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________________ प्रस्तावना १३ ५. प्रमाण दोष – अधिक प्रहार के ग्रहण करने पर साधु प्रमाण दोष का भागी होता है । उदर के चार भागों में से दो भागों को भोजन से और एक भाग को पानी से पूर्ण करना चाहिए तथा शेष एक भाग को वायुसंचार के लिए रिक्त रखना चाहिए । इस नियम का उल्लंघन करने पर साधु प्रमाण दोष से लिप्त होता है । पुरुष का प्राकृतिक आहार ३२ ग्रास प्रमाण और महिला का वह २८ ग्रास प्रमाण होता है । एक ग्रास का प्रमाण एक हजार ( १०००) चावल है । ६. अंगार दोष --- आसक्तिपूर्वक प्रहार के ग्रहण करने पर साधु श्रंगार दोष से दूषित होता है । ७. धूम्र दोष – भोजन को प्रतिकूल मान कर निन्दा का अभिप्राय रखना, यह धूम्र दोष का लक्षण है। ८. कारण - भोजन ग्रहण करने के छह कारण हैं- भूख की पीडा, वैयावृत्त्य करना, आवश्यक क्रियाओं का परिपालन करना, संयम की रक्षा, प्राणों की स्थिति और धर्म की चिन्ता । धर्म का आचरण करने के लिए साधु को उक्त छह कारणों के होने पर ही ग्राहार को ग्रहण करना चाहिए। इनके अतिरिक्त छह कारण ऐसे भी हैं जिनके होने पर भोजन का परित्याग करना चाहिए, अन्यथा धर्म का विघात अवश्यंभावी है । वे छह कारण ये हैं- रोग का सद्भाव, देव- मनुष्यादिकृत उपद्रव, ब्रह्मचर्य का संरक्षण, जीवदया, तप और समाधिमरण । इनके अतिरिक्त बलवृद्धि, श्रायुवृद्धि, स्वादलोलुपता और शरीरपुष्टि के लिए किये जाने वाले आहार का यहां सर्वथा निषेध किया गया है । इस प्रकार से यहां भोजनशुद्धि के निमित्त उक्त दोषों और अन्तरायों को दूर करने की प्रेरणा की गई I ७. षडावश्यक – यहाँ आवश्यक का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि जो इन्द्रियों और राग द्वेषादिरूप कषायोंके द्वारा वशीभूत नहीं किया जाता है उसे 'अवश्य नामसे कहा जाता है । ऐसे अवश्य (साधु) का जो प्राचरण है वह प्रावश्यक कहलाता है। 'निर्युक्ति' शब्द के अन्तर्गत 'युक्ति का अर्थ उपाय और 'निर्' का अर्थ निःशेष या सम्पूर्ण होता है । इस प्रकार इस अधिकार में चूंकि साधु के अनुष्ठानविषयक उपायों का सम्पूर्ण विवेचन किया गया है, अतः इसे ग्रन्थकार ने श्रावश्यक नियुक्ति कहते हुए प्रारम्भ में उसके निरूपण करने की प्रतिज्ञा की है । वे आवश्यक छह हैं --- सामायिक, चतुर्विंशविस्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग । इन छह का यहाँ क्रमसे निरूपण किया गया है । अन्त में यहाँ ग्रन्थकार द्वारा कहा गया है कि इस नियुक्ति की नियुक्ति को यहाँ मैंने संक्षेप से कहा है, विस्तार का प्रसंग अनुयोग से जानना चाहिए । टीकाकार वसुनन्दी ने अनुयोग का अर्थ श्राचारांग किया है । चतुर्विंशतिस्तव के प्रसंग में यहाँ प्रथमतः लोक को उद्योतित करने वाले तथा धर्मतीर्थ के कर्ता अरिहंतों को कीर्तन के योग्य बतलाते हुए उनसे उत्तम बोधि की याचना की गई है । लगभग ऐसा ही सूत्र श्रावश्यक सूत्र के भी इस प्रकरण में उपलब्ध होता है' । श्रागे लोक की नियुक्तिपूर्वक उसके नो भेदों का निर्देश किया गया है। श्रावश्यक नियुक्तिकार ने वहाँ लोक के ग्राठ भेदों का निर्देश किया है । प्रकृत में एक चिह्नलोक और कषायलोक का भी निर्देश किया गया है, ये दोनों आवश्यकसूत्र में नहीं हैं । वहाँ एक काललोक अधिक है । इसके पश्चात् और भी जो प्ररूपणा यहाँ और श्रावश्यकसूत्र में की गई है, दोनों में बहुत कुछ समानता है । इतना ही नहीं कुछ गाथायें भी यहाँ और आवश्यकसूत्र में नियुक्ति या भाष्य के रूप में कुछ शब्दभेद के साथ समानरूप से पायी जाती हैं । जैसे--- १. लोगुज्जोए घम्मतित्थयरे जिणवरे य अरहंते । कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहि मम दिसंतु ।। मूला. ७-४२. श्राव. १, पृ. ४६. २. लोगस्सुज्जोगरे धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं चउवीसं वि केवली ॥ णाम वणं दव्वं खेत्तं चिन्हं कसायलोनो य । भवलोगो भावलोगो पज्जयलोगो य णादव्वो । मूला. ७-४४. णामं ठवणा दविए खित्ते काले भवे अ भावे । पज्जवलोगे अतहा अट्ठविहो लोगणिक्खेवो ।। श्राव. नि. १०५७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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