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________________ प्रस्तावना मूल - श्रङ्गारदोष, अत्यासादना दन्तमनव्रत, अध्यधि दोष, अनन्तसंसारी, अनुभाषणाशुद्धप्रत्याख्यान, श्रलोक, प्राज्ञाविचय और आवश्यक नियुक्ति आदि । टीका -- प्रकिंचनता, प्रचक्षुदर्शन, प्रत्यासादना और प्रदत्तग्रहण श्रादि । १४ भगवती प्राराधना – इसके रचयिता आचार्य शिवार्य हैं । उनका समय निश्चित नहीं है । पर ग्रन्थ के विषय और उसकी विवेचन पद्धति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उसका रचनाकाल दूसरी-तीसरी शताब्दी होना चाहिए । इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप इन चार आराधनाओं की प्ररूपणा की गई है । वैसे तो रत्नत्रय सदा ही श्राराधनीय है, पर मरण के समय उसके प्राराधन का विशेष महत्त्व है । इस प्रसंग में यहाँ यह कहा गया है कि जो मरणसमय में उसकी विराधना करता है वह अनन्तसंसारी होता है' । साथ में यह भी कहा गया है कि चारित्र की — रत्नत्रय की - आराधना करने वाले अनादि मिथ्यादृष्टि भी थोड़े ही समय में मुक्ति को प्राप्त करते देखे गये हैं । इसको स्पष्ट करते हुए पं. प्रशाधर ने अपनी टीका में बतलाया है कि भरत चक्रवर्ती के भद्र-विवर्धनादि नौ सौ तेईस पुत्र नित्यनिगोद से ग्राकर मनुष्य हुए और भगवान् प्रदिनाथ के पादमूल में रत्नत्रय को धारण करते हुए हुए हैं । थोड़े ही समय में मुक्ति को प्राप्त १५ यहाँ सत्तरह मरण भेदों की सूचना करके उनमें से समयानुकूल पण्डित पण्डितमरण, पण्डितमरण, वाल पण्डितमरण, बालमरण और बाल बालमरण इन पाँच भेदों की प्ररूपणा की गई है । भक्तप्रत्याख्यान के भेदभूत सविचार भक्तप्रत्याख्यान के प्रसंग में आराधक की योग्यता के परिचायक अर्हलिंग श्रादि ४० पदों का विवेचन यहाँ अन्य प्रासंगिक चर्चा के साथ बहुत विस्तार से (गा. ७१-२०१० ) किया गया है । यहाँ आराधक को स्थिर रखने के लिए अनेक पौराणिक उदाहरणों द्वारा उपदेश दिया गया है । अन्त में प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना के सम्बन्ध में ग्रन्थकार ने यह कहा है कि पाणितलभोजी मैंने ( शिवार्यने) आर्य जिननन्दी गणी के पादमूल में भलीभांति सूत्र और अर्थ को जानकर पूर्वाचार्यनिबद्धपूर्वाचार्य परम्परा से प्राप्त - इस भगवती प्राराधना को उपजीवित किया है- उसे संकलित या उद्धृत किया है । छद्मस्थ होने से यदि इसमें कुछ आगमविरुद्ध सम्बद्ध हो गया हो तो विशेषज्ञानी प्रवचनवत्सलता से उसे शुद्ध कर लें । मेरे द्वारा भक्ति से वर्णित यह भगवती आराधना संध और शिवार्य के लिए उत्तम समाधि प्रदान करे । ग्रन्थ की गाथासंख्या २१७० है । प्रस्तुत ग्रन्थ के ऊपर अपराजित सूरि ( अनुमानतः विक्रम की ध्वीं शताब्दी के पूर्व ) द्वारा विजयोदया नाम की टीका और पं० श्राशावर ( विक्रम की १३वीं शताब्दी) द्वारा मूलाराधनादर्पण नाम की टीका रची गई है। इनके अतिरिक्त प्रा. अमितगति द्वि. (विक्रम की ११वीं शताब्दी) के द्वारा उसका पद्यानुवाद भी किया गया । कुछ अन्य भी टीका-टिप्पण इसके ऊपर रचे गये हैं । विजयोदया टीका के निर्माता अपराजित सूरि श्वे. सम्मत आगमों के महान् विद्वान् थे । उन्होंने नग्नता का प्रबल समर्थन करते हुए आचारप्रणिधि, प्राचारांग पायेसणी, भावना, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिका आदि कितने ही ग्रागम ग्रन्थों के उद्धरणों को उक्त नग्नता के प्रसंग में वहाँ उपस्थित किया है । दशवैकालिक सूत्र के ऊपर तो उन्होंने विजयोदया नाम की टीका भी लिखी है, जिसका उल्लेख प्रस्तुत टीका में उन्होंने स्वयं भी किया है। अपराजितसूरि ने इस टीका के अन्त में उसका १. गा. १५. २. गा. १७. ३. इन १७ मरणों का उल्लेख उत्तराध्ययन नियुक्ति में उपलब्ध होता है । उत्तरा ५, पृ. ३६. ४. देखिये 'जैन साहित्य और इतिहास' पृ. ७६ ८०. ५. देखिये गा. ३२१ की विजयो. टीका, पृ. ६११-१३. ६. दशवेकालिकटीकायां श्रीविजयोदयायां प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते । विजयो. टीका गा. ११६७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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