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________________ अक्षरसमास ७, जैन लक्षणावली [प्रक्षीणमहानस सुदणाणमिदि घेत्तव्वं । (धव. पु. १३, पृ. २६५)। पूर्वक होने वाला ज्ञान अक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहपर्यायसमास श्रुतज्ञान के अन्तिम विकल्प को लाता है। अनन्त रूपों से गणित करने पर जो श्रतज्ञान उत्पन्न प्रक्षरावरणीय--अक्खरसुदणाणस्स जमावारयं होता है वह अक्षरश्रुतज्ञान कहलाता है। कम्मं तमक्खरावरणीयं ।(धव. पु. १३, पृ. २७७)। अक्षरसमास ( अक्खरसमास ) - अक्खर- अक्षरश्रुतज्ञान का प्रावारक कर्म अक्षरावरणीय सुदणाणादो उवरिमाणं पदसूदणाणादो हेट्रिमाणं कर्म कहलाता है।। संखेज्जाणं सुदणाणवियप्पाणमक्ख रसमासो ति अक्षरोकृत शब्द--देखो अक्षरात्मक । अक्षरीसण्णा। (धव. पु. ६, पृ. २३); इमरस अवखरस्स कृतः शास्त्राभिव्यजकः संस्कृत-विपरीतभेदादार्यउवरि बिदिए अक्खरे बढिदे अक्षरसमासो णाम म्लेच्छब्यवहार हेतुः । (स. सि. ५-२४; त. वा. सुदणाणं होदि । एवमेगेगक्खरवढिकमेण अक्खर- ५, २४, ३; त. सुखबो. ५-२४)। समासं सुदणाणं वडढमाणं गच्छदि जाव संखेज्जवख- जो अक्षर रूप भाषात्मक शब्द शास्त्र का अभिराणि बढिदाणि त्ति। (धव. पु. १३, प. २६५)। व्यञ्जक होकर संस्कृत और संस्कृत भिन्न-प्राकृत अक्षरज्ञान के ऊपर द्वितीय अक्षर की वद्धि होने प्रादि-भाषाओं के भेद से प्रार्य एवं म्लेच्छ जन के प्रादि-भाषामा क भद स प्राय पर अक्षरसमास का प्रथम विकल्प होता है। व्यवहार का कारण होता है वह अक्षरीकृत भाषाइस प्रकार संख्यात अक्षरों की वृद्धि होने तक उक्त लक्षण शब्द कहा जाता है। अक्षरसमास श्रुतज्ञान के द्वितीय-तृतीयादि विकल्प अक्षिप्र (अवग्रहभेद ) - सणिग्गहणमखिप्पाचलते रहते हैं। वग्गहो। (धव. पु. ६, प. २०); अभिनवशरावअक्षरसमासावरणीय - पुणो एदस्सुवरिमस्स गतोदकवत् शनैः परिच्छिन्दानः अक्षिप्रप्रत्ययः । अक्खररस जमावरणीयकम्म तमक्खरसमासावरणीयं (धव. पु. ६, पृ. १५२; पु. १३, पृ. २३७) । णाम चउत्थमावरणं । (धव. पु. १३, पृ. २७७)। नवीन सकोरे के ऊपर छिड़के हुए जल के समान अधरसमास ज्ञान को रोकने वाला कर्म अक्षर पदार्थों का जो धीरे धीरे देर में ज्ञान होता है, समासावरणीय माना जाता है। उसका नाम अक्षिप्र प्रत्यय है। अक्षीरगमहानस-१. लाभंतरायकम्मक्खय-उवअक्षरसंयोग-संजोगो णाम कि दोण्णमक्ख समसंजुदाए जीए फुडं । मुणिभुत्तसेसमण्णं धामत्थं राणेयत्तं, कि सह उच्चारणं, एयत्थीभावो वा ? ण पियं जं कं पि ।। तद्दिवसे खज्जतं खंधावारेण चक्कतावxxx। तदो एगत्थीभावो संजोगो त्ति घेत्त वट्टिस्स । झिज्झइ ण लवेण वि सा अक्खीणमहाव्वो। (धव. पु. १३, पृ. २५०)। णसा रिद्धी ।। (ति. प. ४, १०८६-६०)। २. लाजितने अक्षर संयुक्त होकर किसी एक अर्थ को भान्तरायस्य क्षयोपशमप्रकर्षप्राप्तेभ्यो यतिभ्यो यतो प्रगट करते हैं उनके संयोगका नाम अक्षरसंयोग है। भिक्षा दीयते ततो भाजनाच्चक्रधरस्कन्धावारोऽपि अक्षरात्मक (शब्द)-देखो अक्षरीकृत । अक्ष अक्षराकृत । अक्ष- यदि भुञ्जीत तद्दिवसे नान्नं क्षीयेत, तेऽक्षीणमहारात्मकः संस्कृत-प्राकृतादिरूपेणार्य-म्लेच्छभाषाहेतुः । नसाः । (त. वा. ३-३६, पृ. २०४; चा. सा. पृ. (पंचा. का. जय. वृ. ७६) । १०१)। ३. कूरो घियं तिम्मणं वा जस्स परिविजो शब्द संस्कृत और प्राकृत प्रादि के रूप से सिदण पच्छा चक्कवट्रिखंधावारे भुंजाविज्जमाणे आर्य व म्लेच्छ जनों की भाषा का कारण होता है वि ण णिट्रादि सो अक्खीणमहाणसो णाम । (धव. वह अक्षरात्मक कहलाता है । पु. ६, पू १०१-२)। ४. अक्षीणं महानसं रसवती अक्षरात्मक श्रुतज्ञान -वाच्य-वाचकसम्बन्ध- येषां यस्माद् भाण्डकादुद्धत्य भोजनं तेभ्यो दत्तं संकेतसङ्कलनपूर्वकं यज्ज्ञानमुत्पद्यते तदक्षरात्मक- तच्चक्रवतिकटकेऽपि भोजिते न क्षीयते । (प्रा. योगिश्रतज्ञानम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. त. प्र. टी. भक्ति टीका १७, प. २०४)। ५. महानसम् अन्न३१५)। प.कस्थानम्, तदाश्रितत्वाद्वाऽन्नमपि महानसमुच्यते । वाच्य-वाचक सम्बन्ध के संकेत की योजना- ततश्चाक्षीणं पुरुषशतसहस्रेभ्योऽपि दीयमानं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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