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________________ में किया जाने के कारण तुलनात्मक भाषा शास्त्र और साहित्य अध्ययन करने वालों के लिये यह बड़े ही महत्व की चीज होगी, इतना ही नहीं, परन्तु यह कोष अर्धमागधी भाषा में भरे हुए जो अगम्य तत्व हजारों वर्ष पहिले जाने जा चुके हैं उन्हें मुलभता से भार सुगमता से जानने की कुंजी है। इस ग्रन्थ में हजारों अर्ध-मागधी अवतरण भी दिय गये है, इस कारण यदि इस कोष को अवतरण-कोष भी कहें तो अनुचित न होगा । इन अवतरणों को पढ़ने से आनन्द भोर शान्ति के साथ २ ज्ञान की भी खूब वृद्धि होती है । कोष की उपयोगिता बढ़ाने के हेतु क्रियानों और संज्ञाओं के रूपाख्यान भी दिये गये हैं, तथा गहन शब्दों का स्वरूप स्पष्ट रीति से समझाने के अभिप्राय से जहां तहां कितने ही चित्रों की भी योजना की गई है । इस कोष की एक और विशेषता यह है कि इसके अंग्रेजी अनुवाद में जहां २ पारिभाषिक श्रादि शब्द ज्यों के स्यों अंग्रेजी अक्षरों में रक्खे हैं उनका उच्चारण शुद्ध और सुलभता से हो सके इस हेतु उन शब्दों के अकरों के ऊपर अलग २ तरह के चिन्ह किये हैं जिससे पाश्चिमात्य विद्वान शन्दों का शुद्ध उच्चारण बहुत ही सुलभता से कर सकते हैं । इस प्रकार इस ग्रन्थ को सर्वाङ्ग सुन्दर बनाने में विशेष ध्यान रखा गया है । मैं यह कहना भत्युक्ति नहीं समझता कि इसके समान उपयुक्त पञ्चभाषिक कोष श्राज तक प्रकाशित नहीं हुआ। इस कोष में जो अर्थ दिये गये हैं वे विशिष्ट साम्प्रदायिक मंतब्य रहित हो कर निर्विवाद, अस्सन्दिग्ध और शुद्ध हैं क्योंकि इस ग्रंथ के संप एक विद्वान तत्वज्ञानी भौर जैन धर्म के प्राचार विचार को पूर्णतया जानने वाले निर्मल मुनिरत्न है। अन्य साम्प्रदायिक जनी भाइयों से मैं यह विशेष प्रार्थना कर देना चाहता हूं और उनको पूर्ण विश्वास दिलाना आवश्यक समझता हूं कि इसमें साम्प्रदायिक भेदभाव नहीं रखा गया है। इस कारण जैन धर्मान्तर्गत श्वेताम्बर, दिगम्दर, म्धानकवासी आदि समस्त संप्रदाय के महानुभाव इस ग्रन्थ से महान् लाभ उठा सकते है। कोष बनाने के कार्य में उपस्थित बाधाएं। प्रथम तो इस भाषा के जानकार विशेषतः जैन मुनि ही होने के क रण प्रायः इन मुनियों के सिवाय इस कार्य में विशेष सहायता इतर सज्जनों से प्राप्त न हो सकी। जैन मुनि धर्मशास्त्रानु. सार मर्यादित काल से अधिक समय एक ग्राम में निवास नहीं कर सकते और छोटे बहे सब ही प्रकार के ग्रामों में उन्हें विवरना होता है ऐसी दशा में कोप जैसे महान कार्य को करने के साधन व सचित सामग्री सर्वत्र समुचित उपस्थित न हो सकी। इस कारण शब्द-संग्रह भादि कार्यों में नाना प्रकार की बाधाएं उपस्थित हुई । पुनः इस कार्य में सहायता के हेतु जो शास्त्री भादि अन्य सहायक श्री महाराजजी की सेवा में रक्खे गये थे वे जैन धर्म से अपरिचित होने के कारण उनसे यथेष्ट सहायता न मिल सकी । श्री महाराजजी के विहार के कारण शास्त्री प्रादि अन्य कार्यकर्ताओं को भी उनके साथ २ बारबार एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाना प्रावश्यक होता था और यह परिश्रम बहुतों को असह्य होने के कारण किबित् अनुभवप्राप्त कार्यकर्ता इस कार्य का परित्याग कर देते थे। नये कार्यकर्ताओं को पुनः कार्य से परिचित कराने में बहुत कुछ कष्ट उठाना पड़ा और कार्य में विलम्ब हुभा । जिन जैन मुनियों से शब्द-संग्रह के कार्य में सहायता प्राप्त हुई उनके शुभ नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016013
Book TitleArdhamagadhi kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Maharaj
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1988
Total Pages591
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati, English
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size15 MB
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