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________________ ४८ जेन - लक्षणावली मूल -- श्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष, मनुमान, अभिरूठ और उपयोग आदि । न्यायकु . - अनुयोग आदि । तात्पर्यवृत्ति - श्रर्थक्रिया आदि । ६४. न्यायविनिश्चय- इसके रचयिता उक्त अकलंक देव हैं। इसमें तीन प्रकरण हैं - प्रत्यक्ष प्रस्ताव, अनुमान प्रस्ताव और प्रवचन प्रस्ताव । नामों के अनुसार इनमें क्रम से प्रत्यक्ष, अनुमान श्रौर प्रवचन (आगम) प्रमाणों का ऊहापोहपूर्वक विचार किया गया है । समस्त कारिकाओं की संख्या ४८० है । यह मूलरूप में सिंघी जैन ग्रन्थमाला कलकत्ता द्वारा प्रकाशित 'अकलंकग्रन्थत्रय' में मुद्रित है तथा प्रा. वादिराज ( विक्रम की ११वीं शताब्दी ई. १०२५) द्वारा विरचित विवरण के साथ वह भारतीय ज्ञानपीठ काशी द्वारा दो भागों में प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग अनुमान, अन्वय और उपमान श्रादि शब्दों में हुआ है । ६५. प्रमारणसंग्रह - यह कृति भी उक्त कलंक देव की है । इसमें प्रत्यक्ष, स्मृति श्रादि भेदों से युक्त परोक्ष, अनुमान व उसके अवयव, हेतु, हेत्वाभास, वाद, सर्वज्ञता और सप्तभंगी आदि विषयों की प्ररूपणा की गई है । सब कारिकायें ८७३ हैं । इस पर एक स्वोपज्ञ विवृति भी है जो कारिकाओं के अर्थ की पूरक है । यह अकलंक ग्रन्थत्रय में सिंघी जैन ग्रन्थमाला कलकत्ता द्वारा प्रकाशित हो चुका है । इसका उपयोग अनुपलम्भ आदि शब्दों में हुआ है । ६६. सिद्धिविनिश्चय — इसके भी रचयिता उक्त श्राचार्य कलंक देव हैं । इसमें निम्न लिखित १२ प्रस्ताव हैं - प्रत्यक्षसिद्धि, सविकल्पसिद्धि, प्रमाणान्तरसिद्धि, जीवसिद्धि, जल्पसिद्धि, हेतुलक्षणसिद्धि, शास्त्रार्थंसिद्धि, सर्वज्ञसिद्धि, शब्दसिद्धि, अर्थनयसिद्धि, शब्दनयसिद्धि और निक्षेपसिद्धि | यह स्वोपज्ञ विवृति और प्राचार्य अनन्तवीर्यं द्वारा विरचित टीका से सहित है । अनन्तवीर्य नाम के अनेक ग्रन्थकार हुए हैं । उनमें से प्रकृत टीका के रचयिता अनन्तवीर्य का समय पं. महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य के द्वारा ई. ९५० - ६६० (वि. सं. २००७ - १०४७) सिद्ध किया गया है । इस टीका के साथ वह भारतीय ज्ञानपीठ काशी से दो भागों में प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग निम्न शब्दों में हुआ है मूल - अन्ययोगव्यवच्छेद और उपमान श्रादि । टीका - किचित्कर, अनैकान्तिक, अन्यथानुपपत्ति, अन्यथानुपपन्नत्व, अन्ययोगव्यवच्छेद, प्रयोग- व्यवच्छेद, प्रसिद्ध हेत्वाभास और उपमान आदि । ६७. पद्मपुराण - इसे पद्मचरित भी कहा जाता है । यह आचार्य रविषेण के द्वारा महावीर निर्वाण के बाद बारह सौ तीन वर्ष और छह मास (१२०३३) के बीतने पर (वि. सं. ७३३ के लगभग ) रचा गया है । इसमें प्रमुखता से रामचन्द्र के जीवनवृत्त का निरूपण किया गया है रामचन्द्र की कथा इतनी रोचक रही है कि उसे थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ अनेक सम्प्रदायों ने अपनाया है । प्रकृत ग्रन्थ विविध घटनाओं व विषयविवेचन के अनुसार १२३ पर्वों में विभक्त है । यह मूल मात्र मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई से ३ भागों में प्रकाशित हुआ है तथा हिन्दी अनुवाद के साथ भी काशी से ३ भागों में प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग अक्षौहिणी, श्रज, अधोलोक, प्राक्षेपिणी कथा श्रादि शब्दों में हुआ है । वह भा. ज्ञानपीठ ग्रहिसाणुव्रत और ६८. वरांगचरित - इसके रचयिता श्राचार्य जटासिंहनन्दी हैं । इनका समय विक्रम की वीं शताब्दी है 1 प्रस्तुत ग्रन्थ ३१ सर्गों में विभक्त है । यह अनुष्टुप् व उपजाति आदि अनेक छन्दों में रचा गया है । इसमें उत्तमपुर के शासक भोजवंशी राजा धर्मसेन के पुत्र वरांग की कथा दी गई है । यथाप्रसंग वहां शुभाशुभ कर्म और उनके फल का विवेचन करते हुए मतान्तरों की १. सिद्धिविनिश्चय १ प्रस्तावना पृ. ८७. समीक्षा भी की गई है । २. पद्मपु. १२३-१५२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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