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________________ २८ जैन - लक्षणावली ज्ञात कर रानियों के साथ राजा कूणिक ने जाकर यथाविधि उनकी वन्दना आदि की और तत्पश्चात् धर्मश्रवण किया । इस धर्मदेशना में भगवान् महावीर के द्वारा लोक प्रलोक, जीव-ग्रजीव, बन्ध-मोक्ष, पुण्य-पाप, श्रस्रव संवर, वेदना - निर्जरा, अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नारक, तिर्यच, तियंचनी, माता-पिता एवं ऋषि श्रादि कितने ही विषयों के अस्तित्व का निरूपण किया गया था। यह धर्मदेशना भार्य-अनार्यों की अपनी-अपनी भाषा में परिणत होने वाली अर्धमागधी भाषा में की गई थी । यह क्रम ३७वें सूत्र तक चलता रहा है । तत्पश्चात् श्रद्धालु गौतम को कुछ विषयों में सन्देह उत्पन्न हुए । तब उन्होंने वीर प्रभु से कर्मों के आस्रव व बन्धादि से सम्बन्धित कुछ प्रश्न किए, जिनका भगवान् ने समाधान किया । इसी प्रसंग में विविध प्रकार के जीव किस प्रकार से मरकर कहाँ उत्पन्न होते हैं, इत्यादि का विस्तार से विवेचन किया गया है। इसमें ४३ सूत्र हैं व अन्त में सिद्धों के प्रकरण से सम्बन्धित २२ गाथाये हैं । ग्रन्थप्रमाण १६०० है । उक्त अभयदेव सूरिविरचित वृत्ति के साथ यह आगमोदय समिति द्वारा निर्णयसागर मुद्रणालय बम्बई से प्रकाशित कराया गया है । इसकी टीका उपयोग प्रर्हन् और श्रमरणान्त दोष आदि शब्दों में किया गया है । ३४. राजप्रश्नीय - यह बारह उपांगों में दूसरा । इस पर प्राचार्य मलयगिरि (विक्रम की १२-१३वीं शताब्दी) विरचित टीका है । सुप्रसिद्ध टीकाकार प्राचार्य मलयगिरि प्रा. हेमचन्द्र के समकालीन रहे हैं । उनके द्वारा राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम और ग्रावश्यकसूत्र आदि अनेक आगम ग्रन्थों पर जो टीकायें रची गई हैं वे अतिशय महत्त्वपूर्ण हैं । ये टीकायें ग्रन्थ के रहस्य को भलीभांति स्पष्ट करने वाली हैं। कहा जाता है कि प्रा. मलयगिरि को उनकी इच्छानुसार विमलेश्वर देव से इस प्रकार की उत्तम टीकाओं के लिखने का वर प्राप्त हुआ था । प्रस्तुत टीका के प्रारम्भ में ग्रन्थ के नाम यादि के विषय में स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि प्रदेशी नामक राजा नै केशिकुमार श्रमण - भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य - से जीवविषयक जिन प्रश्नों को किया था और केशिकुमार श्रमण ने उनका जो समाधान किया था, उससे समाहितचित्त होकर वह बोधि को प्राप्त हुआ । पश्चात् वह शुभ परिणामों के साथ मर कर सौधर्म स्वर्ग में विमान का अधिपति हुआ । वहाँ वह अवधिज्ञान के बल से भगवान् वर्धमान स्वामी को देखकर भक्ति से नम्र होता हुआ उनके समीप श्राया । उसमे वहाँ बत्तीस प्रकार का अभिनय किया। नृत्य के पश्चात् श्रायु के समाप्त होने पर वहां से च्युत होकर वह मुक्ति को प्राप्त करेगा । यह सब चर्चा प्रस्तुत उपांग में है । इस सबका मूल कारण चूंकि प्रदेशी राजा के उक्त प्रश्न रहे हैं, अतएव इसका नाम 'राजप्रश्नीय' प्रसिद्ध हुआ है । इसमें सब सूत्र ४५ हैं । जिस प्रकार औपपातिक सूत्र में क्रम से चम्पा नगरी आदि का वर्णन किया गया है उसी क्रम से यहां प्रारम्भ में श्रामलकल्पा नगरी आदि का वर्णन किया गया है । चम्पा नगरी का राजा जहाँ कूणिक था वहाँ इस नगरी का राजा से (श्वेत) नाम का था । कूणिक की रानी का नाम जैसे धारिणी था, इस राजा की रानी का नाम भी धारिणी था । उक्त क्रम से वर्णन करते हुए आगे पूर्वनिर्दिष्ट सौधर्म कल्पवासी सूर्याभ देव कौ विभूति - विशेषतः विमानरचना - का वर्णन किया गया है। आगे यथावसर ३२ प्रकार की नाट्यविधि का उल्लेख किया गया है (सू. २४, पृ. १११-१३) । यह वर्णन २५वें सूत्र में समाप्त हुग्रा | तत्पश्चात् सूर्याभ देव के पूर्वभव १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग ३, पृ. ४१५-१६. २. प्रा. मलयगिरि ने टीका में इसकी सूचना भी इस प्रकार की है - 'जाव समोसरणं समत्तं' इति यावच्छन्दकरणात् राजवर्णको देवीवर्णकः समवसरणं चौपपातिकानुसारेण तावद् वक्तव्यं यावत् समवसरणं समाप्तम् । सू. ४, पृ. २०. अशोक पादप और शिलापट्ट के वर्णन की सूचना ग्रन्थकार के द्वारा स्वयं इस प्रकार की गई है - असोयवरपायवपुढविसिलावट्टयवत्तव्वया ग्रोव वाइयगमेणं नेया । सूत्र ३, पृ. ७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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