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________________ प्रस्तावना ५१ । प्रकरणानुसार इसमें और श्रावकप्रज्ञप्ति में कितनी ही गाथाएँ समानरूप से उपलब्ध होती हैं । कुछ गाथायें समराच्चकहा में भी उपलब्ध होती हैं । यथाक्रम से मिलान कीजिये धर्म संग्रहणी - ६०७ - २३, ७४४-४७, ७५२, ७५५-६३, ८००, ७८० (पू.), ७६६-८१४. श्रावकप्रज्ञप्ति - १०-२६, २७-३०, ३२, ३४-४२, ४७, १०१ (पू.), ४३-६१. इसके ऊपर श्राचार्य मलयगिरि द्वारा टीका लिखी गई है। इस टीका के साथ ग्रन्थ देवचन्द्र लालभाई जैन साहित्योद्वार फण्ड बम्बई से प्रकाशित हुआ है । मूल मात्र पंचाशक आदि के साथ ऋषभदेव केशरीमल जी श्वे. संस्था रतलाम द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसकी टीका का उपयोग इस शब्दों में हुआ है - श्रनुमान, अन्तरायकर्म, प्रादेय नामकर्म, श्रायुकर्म और औपशमिकसम्यक्त्व आदि । हरिभद्रसूरि के इन अन्य ग्रन्थों का भी प्रकृत लक्षणावली में उपयोग हुआ है - १ उपदेशपद, २ श्रावकप्रज्ञप्ति ३ धर्म बिन्दुप्रकरण ४ पंचाशक, ५ षड्दर्शनसमुच्चय, ६ शास्त्रवार्तासमुच्चय, ७ षोडशकप्रकरण ८ श्रष्टकानि, योगदृष्टिसमुच्चय, १० योगबिन्दु, ११ योगविंशिका र १२ पंचवस्तुक | ७५. उपदेशपद - प्राकृत गाथाबद्ध यह उपदेशात्मक ग्रन्थ उक्त हरिभद्र सूरि के द्वारा रचा गया है । इसमें समस्त गाथायें १०३६ हैं । सर्वप्रथम यहाँ दो गथानों में ग्रन्थकार हरिभद्र सूरि ने भगवान् महावीर को नमस्कार करते हुए उनके उपदेश के अनुसार मन्दमति जनों के प्रबोधनार्थं कुछ उपदेशपदों के कहने की प्रतिज्ञा की है । टीकाकार मुनिचन्द्र सूरि ने 'उपदेशपदों' का अर्थ दो प्रकार से किया हैप्रथम अर्थ करते हुए उन्होंने उन्हें चार पुरुषार्थों में प्रधानभूत मोक्ष पुरुषार्थविषयक उपदेशों के पदस्थानभूत मनुष्यजन्मदुर्लभत्व आदि - बतलाया है । तथा दूसरा अर्थ करते हुए 'उपदेश' और 'पद' दोनों में कर्मधारय समास स्वीकार कर उपदेशों को ही पद माना है । तदनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ में मनुष्य जन्म की दुर्लभता आदि अनेक कल्याणजनक विषयों की चर्चा की गई है, जो उपदेशात्मक वचनरूप ही है । आगे कहा गया है कि संसाररूप समुद्र में मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है । अतएव जिस किसी प्रकार से इसे पाकर आत्महितैषी जनों को उसका सदुपयोग करना चाहिए । उक्त मनुष्यजन्म अत्यन्त दुर्लभ है, यह चोल्लक आदि के दृष्टान्तों द्वारा प्रा. भद्रबाहु आदि के द्वारा पूर्व में कहा गया । तदनुसार मैं भी उन्हीं दृष्टान्तों को कहता हूँ । इस प्रकार कहकर -- १ चोल्लक, २-३ पाशक, ४ द्यूत, ५ रत्न, ६ स्वप्न, ७ चक्र, ८ चर्म, ६ युग और १० परमाणु इन दस दृष्टान्तों का निर्देश करते हुए क्रम से उन दृष्टान्तों की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की गई है । प्रथम दृष्टान्त चोल्लक का है । चोल्लक यह देशी शब्द है, जो भोजन का वाचक है । जिस प्रकार ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के यहाँ एक बार भोजन करके पुनः भोजन करना दुर्लभ हुआ, इसी प्रकार एक बार मनुष्य पर्याय को पाकर फिर उसका पुनः प्राप्त करना दुर्लभ है । इसकी कथा टीकाकार ने किन्हीं प्राचीन ५०५ गाथाओं द्वारा प्रगट की है । उक्त दृष्टान्तों के अतिरिक्त अन्य भी कितने ही विषयों की प्ररूपणा अनेक दृष्टान्तों के साथ की गई है । ग्रन्थ का प्रकाशन मुनिचन्द्र विरचित (वि. सं. १९७४) उक्त टीका के साथ मुक्तिकमल जैन मोहनमाला बड़ौदा से हुआ । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है मूल - अपवाद और औत्पत्तिकी आदि । टीका - श्रनध्यवसाय, अनुमान और अपवाद आदि I ७६. श्रावकप्रज्ञप्ति - इसके रचयिता उक्त हरिभद्र सूरि हैं । यद्यपि उसकी कुछ हस्तलिखित प्रतियों में 'उमास्वातिविरचित' लिखा गया है, पर श्रावकधर्मपंचाशक, धर्मसंग्रहणी और समराइच्चकहा आदि ग्रन्थों के साथ तुलना करने पर वह हरिभद्र सूरि की ही कृति प्रतीत होती है'। यह बारह प्रकार १. धर्मबिन्दु के टीकाकार मुनिचन्द्र सूरि ने वाचक उमास्वाति विरचित एक श्रावकप्रज्ञप्ति सूत्र का निर्देश किया है । जैसे - तथा च उमास्वातिवाचकविरचितश्रावकप्रज्ञप्तिसूत्रम् - यथा प्रतिथिसंवि भागो नाम प्रतिथयः । ध. बि. मुनि. वृ. ३-१६ ( पर उमास्वाति विरचित कोई संस्कृत श्रावकप्रज्ञप्तिसूत्र उपलब्ध नहीं है ।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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