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________________ अक्षम्रक्षणवृत्ति] ६, जैन-लक्षणावली [अक्षरश्रुतज्ञान जे अक्खवयाणुवसामया ते दुविहा-अणादि-अपज्ज- अक्षर (अक्खर)-१. न क्खरति अणुवयोगे वि वसिदबंधा च अणादि-सपज्जवसिदबंधा चेदि। अक्खरं सो य चेतणाभावो । अविसुद्धणयाण मतं (धव. पु. ७, पृ. ५)। शुद्धणयाणक्खरं चेव ।। (विशे. भा. ४५३) । जिन जीवों का कर्मबन्ध अनादि-अनन्त है वे २. खरणाभावा अक्खरं केवलणाणं । (धव. पु. ६, (अभव्य) तथा जिनका कर्मबन्ध अनादि होकर पृ. २१); सुहमणिगोदलद्धिअपज्जत्तस्स [जं] भी विनष्ट होने वाला है वे-मिथ्यादृष्टि आदि जहण्णयं णाणं तं लद्धि-अक्खरं णाम । कधं तस्स अप्रमत्तान्त गुणस्थानवर्ती भव्य-भी अक्षपकानुपशा- अक्खरसण्णा ? खरणेण विणा एगसरूवेण अवट्ठामक-क्षपणा या उपशामना न करने वाले अनादि ___णादो। केलणाणमक्खरं, तत्थ वढि-हाणीणमभाबादर साम्परायिक कर्मबन्धक हैं। वादो। दवदियणए सुहमणिगोदणाणं तं चेवे त्ति अक्षम्रक्षणवृत्ति-१. यथा शकटं रत्नभारपरिपूर्ण वा अक्खरं । (धव. पु. १३, पृ. २६२)। ३. 'क्षर येन केनचित् स्नेहेन अक्षलेपं च कृत्वा अभिलषित- संचलने' क्षरतीति क्षरम्, तस्य नञा प्रतिषेधेऽक्षरम् ; देशान्तरं वणिगुपनयति, तथा मुनिरपि गुण-रत्न- अनुपयोगेऽपि न क्षरतीति भावार्थः; तस्य सततभरितां तनु शकटीमनवद्यभिक्षायुरक्षम्रक्षणेन अभि- मवस्थितत्वात् । स च कः इत्यतः आह—स च प्रेतसमाधिपत्तनं प्रापयतीत्यक्षम्रक्षणमिति च नाम अक्षरपरिणामः चेतनाभावः-चेतनासत्ता। केषां निरूढम् । (त. वा. ६, ६, १६ श्लो. वा. ६-६; नयानां मतेनेत्याह-अविशुद्धनयमतेन नैगम संग्रहचा. सा. पृ २५)। २. तथा अक्षस्य शकटीचक्रा- व्यवहाराभिप्रायेण, द्रव्याथिकमूलप्रकृतित्वात् । शुद्धधिष्ठानकाष्ठस्य म्रक्षणं स्नेहेन लेपनमक्षम्रक्षणम् । नयानां तु ऋजूसूत्रादीनां क्ष रमेवेति गाथार्थः । तदिवाऽशनमप्यक्षम्रक्षणमिति रूढम्, येन केनापि (विशे. भा. को. वृ. ४५३) । ४. अकारादिलब्ध्यस्नेहेनेव निरवद्याहारेणायुषोऽक्षस्येवाभ्यङ्ग प्रति- क्षराणामन्यतरत् अक्षरम् । (कर्मवि. दे. स्वो. वृ. विधाय गुण-रत्नभारपूरिततनुशकटया: समाधीष्ट- गा. ७)। देशप्रापणनिमित्तत्वात् । (अन. ध. टी. ६-४६)। २ अपने स्वरूप या स्वभाव को नहीं छोड़ने वाले १ जिस प्रकार कोई व्यापारी रत्नों के बोझ ऐसे हानि रहित सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव से परिपूर्ण गाड़ी का जिस किसी भी तेल के द्वारा के ज्ञान को और हानि-वृद्धि से रहित केवलज्ञान अक्षम्रक्षण करके- उसमें ओंगन देकर—उसे को भी अक्षर कहा जाता है। अभीष्ट स्थान पर ले जाता है, उसी प्रकार मुनि अक्षरगता (अक्खरगया)-अक्खरगया अणुवभी सम्यग्दर्शनादि गुणरूप रत्नों से भरी हुई शरीर- घादिदिय-सण्णिपंचिदिय-पज्जत्तभासा। (धव. पु. रूप गाड़ी को निर्दोष भिक्षा के द्वारा प्रायु के अक्ष- १३, पृ. २२१-२२)। म्रक्षण से-प्रायःस्थिति के साथ इन्द्रियों को भी अविनष्ट इन्द्रियवाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त इस योग्य रखकर-अभीष्ट घ्यान रूप नगर में जीयोंकी भाषा अक्षरगता भाषा कहलाती है। पहुंचाता है। इसीलिये दृष्टान्त की समानता से अक्षरज्ञान-चरिमपज्जयसमासणाणट्ठाणे सव्वजीवउसका नाम 'अक्षम्रक्षण' प्रसिद्ध हुआ है। रासिणा भागे हिदे लद्धं ताहि चेव पक्खित्ते अक्खरअक्षयराशि (अक्खयरासी)-अहवा वए सते णाणं उप्पज्जदि । (धव. पु. १३, पृ. २६४) । वि अक्खयो को वि रासी अस्थि, सव्वस्स सपडि- पर्यायसमास श्रतज्ञान के अन्तिम विकल्प में वक्खस्सेवुवलंभादो । (धव. पु. ४, पृ. ३३६)। समस्त जीवराशि का भाग देने पर जो ज्ञान उत्पन्न व्यय के होते हुए भी जिस राशि का कभी होता है वह अक्षरज्ञान कहलाता है। अन्त नहीं होता वह राशि अक्षय कही जाती है अक्षरश्रुतज्ञान (अक्खरसुदरगाणं)-देखो अक्षर---जैसे भव्य जीवराशि । इसका भी कारण यह ज्ञान । तं (पज्जायसमाससुदणाणस्स अपच्छिमहै कि उष्णता एवं हानि आदि सब ही अपने प्रति- वियप्प) अणतेहि रूवेहिं गुणिदे अक्खरं णाम सुदपक्ष-अनुष्णता एवं वृद्धि आदि के साथ ही गाणं होदि। (धव. पु. ६, पृ. २२); एगादो अक्खउपलब्ध होते हैं। रादो जहणेण [] उप्पज्जदि णाणं तं अवखर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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