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________________ प्रस्तावना २५ आचारांग पर प्रा. भद्रबाहु द्वितीय (विक्रम की छठी शताब्दी) द्वारा विरचित नियुक्ति और शीलांकाचार्य (गुप्त संवत्सर ७७२, विक्रम की १०वीं शती) विरचित टीका है। उक्त नियुक्ति मोर टीका के साथ वह सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति बम्बई से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है मूल-असत्यामृषा भाषा आदि । ___टीका-अध:कर्म, अनिसृष्ट, अनुभावबन्ध, असत्यामृषा भाषा, आच्छेद्य, प्राजीवपिण्ड, आज्ञा, आधाकर्म, प्रायुकर्म, पाहार संज्ञा, पाहृत कर्म, उपकरण, उपाध्याय, उपपात और प्रौद्देशिक प्रादि । २७. सूत्रकतांग-यह बारह घंगों में दूसरा है और वह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है । प्रथम श्रुतसन्ध में १६ अध्ययन हैं-१ समयाध्ययन, २ वैतालीय अध्ययन, ३ उपसर्गाध्ययन, ४ स्त्रीपरिज्ञा, ५ नरक-विभक्ति, ६ वीरस्तुति, ७ कुसीलपरिभाषा, ८ वीर्याध्ययन, ६ धर्माध्ययन, १० समाधि-अध्ययन, ११ मार्गाध्ययन, १२ समवसरण-अध्ययन, १३ याथातथ्य अध्ययन, १४ ग्रन्थाध्ययन, १५ पादानीय (या प्रादान) और १६ गाथाध्ययन। इसमें क्रियावादी व नियतिवादी आदि मतान्तरों की समीक्षा करके स्वसमय (स्वमत) को स्थापित किया है। द्वितीय स्कन्ध में १ पौण्डरीक अध्ययन, २क्रियास्थान, ३ माहारपरिज्ञा, ४ प्रत्याख्यान क्रिया, ५ अावार श्रुताध्ययन, ६ ग्रादकीय अध्ययन और ७ नालन्दीय अध्ययन-ये सात अध्ययन हैं। यहाँ जीव व शरीर की एकता, जगत्कर्तृत्व और नियतिवाद आदि का निराकरण करते हुए भिक्षा सम्बन्धी दोषों की प्ररूपणा की गई है। प्रथम श्रुतस्कन्धगत प्रारम्भ के १५ अध्ययन पद्यमय हैं। उनकी पद्यसंख्या इस प्रकार है-८ ७६+८२+५३+५२+२+३+२+३६+२+३+२२+२३+२७+२५%3D५५३. अन्तिम १६वा अध्ययन गद्यसूत्रात्मक हैं । उसमें ४ सूत्र हैं। द्वितीय श्रतस्कन्ध में प्रारम्भ के चार और अन्तिम एक ये पांच अध्ययन गद्यरूप हैं, शेष दो (५-६) पद्यरूप हैं । तीसरे अध्ययन में सूत्र १६ के मध्य में चार गाथायें भी हैं। गद्यसूत्र संख्या सब ८१ और पद्यसंख्या ८८ है। उक्त दोनों श्रुतस्कन्धों पर प्रा. भद्रबाहु (द्वि.) विरचित नियुक्ति है, जिसकी संख्या २०५ है । इसके अतिरिक्त शीलांकाचार्य (वि. की १०वीं शती) विरचित टीका भी है । चूणि व दीपिका आदि अन्य व्याख्यायें भी उस पर रची गई हैं। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है मूल-पादिमोक्ष इत्यादि । टीका-प्रक्रियावादी, अदित्साप्रत्याख्यान, अनार्य, आदिमोक्ष, ऋजुसूत्र, एवम्भूतनय और प्रोजआहार ग्रादि । २८. स्थानांग-तीसरा अंग स्थानांग है। यह दस स्थानकों या अध्ययनों में विभक्त है। स्थानकसंख्या के अनुसार इसमें उसी संख्या के पदार्थ या क्रिया का विवेचन किया गया है। जैसे प्रथम स्थानक में एक-एक संख्या वाले पदार्थों का विवरण इस प्रकार है-एक प्रात्मा है, एक दण्ड है, एक क्रिया है, एक लोक है, एक अलोक है, एक धर्म है, एक अधर्म है, एक बन्ध है, एक मोक्ष है, एक पुण्य है, एक पाप हैं, एक प्रास्रव है, एक संवर है, एक वेदना है, एक निर्जरा है, इत्यादि (सूत्र २-१६) । इस एकस्थान प्रकरण में ५६ सूत्र हैं। द्वितीय स्थानक के प्रारम्भ में कहा गया है कि जो लोक में है वह दो पदों के अवतार रूप है १. टीकाकार ने इस टीका के रचनाकाल को सूचना स्वयं इस प्रकार की है द्वासप्तत्यधिके हि शतेषु सप्तसु गतेषु गुप्तानाम् । संवत्सरेषु मासि च भाद्रपदे शक्लपंचभ्याम् ।। शीलाचार्येण कृता गम्भूतायां स्थितेन टीकषा। सम्यगुपयुज्य शोध्यं मात्सर्यविनाकृत रायः ॥ पृ. २८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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