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________________ प्रस्तावना ३५ करते हुए इस पंच नमस्कार मंत्र को सब पापों का नाशक और सब मंगलों में प्रथम मंगल कहा गया है। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के जीवनवृत्त का वर्णन करते हुए उनके विषय में इन पाँच हस्तोतरामों-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रों का निर्देश किया गया है-१ भगवान् महावीर प्रथम हस्तोत्तराहस्त नक्षत्र के पूर्ववर्ती उत्तराफाल्गुनी-नक्षत्र में पुष्पोत्तर विमान से च्युत होकर अवतीर्ण हुएब्राह्मण कुण्डग्राम नगरवासी कोडालसगोत्री ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा की कुक्षि में प्रविष्ट हुए। २ इसी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में इन्द्र की आज्ञा से हरिणेगमेसि देव के द्वारा देवानन्दा के गर्भ से निकाल कर भगवान् को क्षत्रिय कुण्डग्राम नगरवासी सिद्धार्थ क्षत्रिय की पत्नी क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में परिबर्तित किया गया। ३ इसी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् का जन्म हुआ। ४ उसी उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् ने गृहवास से निकलकर मुण्डित होते हुए-केशलोचपूर्षक-मुनिधर्म की दीक्षा ग्रहण की। ५ उक्त उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् ने परिपूर्ण केवल ज्ञान व केवलदर्शन को प्राप्त किया । इस प्रकार उक्त पाँच हस्तोत्तरा भगवान् के इन पाँच कल्याणकों से सम्बद्ध हैं। मुक्ति की प्राप्ति भगवान् को स्वाति नक्षत्र में हई। उक्त गर्भादि कल्याणकों के सा” यहाँ आगे भगवान् महावीर के जीवनवृत्त का विस्तार से वर्णन किया गया है । गर्भपरिवर्तन के कारण का निर्देश करते हए यहाँ यह कहा गया है कि इन्द्र को जब यह ज्ञात हुआ कि श्रमण महावीर देवानन्दा के गर्भ में अवतीर्ण हुए हैं तब उसे यह विचार हुआ कि अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव ये शूद्र कुल में, नीचकुल में, तुच्छकुल में, दरिद्र कुल में, कृपणकुल में, भिक्षुकुल में और ब्राह्मणकुल में; इन सात कुलों में से किसी कुल में न कभी आए हैं, न आते हैं और न कभी प्रावेंगे । वे तो उग्रकुल, भोगकूल, राजन्यकुल, इक्ष्वाकुकूल, क्षत्रियकुल और हरिव शकुल; इनमें तथा इसी प्रकार के अन्य भी विशुद्ध जाति, कुल व वंशों में आए हैं, आते हैं और पावेंगे। यह एक आश्चर्यभूत भाव (भवितव्य) हैं जो अनन्त उत्सर्पिणी-अवसपिणियों के बीतने पर उक्त अरिहंतादि अक्षीण, अवेदित और अनिर्जीर्ण नाम-गोत्रकर्म के उदय से पूर्वोक्त सात कृलों में गर्भरूप में पाए हैं, आते हैं और आवेंगे, परन्तु वे योनिनिष्क्रमणरूप जन्म से उन कुलों से कभी न निकले हैं, न निकलते हैं, और न निकलेंगे। बस इसी विचार से इन्द्र ने उस हरिणेगमेसि देव के द्वारा उक्त गर्भ को परिवर्तित कराया। इस प्रकार प्रथम पांच वाचनात्रों में श्रमण भगवान् महावीर के जीवनवृत्त की प्ररूपणा की गई है। इस प्रसंग में यहां भगवान् के मुक्त हो जाने पर कितने काल के पश्चात् वाचना हुई, इसका निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि भगवान् के मुक्त हो जाने के पश्चात् नौ सौ अस्सोवें (९८०) वर्ष में वाचना हुई। प्रागे वाचनान्तर का उल्लेख करते हुए यह भी कहा गया है कि तदनुसार वह ६६३वें १. एसो पंचणमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सवेसिं पढम हवइ मंगलं ॥ (यह पद्य मूलाचार में उपलब्ध होता है-७,१३) २. ऐसे पाश्चर्य दस निर्दिष्ट किए गए हैं उवसग्ग गम्भहरणं इत्थीतित्थं प्रभाविया परिसा। कण्हस्स अवरकका अवयरणं चंद-सूराणं ।। हरिवंसकुलुप्पत्ती चमरुप्पामो य अट्ठसयसिद्धा। अस्संजयाण पूरा दसवि अणतेण कालेण ॥ टाका पृ. ३३. (ये दोनों गाथायें पंचवस्तुक ६२६-२७ में उपलब्ध होती हैं ।) ३. सूत्र १५-३०, प. २६-४८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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