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________________ प्रस्तावना ५३ ब्रतों की चर्चा की गई है। इसे श्रावकप्रज्ञसिका संक्षिप्त रूप समझना चाहिए । शेष दूसरे-तीसरे आदि पंचाशकों के नाम ये हैं २ दीक्षापंचाशक, ३ वन्दनापंचाशक, ४ पूजाप्रकरण, ५ प्रत्याख्यानपंचाशक, ६ स्तवनविधि, ७ जिनभवनकरणविधि, ८ प्रतिष्ठाविधि, हयात्राविधि, १० श्रमणोपासकप्रतिमाविधि, ११ साधुधर्मविधि, १२ सामाचारी, १३ पिण्ड विशुद्धि, १४. शीलांग, १५ अालोचनाविधि १६ प्रायश्चित्त, १७ स्थित्यादिकल्प, १८ भिक्षप्रतिमा और १६ तपोविधान । इसके ऊपर अभयदेव सूरि के द्वारा विक्रम सं. ११२४ में टीका लिखी गई है, पर वह हमें उपलब्ध नहीं हो सकी। मूल ग्रन्थ ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वे. संस्था रतलाम से प्रकाशित हा है। इसका उपयोग प्रब्रह्मवर्जन आदि शब्दों में हुआ है। ७६. षड्दर्शनसमुच्चय- इसमें ८७ श्लोक (अनुष्टुप् ) है। देवता और तत्व के भेद से मूल में हरिभद्र सूरि की दृष्टि में ये छह दर्शन रहे हैं--बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक और जैमिनीय । ग्रन्थकार को यहाँ इन्हीं छह दर्शनों का परिचय कराना अभीष्ट रहा है। तदनुसार उन्होंने प्रथमतः ११ श्लोकों में बौद्ध दर्शन का, फिर १२-३२ में नैयायिक दर्शन का ३३-४३ में सांख्य दर्शन का. ४४.५८ में जैन दर्शन का, ५६-६७ में वैशेषिक दर्शन का और ६८-७७ में जैमिनीय दर्शन का परिचय कराया है। वैशेषिक दर्शन का परिचय कराते हुए प्रारम्भ में यह कहा गया है कि देवता की अपेक्षा नैयायिक दर्शन से वैशेषिक दर्शन में कुछ भेद नहीं है-दोनों ही दर्शनों में महेश्वर को सष्टिकर्ता व संहारक स्वीकार किया गया है। तत्त्वव्यवस्था में जो उनमें भेद रहा है उसे यहाँ प्रगट कर दिया गया है। कितने ही दार्शनिक नैयायिक दर्शन से वैशेषिक दर्शन को भिन्न नहीं मानते-वे दोनों दर्शनों को एक ही दर्शन के अन्तर्गत मानते हैं। इस प्रकार वे पूर्वनिर्दिष्ट पाँच प्रास्तिक दर्शनों में एक नास्तिक दर्शन लोकायत (चार्वाक) को सम्मिलित कर छह संख्या की पूर्ति करते हैं (७८-७९) । तदनुसार यहाँ अन्त में (८०-८७) लोकायत दर्शन का भी परिचय करा दिया गया है। यह विशेष स्मरणीय है कि यहाँ किसी भी दर्शन की आलोचना नहीं की गई है, केवल उक्त दर्शनों में किसकी क्या मान्यताए रही है, इसका परिचय मात्र यहाँ कराया गया है। इसके ऊपर गुणरत्न सूरि (विक्रम सं. १४००-१४७५) के द्वारा विरचित तर्करहस्यदीपिका नाम की विस्तृत टीका है। इस टीका के साथ वह एशियाटिक सोसाइटी ५७, पार्क स्टीट से प्रकाशित हया है। मूल मात्र शास्त्रवार्तासमुच्चय प्रादि के साथ जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर द्वारा प्रकाशित किया गया है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है मूल-अजीव और पाश्रव आदि। टीका-अनुमान और प्राप्त आदि । ८०. शास्त्रवासिमुच्चय-यह एक पद्यबद्ध दार्शनिक ग्रन्थ है। इसमें ८ स्तव (प्रकरण) हैं। उनमें पद्य (अनुष्टुप् ) संख्या इस प्रकार है-११२+१+४४+१३७+३६+६३+६६+१५६७०१ । यहाँ लोकायत मत, नियतिवाद, सृष्टिकर्तृत्व, क्षणक्षयित्व, विज्ञानवाद, शून्यवाद, द्वैत, अद्वैत और मक्ति प्रादि अनेक विषयों का विचार किया गया है। सातवें स्तव के प्रारम्भ में कहा गया है कि पागम के अध्येता अन्य (जैन) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त जीवाजीवस्वरूप जगत् को अनादि कहते हैं। ऐसा कहते हए आगे उक्त उत्पादादियुक्त वस्तु की साधक जो दो कारिकायें दी गई हैं वे अप्तमीमांसा से ली गई हैं। घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पाद-स्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ।। -शास्त्रवा. ७,२-३; प्राप्तमी. ५६-६०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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