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________________ २६ जैन - लक्षणावली -जीव व प्रजीव, त्रस व अपने प्रतिपक्ष से सहित है । इसको स्पष्ट करते हुए आगे यह कहा गया स्थावर, सयोनिक व अयोनिक, सहायुष व अपायुष इत्यादि ( सूत्र ५७) । इसी द्वितीय स्थानक के सूत्र १०२ में कहा गया है कि श्रमण भगवान् महावीर ने निर्ग्रन्थों के लिए इन दो मरणों का न कभी वर्णन किया है और न उन्हें प्रशस्त वतलाया है । वे दो मरण ये हैंवलन्मरण' और वशार्तमरण, निदानमरण और तद्भवमरण, गिरिपतन और तरूपतन, जलप्रवेश और ज्वलनप्रवेश तथा विषभक्षण और शस्त्रपाटन । श्रागे इसी सूत्र में कहा गया है कि भगवान् महावीर ने इन दो मरणों की सदा अनुमति तो नहीं दी, पर कारणवश उनका निषेध भी नहीं किया है । वे मरण हैं वहाणस ( वैहायस) और गृध्रपृष्ठ । भगवान् ने इन दो मरणों का निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए वर्णन किया है व अनुज्ञा दी है - पादोपगमन - स्व-परकृत प्रतीकार से रहित — और भक्तप्रत्याख्यान । ये दोनों ही निर्धारिम और अनिहरिम के भेद से दो-दो प्रकार के हैं । विषयविवेचन पद्धति के ज्ञापनार्थ यहाँ उपर्युक्त कुछ उदाहरण दिए गए हैं। वर्णन का यही क्रम प्रागे तीन चार आदि दस स्थानक तक समझना चाहिए । प्रस्तुत अंग की समस्त सूत्रसंख्या ७८३ है । इसके ऊपर प्रभयदेव सूरि के द्वारा टीका रची गई है। टीका का रचनाकाल लगभग विक्रम संवत् ११२० है | इस टीका के साथ इसका एक संस्करण, जो हमें प्राप्त है, शेठ माणेकलाल चुन्नीलाल अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है। इनका उपयोग इन शब्दों में हुआ है:मूल - कर्मभूमि आदि । टीका - अधर्मद्रव्य, प्रारम्भकथा, उपपात, ऋजुसूत्र और एवम्भूत नय आदि । २६. समवायांग - बारह अंगों में इसका स्थान चौथा है । यह भी अभयदेव सूरि विरचित वृत्ति से महित है । इसकी विषयविवेचन पद्धति पूर्वोक्त स्थानांग के ही समान है - जिस प्रकार स्थानांग में क्रम से एक दो प्रादि संख्या वाले पदार्थों का प्रतिपादन किया गया है उसी प्रकार इस समवायांग में भी एक दो तीन आदि संख्या वाले पदार्थों का विवेचन किया गया है । विशेष इतना है कि स्थागांग में एक दो तीन श्रादि के क्रम से दस संख्या तक के पदार्थों का ही वर्णन दस स्थानक या प्रकरण हैं । परन्तु समवायांग में प्रथमतः एक दो प्रादि (१००) संख्या तक के पदार्थों का, उसके श्रागे पाँच सौ (५०० ) तक पचास पचास अधिक (१५०, २००, २५० श्रादि) संख्या वाले तथा इसके आगे ११०० तक १००-१०० अधिक संख्या वाले पदार्थों का विवरण है । तत्पश्चात् दो हजार, तीन हजार श्रादि संख्यायुक्त पदार्थों का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार यह क्रम सागरोपम कोड़ाकोड़ी तक चलता रहा है । किया गया । इसीलिए उसमें क्रमिक संख्या के अनुसार सो तत्पश्चात् सूत्र १३६ में गणिपिटक के रूप में श्राचारादि वारह अंगों के विषयादि का परिचय कराया गया है । इसके पश्चात् नारकियों आदि के श्रावास, आयु और शरीरोत्सेध आदि का निरूपण करते हुए कुलकर, तीर्थंकर और उनके पूर्वभव आदि का भी उल्लेख किया गया है । अन्त में नारायण, बलदेव एवं भविष्य में होने वाले तीर्थकरादि का निर्देश करते हुए ग्रन्थ समाप्त हुआ है । इसमें सब सूत्र १५६ हैं । बीच में कुछ गाथासूत्रों का भी उपयोग हुआ है । उक्त टीका के साथ यह मफतलाल झवेरचन्द अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसकी टीका का उपयोग अकर्मभूमिक, प्रतिस्निग्धमधुरत्व, अनुन्नादित्व, धर्मद्रव्य, अपरममवेधित्व, अभिजातत्व, अवधिमरण, असंदिग्धत्व और उपनीत रागत्व आदि शब्दों में हुआ है । ३० व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती ) – यह अंगों में पांचवा श्रंग है, जो प्रायः अन्य सब अंगों में १. परीषहादिसे उद्विग्न होकर संयम से च्युत होते हुए जो मरण होता है वह बलन्मरण कहलाता है । २. वृक्ष की शाखा प्रादि में बन्धन ( फांसी) से जाकाश में मरण होता है उसे वेहाणस मरण कहा जाता है । गिद्धों से पीठ पेट श्रादि नुचवा कर जो मरण स्वीकार किया जाता है वह गृध्रपृष्ठ मरण कहलाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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