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________________ १४ जैन-लक्षणावली मूलाचार- ७-४७, ७-५४, ५५, ५६, ५८, प्राव. नि. या भा. १६५ (भा.), २०२ (भा.), १०५६, १०६०, १०६२, मूलाचार- ६२, ६८, ६६, ७०, ७२. आव. नि. या भा. १०६६, १०६३, १०६४, १०९५, १०६७. इसी प्रकार वन्दना आवश्यक के प्रकरण में भी उक्त दोनों ग्रन्थों में कुछ गाथायें साधारण शब्दभेद व अर्थभेद के साथ समान रूप से उपलब्ध होती हैं। ८. द्वादशानुप्रेक्षा-इस अधिकार में अनित्यादि १२ अनुप्रेक्षाओं का निरूपण किया गया है । इसमें ७६ गाथायें हैं। ६. अनगारभावना-इस अधिकार में लिंगशुद्धि, व्रतशुद्धि, बलशुद्धि, विहारशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, ज्ञानशद्धि, उज्झन (त्याग) शुद्धि-शरीर से अनुराग का परित्याग, वाक्यशुद्धि, तप:शुद्धि और ध्यानशुद्धि इन दस की प्ररूपणा की गई है। उज्झनशुद्धि के प्रसंग में साधु के लिए मुंह, नेत्र और दातों के धोने, पांवों के धोने, संवाहन–अंगमर्दन, परिमर्दन-हाथ की मुट्ठियों आदि से ताड़न और शरीरसंस्कार को निषिद्ध बताया गया है । इस अधिकार में १२५ गाथायें हैं। १०. समयसार-समय शब्द से गुण-पर्यायों के साथ एकता (अभेद) को प्राप्त होने वाले सभी पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं। प्रकृत में 'समय' शब्द से जीव अपेक्षित है। उसके सारभूत जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और ध्यान आदि हैं उनके परिपालन में मुमुक्ष को सतत सावधान रहना चाहिए; इत्यादि की चर्चा इस अधिकार में की गई है। यहाँ क्रियाविहीन ज्ञान को, संयमविहीन लिंग के ग्रहण को और सम्यक्त्वविहीन तप को निरर्थक कहा गया है । आगे यहाँ आचार्य कुल को छोड़कर एकाकी विहार करने वाले को पापश्रमण कहा गया है। इस अधिकार में १२४ गाथायें हैं। ११. शीलगणाधिकार-इस अधिकार में प्रथमतः योग ३, करण ३, संज्ञा ४, इन्द्रिय ५, पथिवीकायादि १० और श्रमणधर्म १०, इनके परस्पर गुणन से निष्पन्न होने वाले १८००० शीलों का निरूपण किया गया है। तत्पश्चात् प्राणिवधादि २१, अतिक्रमण, व्यतिक्रमण, अतिचार और अनाचार ये चार: पथिवी. अप, अग्नि, वायु, प्रत्येक, साधारण, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन दस को परस्पर में व्यथा करने के कारण परस्पर गुणित करने पर १००(१०x१०); अब्रह्म के कारण १०, घालोचना दोष १०, श्रद्धान के साथ आलोचना-प्रतिक्रमणादि १०, इन सब को परस्पर गुणित करने से (२१४४४१००x१०x१०x१०= ८४०००००) समस्त गुण चौरासी लाख होते हैं। आगे इनके भंगों के उत्पत्तिक्रम को भी बतलाया गया है। १२. पर्याप्ति अधिकार- इस अधिकार में क्रम से पर्याप्तियां, देह, संस्थान, काय, इन्द्रिय, योनि, प्राय. प्रमाण (द्रव्य-क्षेत्रादिप्रमाण), योग, वेद, लेश्या, प्रवीचार, उपपाद, ऊद्वर्तन, स्थान, कूल, अल्पबहत्व और प्रकृत्यादि बन्ध; इन विषयों की प्ररूपणा की गई है। यहां उपपाद और उद्वर्तन (गति-प्रगति) प्रकरण का उपसंहार करते हुए ग्रन्थकार ने यह निर्देश किया है कि इस प्रकार से सारसमय में प्ररूपित गति-प्रागति का यहां मैंने कुछ वर्णन किया है। टीका. कार वसनन्दी ने सारसमय का अर्थ व्याख्याप्रज्ञप्ति किया है । इसका उपयोग इन शब्दों में या १. देखिये मूलाचार अधिकार ७, गा. ७९-८०, ८१, ६५,६८, १०३ और १०४ अादि तधा आव. नियुक्ति गा. ११०२-३, १२१७, ११०५, ११०६, १२०१, १२०२ आदि । २. आयरियकुलं मुच्चा विहरदि समणो य जो दु एगागी। ण य गेण्हदि उवदेसं पावस्समणो त्ति वुच्चदि दु॥ १०-६८. अधिकार ४ को गा. २६-३३ भी द्रष्टव्य हैं (पृ. १२८-३४) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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