारह व्रतों का निर्देश करके उनका मूल कारण सम्यक्त्व को बतलाया है। पश्चात् जीव के साथ अनादि से सम्बन्ध को प्राप्त हुए ज्ञानावरणादि कर्मों का निरूपण करते हुए वहाँ सम्यक्त्व और उसके विषयभूत जीवादि सात तत्त्वों का विवेचन किया गया है। फिर क्रम से श्रावक के बारह व्रतों की प्ररूपणा करते हुए स्थूल प्राणवधविरमण (प्रथम अणुव्रत) के प्रसंग में हिंसा-अहिंसा की विस्तार से (गा. १०६-२५६) चर्चा की गई है। अन्त में श्रावक के निवास आदि से सम्बद्ध सामाचारी आदि का विवेचन किया गया है। कुछ गाथाएँ यहाँ और समराइच्चकहा में समान रूप से उपलब्ध होती है । जैसेश्रा. प्र. ५३-६० व ३६०-६१ आदि । सम. क.७४-८१ व ८२-८३ आदि । इस पर 'दिक्प्रदा' नाम की स्वोपज्ञ टीका है। इस टीका के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ ज्ञानप्रसारकमण्डल नामक समाज बम्बई से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हरा है मूल-प्रणुव्रत, अतिथिसंविभाग, आस्रव और प्रौपशमिक सम्यक्त्व आदि । टीका-अणुव्रत, अतिचार, अतिथि, अधोदिग्वत, अनङ्गक्रीडा, अनन्तानुबन्धी, अनर्थदण्डविरति, अन्तराय, आयु, प्रारम्भ, इत्वरपरिगृहीतागमन और ऊर्ध्वदिग्वत आदि । ७७. धर्मबिन्दुप्रकरण-यह हरिभद्र सूरि विरचित धर्म का प्ररूपक सूत्रात्मक ग्रन्थ है । इसमें आठ अध्याय हैं । गद्यात्मक समस्त सूत्रों की संख्या ५४२ और श्लोक (अनुष्टुप) संख्या ४८ है । ये श्लोक प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में ३-३ और अन्त में भी ३-३ ही हैं । प्रथम अध्याय को प्रारम्भ कर हुए सर्वप्रथम यहाँ परमात्मा को नमस्कार करके श्रुत-समुद्र से जलबिन्दु के समान धर्मबिन्दु को उद्धृत करके उसके कहने की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् धर्म के स्वरूप का निर्देश करते हुए उसे गृहस्थ और यति के भेद से दो प्रकार का बतलाया है। फिर सामान्य और विशेष रूप से गृहस्थधर्म के भी दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। उनमें सामान्य गृहस्थधर्म का वर्णन करते हुए प्रथमतः न्यायोपार्जित धन को आवश्यक बतलाया है, तत्पश्चात समानकल-शीलादि वाले अगोत्रजों (भिन्न गोत्र वालों) में विवाह । प्रकार के सामान्य धर्म का निर्देश करते हुए इस अध्याय को समाप्त किया गया है। हेमचन्द्र सूरि ने सम्भवतः इसी का अनुसरण करके 'न्यायविभवसम्पन्न' आदि ३५ विशेषणों से विशिष्ट गृहस्थ को श्रावकधर्म का अधिकारी बतलाया है। प्रागे दूसरे अध्याय में गृहस्थधर्मदेशना की विधि का निरूपण करते हुए तीसरे अध्याय में अणुव्रतादिरूप विशेष गृहस्थधर्म की प्ररूपणा की गई है। चतुर्थ अध्याय में दीक्षा के अधिकारी का विचार करते हुए उसके लिए प्रार्यदेशोत्पन्न प्रादि १६ विशेषणों से विशिष्ट बतलाया गया है। पांचवें अध्याय में यति की विशेष विधि का वर्णन करते हुए छठे अध्याय में यतिधर्म के विषयविभाग का विवेचन किया गया है। सातवें अध्याय में धर्म के फल और पाठवें अध्याय में परम्परा से तीर्थकरत्व प्रादि की प्राप्ति का वर्णन किया गया है। इसके ऊपर मुनिचन्द्र सूरि के द्वारा विक्रम सं. ११८१ में टीका लिखी गई है। इस टीका के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ पागमोदय समिति बम्बई से प्रकाशित हया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुया है मूल-अणुव्रत और इन्द्रियजय आदि । टीका-अतिथि, अतिथिसंविभाग, अनर्थदण्डविरति, भनङ्गक्रीडा और अन्न-पाननिरोध आदि । ७८. पंचाशक-इसमें १६ पंचाशक (लगभग ५०-५० गाथायुक्त प्रकरण) और उनकी समस्त गाथासंख्या ९४० है। प्रथम पंचाशकका नाम श्रावकधर्मपंचाशक है। इसमें सम्यक्त्व के साथ श्रावक के १२ १. योगशास्त्र १,४७-५६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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