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________________ ३४ जैन-लक्षणावली ४२ पिण्डनियुक्ति-यह मूल सूत्रों में चौथा माना जाता है । दशवकालिक का पांचवां अध्ययन पिण्डैषणा है। उसके ऊपर प्राचार्य भद्रबाह के द्वारा जो नियुक्ति रची गई वह विस्तृत होने के कारण एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में मान ली गई। साधु का आहार किस प्रकार से शुद्ध होना चाहिए, इसका विचार करते हुए यहां आहारविषयक १६ उद्गम १६ उत्पादन, १० ग्रहणषणा, १ संयोजन, १ प्रमाण, १ धूम और १ अंगार; इन ४६ दोषोंकी यहां चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त जिन छह कारणों से भोजन को ग्रहण करना चाहिए तथा जिन छह कारणों से उसका परित्याग करना चाहिए, उनका भी निर्देश किया गया है। इन दोषों में उद्गम दोषों का सम्बन्ध गृहस्थ से, उत्पादन दोषों का सम्बन्ध साधु से, तथा ग्रासैषणा दोषों में से शंकित और अपरिणत इन दो का सम्बन्ध साधु से और शेष पाठ का सम्बन्ध गृहस्थ से है। प्रारम्भके निक्षेप प्रकरण में द्रव्यपिण्ड की भी कुछ विस्तृत प्ररूपणा की गई हैं। नियुक्ति गाथासंख्या ६७१ है। इसके ऊपर प्राचार्य मलयगिरि द्वारा टीका भी रची गई है। इस टीका के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ सेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुअा है मूल-अङ्गारदोष, अधःकर्म, अनुमोदना, प्राधाकर्म और आजीव आदि । टीका-अङ्गारदोष, अधःकर्म और प्राधाकर्म आदि । ४३ अोधनियुक्ति-यह आवश्यक नियुक्ति के अंगभूत है । इसके रचयिता प्राचार्य भद्रबाहु द्वितीय हैं। इसमें साधू के प्राचार का विवेचन करते हुए उसके आहार बिहार, आसन, वसति और पात्र आदि की विधि का निरूपण किया गया है। इसमें नियुक्ति गाथायें ८१२ और भाष्यगाथायें ३२२ हैं । अन्तिम नि. गा. प्रक्षिप्त और अस्पष्ट सी प्रतीत होती है। इस पर द्रोणाचार्य (विक्रम की ११-१२वीं शताब्दी) द्वारा विरचित टीका भी है। इस टीका के साथ उसका एक संस्करण विजयदान सूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला सूरत से प्रकाशित हना है । इसका उपयोग आराधक और पाभोग प्रादि शब्दों में हुया है। ४४ कल्पसूत्र-छह छेद सूत्रों में प्रथम छेदसूत्र दशाश्रुतस्कन्ध माना जाता है । इसका दूसरा नाम आचारदशा भी है। इसमें ये १० अध्ययन हैं-प्रसमाधिस्थान, शबल, प्रासादनायें, पाठ प्रकार की गणिसम्पदा, दस चित्तसमाधिस्थान, ग्यारह उपासकप्रतिमायें बारह भिक्षुप्रतिमाएँ, पर्युषणकल्प, तीस मोहनीयस्थान और प्रायतिस्थान । इनमें प्राठवाँ जो पयुषणकल्प है वही कल्पसूत्र के रूप में एक पृथक ग्रन्थ प्रसिद्ध हुआ है। ग्रन्थ की भूमिका के रूप में यहाँ प्रथमत: टीकाकार ने यह निर्देश किया है कि भगवान महावीर चंकि वर्तमान तीर्थ के स्वामी व निकटवर्ती उपकारी हैं, इसीलिए भद्रबाहु स्वामी पहिले महावीर के चरित का वर्णन करते हैं, इसमें भी प्रथमत: साधुओं का दस प्रकार का कल्प कहा जाता है। इस दस प्रकार के कल्प की सूचक जो गाथा यहां दी गई है वह नबती अाराधना', पंचवस्तुक ग्रन्थ (१५००) और पंचा. शक (८००) में उपलब्ध होती है। यहाँ सर्वप्रथम 'णमो अरिहंताणं' अादि पंचनमस्कार मंत्र के द्वारा पांच परमेष्ठियों को नमस्कार १. ये दोष प्राय: इन्हीं नामों और स्वरूप के साथ यहां और मूलाचार के पिण्डशुद्धि नामक छठे अधिकार में समान रूप से उपलब्ध होते हैं। कुछ गाथायें भी समान रूप से दोनों में पायी जाती हैं। (देखिये अनेकान्त वर्ष २१, किरण ४ में पिण्डशुद्धि के अन्तर्गत उद्दिष्ट आहार पर विचार' शीर्षक लेख) २. नि. गा. ४०३ और ५१४.१५. ३. आचेल्लुक्कुद्दे सियसेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे। जेट्रपडिक्कमणे वि य मासं पज्जोसवणकप्पो । भ. पा. ४२१. (पंचवस्तुक व पंचाशक में 'जेट्रपडिकमणे विय' के स्थान में 'वयजिपडिक्कमणे' पाठ हैं।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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