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________________ प्रस्तावना ३३ महीं बोल सकते । यही सोचकर वह अध्यापक के पास गया और बोला--"तत्त्व क्या है ?" उत्तर में अध्यापक ते कहा-"तत्त्व वेद है" । तब उसने तलवार को खेंचते हुए कहा कि यदि तुम तत्त्व को नहीं कहोगे तो शिर काट दूगा । इसपर प्रध्यापक बोला कि मेरा समय पूर्ण हो गया, वेदार्थ में यह कहा गया है। फिर भी शिरच्छेद के भय से कहना ही चाहिए, सो जो यहाँ तत्त्व है उसे कहता हूँ। इस यूप (यज्ञकाष्ठ) के नीचे सर्व रत्नमयी अरिहंत की प्रतिमा है, बह शाश्वतिक है। इस प्रकार अरिहंत का धर्म तत्त्व है। तब वह उसके पैरों में पड़ गया। अन्त में उसने यज्ञस्थल की सामग्री को उसे संभला दिया और वह उन साधुनों को खोजता हुअा आचार्य (प्रभव) के पास पहुँचा। वहाँ पहुँच कर उसने आचार्य और उन दोनों साधुनों की वन्दना की । फिर उसने धर्म के कहने के लिए प्रार्थना की। तब प्राचार्य ने उपयोग लगा कर जाना कि यह वही (शय्यम्भव) है। यह जानकर प्राचार्य ने साधु के धर्म का उपदेश दिया । उसे सुनकर प्रबोध को प्राप्त होते हुए उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। वह चौदह पूर्वो का ज्ञाता हो गया। जब उसने दीक्षा ग्रहण की थी तब उसकी पत्नी गर्भवती थी। लोगों ने उससे पूछ। कि तेरे पेट में कृछ है क्या ? उसने उत्तर में 'मनाक-कुछ है तो' कहा । अन्त में यथासमय पुत्र के उत्पन्न होने पर उसके पूर्वोक्त उत्तर को लक्ष्य में रखकर उसका नाम 'मनक' प्रसिद्ध हमा। पाठ वर्ष का हो जाने पर उसने माँ से पिता के विषय में पूछा । उसके उत्तर से पिता को दीक्षित हुआ जानकर वह उनके पास चम्पा नगरी में जा पहुंचा और पारस्परिक वार्तालाप के पश्चात वह भी दीक्षित हो गया। प्राचार्य ने विशिष्ट ज्ञान से यह जानकर कि इसकी प्रायू छह मास की शेष रही है, उन्होंने उसके निमित्त प्रकृत ग्रन्थ की १० अध्ययनों में रचना की। साधारणतः स्वाध्याय व ग्रन्थ रचना दिन व रात्रि के प्रथम और अन्तिम इन चार पहरों में ही की जाती है, पर शीघ्रता के कारण इसकी रचना काल की अपेक्षा रखकर नहीं की जा सकी। अतः विकाल में रचे और पढ़े जाने के कारण उसे दशवकालिक कहा गया है । अथवा इसका दसवां अध्ययन चूकि वेताल छन्द में रचा गया है, इसलिए भी इसका नाम दशवकालिक सम्भव है। जैसा कि कथानक में निर्देश किया गया है, इसमें वे दस अध्ययन ये हैं-१ द्रुमपुष्पिका, २ श्रामण्यपूर्विका, ३ क्षुल्लिकाचारकथा, ४ षड्जीवनिकाय, ५ पिण्डषणा, ६ महाचारकथा, ७ वाक्यशुद्धि, ८ प्राचारप्रणिधि, ६ विनयसमाधि और १० सभिक्षु । अन्त में रतिवाक्यचूलिका और विविक्तचर्याचूलिका ये दो चूलिकायें हैं। नियुक्तिकार के अनुसार इनमें धर्मप्रज्ञप्ति-षड्जीवनिकाय नामक चौथा अध्ययन-प्रात्मप्रबाद पूर्व से, पांचवां (पिण्डैषणा) कर्मप्रवाद पूर्व से, वाक्यशुद्धि नामक सातवां अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से और शेष अध्ययन नौवें (प्रत्याख्यान) पूर्व के अन्तर्गत तृतीय वस्तु (अधिकार) से रचे गए हैं। अन्तिम दो चूलिकायें शय्यम्भव द्वारा रची गई नहीं मानी जातीं। इसका एक संस्करण नियुक्ति और . हरिभद्र विरचित टीका के साथ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार फण्ड वम्बई से प्रकाशित हुआ है। चणि श्री ऋषभदेव जी केशरीमल जी श्वे. संस्था रतलाम द्वारा प्रकाशित की गई है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है मूल-प्रत्यागी आदि। नियुक्ति-प्रकथा, अर्थकथा, पाराधनी भाषा और प्रोध । चूर्णि-अकिंचनता, अमनोज्ञ-सम्प्रयोग-सम्प्रयुक्त-मार्तध्यान, अर्थकथा, प्राज्ञापनी और प्राज्ञा. विचय आदि। ह. वृ-अध्यवपूरक, अनुलोम, अभ्याहृत, अर्थकथा, पाराधनी भाषा, उपबृहण, प्रोघ और औपदेशिक आदि । १. तत्थ कालियं जं दिण-रादीणं पढमे (चरिमे) पोरिसीसु पढिज्जइ । नन्दी च.पु. ४७. २. नि. गा.१६-१७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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