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________________ प्रस्तावना २७ विशालकाय है। ग्रन्थप्रमाण से यह १५००० श्लोक प्रमाण है । इसमें ४१ शतक और इन शतकों में अवान्तर अधिकार रूप और भी अनेक शतक हैं। यहाँ सर्वप्रथम मंगलरूप में पंचनमस्कारमंत्र-'णमो मरिहंताणं' आदि प्राप्त होता है। तत्पश्चात् ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया है। तदनन्तर राजगृह नगर, राजा श्रेणिक और उसकी पत्नी चिल्लना का निर्देश करते हुए भगवान् महावीर और उनके प्रमुख गणधर इन्द्रभूति (गौतम) के गुणों का कीर्तन किया गया है । इसमें नरक, स्वर्ग, इन्द्र, सूर्य, गप्ति-प्रागति, पृथिवीकायादि, केवली का जानना-देखना, कृतयुग्मादि संख्याविशेष और लेश्या प्रादि अनेक विषयों का निरूपण प्रश्नोत्तर की पद्धति से किया गया है। प्रमुख प्रश्नकर्ता गौतम गणधर रहे हैं। इनके अतिरिक्त दूसरों के द्वारा भी यथावसर प्रश्न पूछे गए हैं। उनमें पाश्र्वापत्य-पार्श्वनाथ परम्परा के शिष्य-भी हैं। उक्त विषयों के सिवाय यहाँ कितने ही राजा, सेठ और श्रावक आदि का भी वर्णन किया गया है। इसके कई संस्करण निकल चुके हैं। इसका उपयोग अङ्गारदोष, अङ्गुल, अबुद्धजागरिका, पालापनबन्ध, उच्चयबन्ध, उच्छलक्ष्णश्लक्ष्णिका और उच्छवास नामकर्म आदि शब्दों में हमा है।। ३१. प्रश्नव्याकरणांग-इसकी कोई भी प्रति हमें उपलब्ध नहीं हो सकी। समवायांग' और नन्दीसूत्र के अनुसार प्रस्तुत अंग में मंत्रविद्या प्रादि से सम्बद्ध १०८ प्रश्न १०८ अप्रश्न और १०८ प्रश्नाप्रश्नों का निर्देश किया गया है। इसमें ४५ अध्ययन हैं। वर्तमान प्रश्नव्याकरण में यह सब नहीं हैं । श्री पं. बेचरदासजी दोशी का अभिमत है कि बर्तमान प्रश्नव्याकरण किसी गीतार्थ पुरुष के द्वारा रचा गया है। इसमें हिंसादिरूप पांच प्रास्रवों और अहिंसादिरूप पाँच संवरों का विस्तार से कथन किया गया हैं । इसकी टीका का उपयोग प्रारम्भ और प्रारम्भ-समारम्भ आदि शब्दों में हुअा है। ३२. विपाकसत्रांग-यह ग्यारहवाँ अंग है, जो दुःखविपाक और सुखविपाक इन दो श्रतस्कन्धों में विभक्त है । दुखविपाक में ये दस अध्ययन हैं-१ मृगापुत्र, २ कामध्वजा-उज्झितक, ३ अभग्नसेन, ४ शकट, ५ वृहस्पतिदत्त, ६ नन्दिमित्र, ७ उम्बरदत्त, ८ शौर्यदत्त, ६ देवदत्त और १० अंज । इसी प्रकार दूसरे श्रुतस्कन्ध में भी दस ही अध्ययन हैं-१ सुबाहुकुमार, २ भद्रनन्दीकुमार, ३ सुजातकुमार, ४ सुवासवकुमार, ५ जिनदास, ६ धनपति युवराजपुत्र, ७ महाबलकुमार, ८ भद्रनन्दीकुमार, ६ महाचन्द्र कुमार और १० वरदत्तकुमार। ये २० कथायें यहाँ दी गई हैं। इनमें प्रारम्भ के १० पात्र दुःख के परिणाम के भोक्ता तया अन्तिम १० पात्र सुख के परिणाम के भोक्ता हुए हैं। अभयदेव सूरि (विक्रम की १२वीं शती) विरचित टीकायुक्त जो संस्करण इसका हमारे पास है वह गुजरात ग्रन्थरत्न कार्यालय अहमदाबाद से प्रकाशित है। इसकी टीका का उपयोग उपप्रदान व कनङ्गर आदि शब्दों में हुआ है। ३३. प्रौपपातिक सत्र-यह १२ उपांगों में प्रथम उपांग माना जाता है। इसके ऊपर अभयदेव सूरि विरचित विवरण है। इसके प्रारम्भ में उन्होंने उपपात का अर्थ देव-नारकजन्म व सिद्धिगमन करते हुए उसके आश्रय से प्रौपपातिक अध्ययन बतलाया है। साथ ही उन्होंने यह भी निर्देश किया है कि आचारांग के प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा के अन्तर्गत प्रथम उद्देशक में जो 'एवमेगेसिं' आदि प्रथम सूत्र है उसमें आत्मा को प्रोपपातिकत्व निर्दिष्ट किया गया है। उसका चूंकि इसमें विस्तार है, अतः इसे प्राचारांग का उपांग समझना चाहिए। इसमें चन्पा नगरी, पूर्णभद्र चैत्य, वनखण्ड, अशोक वृक्ष और पृथिवीकायिक का उल्लेख करते हुए वहाँ (चम्पानगरी में) कूणिक राजा का निवास बतलाया है और उसका एवं धारिणी रानी का वर्णन किया गया है। यह कूणिक भंभसार (बिम्बसार) का पुत्र था। प्रागे महावीर भगवान् का गुणानुवाद करते हुए उक्त पूर्णभद्र चैत्यगृह में उनके आगमन का निर्देश किया गया है । तत्पश्चात् अनगार व बाह्य एवं अभ्यन्तर तप ग्रादि अनेक प्रासंगिक विषयों की चर्चा की गई है। भगवान् महावीर के आने का समाचार १. समवायांग सूत्र १४५, पृ० ११४. २. नंदीसुत्त ६४, पृ. ६६, ३. देखिये जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा. १, पृ. २४८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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