SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना यह मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग श्रधमंद्रव्य, मनार्य, अस्तेयमद्दाव्रत, आकाश, आप्त, श्रार्य और ऋतु श्रादि शब्दों में हुआ है । ६६. हरिवंशपुराण - इसके रचयिता श्राचार्य जिनसेन प्रथम हैं जो पुग्नाटसंघ के रहे हैं । गुरु उनके कीर्तिषेण थे । इसका रचनाकाल शक सं. ७०५ (विक्रम सं. ८४० ) है । यह ६६ पर्वों में विभक्त है । इसमें हरिवंश को विभूषित करने वाले भगवान् नेमिनाथ व नारायण श्रीकृष्ण श्रादि का जीवनवृत्त है । प्रारम्भ में यहाँ मंगलाचरण के पश्चात् प्राचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवनन्दी ( पूज्यपाद), वज्रसूरि, महासेन, रविषेण, वरांगचरित के कर्ता जटासिंहनन्दी, शान्त, विशेषवादी, प्रभाचन्द्र के गुरु कुमारसेन, वीरसेन गुरु और पाश्र्वाभ्युदय के कर्ता जिनसेन का स्मरण किया गया है । तत्पश्चात् तीन केवली और पांच श्रुतकेवली आदि के नामों का उल्लेख करते हुए श्रुत की अविच्छिन्न परम्परा निर्दिष्ट की गई है' । साठवें पर्व में श्रीकृष्ण के प्रश्न के अनुसार भगवान् नेमि जिनेन्द्र के मुख से तिरेसठ शलाकापुरुषों के चरित का भी निरूपण कराया गया है । अन्तिम छयासठवें सर्ग में ग्रन्थ के कर्ता प्राचार्य जिनसेन ने अपनी परम्परा को प्रगट करते हुए इन प्राचार्यों का नामोल्लेख किया है - १ विनयंधर, २ गुप्तऋषि, ३ गुप्तश्रुति, ४ शिवगुप्त, ५ अर्हबलि, ६ मन्दरार्य, ७ मित्रवीरवि, ८ बलदेव, मित्र, १० सिंहवल, ११ वीरवित्, १२ पद्मसेन, १३ व्याघ्रहस्तक, १४ नागहस्ती, १५ जितदण्ड, १६ नन्दिषेण, १७ प्रभुदीपसेन, १८ तपोधन घरसेन, १६ सुधर्मसेन, २० सिंहसेन, २१ सुनन्दिषेण (प्र.), २२ ईश्वरसेन, २३ सुनन्दिषेण (द्वि.) २४ अभयसेन, २५ सिद्धसेन, प्रभयसेन (द्वि.), २७ भीमसेन २८ जिनसेन, २६ शान्तिषेण, ३० जयसेन गुरु, ३१ उनके पुंनाट संघ के अग्रणी शिष्य श्रमितसेन - जिनके अग्रज कीर्तिषेण थे, और उनके प्रमुख शिष्य जिनसेन - प्रकृत ग्रन्थ के निर्माता । यह मूल मात्र मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई द्वारा दो भागों में तथा हिन्दी अनुवाद के साथ भारतीय ज्ञानपीठ काशी द्वारा भी प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग अचोर्याणुव्रत, श्रज, श्रजीवविचय, अतिथिसंविभाग, अनाकांक्षक्रिया, अन्न-पाननिरोध, अपध्यान, अपायविचय और उपायविश्वय श्रादि शब्दों ४६ ७०. महापुराण -- यह वीरसेन स्वामी के शिष्य श्राचार्य जिनसेन द्वारा विरचित है। पं. नाथूरामजी प्रेमी ने प्रा. जिनसेन के समय का अनुमान शक सं. ६७५-७६५ (विक्रम सं. ८१० - ९०० ) किया है । प्राचार्य जिनसेन बहुश्रुत विद्वान् थे । प्रस्तुत महापुराण भारतीय ज्ञानपीठ काशी द्वारा तीन भागों में प्रकाशित किया गया है। इनमें से प्रथम दो भागों में भगवान् श्रादिनाथ के चरित का वर्णन है । इसीलिए यह प्रादिपुराण भी कहलाता है। तीसरे भाग में श्रजितादि शेष २३ तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों और नारायण-प्रतिनारायण आदि के चरित का कथन किया गया है । इसे उत्तरपुराण कहा जाता है । श्राचार्य जिनसेन इस समस्त महापुराण को पूरा नहीं कर सके । श्रादिपुराण में ४७ पर्व हैं, उनमें जिनसेन स्वामी के द्वारा ४२ पर्व पूर्ण और ४३वें पर्व के केवल ३ श्लोक ही रचे जा सके, तत्पश्चात् वे स्वर्गस्थ हो गये । तब उनकी इस अधूरी कृति को उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने पूरा किया है। इस प्रकार गुणभद्राचार्य के द्वारा प्रादिपुराण के शेष पांच पर्व तथा उत्तरपुराण के २६ (४८-७६) पर्व रचे गये हैं । जिनसेन के द्वारा इसके प्रारम्भ में अपने पूर्ववर्ती निम्न श्राचार्यों का स्मरण किया गया है - १ सिद्धसेन, २ समन्तभद्र, ३ श्रीदत्त, ४ यशोभद्र, ५ चन्द्रोदय के कर्ता प्रभाचन्द्र कवि ६ श्राराधनाचतुष्टय के कर्ता शिवकोटि मुनि, ७ जटाचार्य, ८ काणभिक्षु, ६ देव (देवनन्दी), १० भट्टाकलंक, ११ श्रीपाल, १२ पात्रकेसरी, १३ वादिसिंह, १४ वीरसेन भट्टारक, १५ जयसेन गुरु और १६ कवि परमेश्वर । यह भारतीय १. हरिवंशपु. ६६, ५२-५३. ३. सर्ग १, श्लोक ५८- ६५ ( प्रागे गई है) । ५. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ५११ - १२. Jain Education International २. सर्ग १, श्लोक २६-४०. ६६ सर्ग के २३-२४ श्लोकों में पुनः उसकी संक्षेप में सूचना की ४. श्लोक १३५ - ५७२. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy