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________________ पर्याय २. पर्याय सामान्य निर्देश १. गुणसे पृथक पर्याय निर्देशका कारण या वी/१/०८/१२९/४ यद्यपि सामान्यविशेषी पर्यायी तथापि सतह निमन्धनमाचन्दव्यवहारविषयत्वागस्तायो पृथग् निर्देश । यद्यपि सामान्य और विशेष भी पर्याय है, और पर्यायों के कथनसे उनका भो कथन हो जाता है- उनका पृथक् निर्देश (कथन) करनेकी आवश्यकता नही है तथापि संकेतज्ञानमें कारण होनेसे और जुदा-जुदा शब्द व्यवहार होनेसे इस आगम प्रस्तावमें ( आगम प्रमाणके निरूपण मे ) सामान्य विशेषका पर्यायोसे पृथक् निरूपण किया है। २. पर्याय अभ्यके व्यतिरेकी अंश हैं स, सि /५/३८/३०६/५ होती है न ५७) (प. का. प्र./५); (सा./ता ./१३/१२९/१२), ( प्र [टी] /२/५७), (ध. पू. १६५)। प्रसा/त प्र / ८०, ६५ अन्वयव्यतिरेका पर्याया ।८० पर्याया आयतविशेषा ॥६५॥ - अन्वय व्यतिरेक वे पर्याय है। 50 पर्याय आयत विशेष है । ६५ । (प्र. सा / त प्र / १३ ) । = पं. का/त प्र / ५ पदार्थास्तेषामवयवा अपि प्रदेशाख्या' परस्परव्यतिरेकाया उच्यन्ते । पदार्थोंके जो अवयव है वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले होनेसे की है। अध्यात्मकमल मार्तण्ड | वीरसेवा मन्दिर /२/१ व्यतिरेकिणो हानित्यास्तत्काले द्रव्यतन्मयाश्चापि । ते पर्याया द्विविधा द्रव्यावस्थाविशेषधर्मांशा || जो व्यतिरकी है और अनित्य है तथा अपने कालमें द्रव्यके साथ तन्मय रहती है। ऐसी द्रव्यकी अवस्था विशेष, या धर्म, या अश पर्याय कहलाती है || ३. पर्याय द्रव्य के क्रम मावी अंश है आप / ६ क्रमवर्तिन पर्याया, पर्याय एकके पश्चात दूसरी, इस प्रकार क्रमपूर्वक होती है। इसलिए पर्याय क्रमवर्ती कही जाती है। ( स्याम / २२ / २६७/२२ ) । व्यतिरेकिण पर्याया । पर्याय व्यतिरेकी घ प. प्र./मू./५७ कम-भुव पज्जउ कुत्तु ॥ ५७१ = द्रव्यकी अनेक रूप परिगति क्रमसे हो अर्थात् अनित्य रूप समय-समय उपजे, विनशे, वह पर्याय कही जाती है। (प्र. सा / स. प्र. १०) (नि साता प १०७), (पं का /ता वृ./५/१४/६ ) । प. सु. /४/एफस्मित् द्रव्ये कमभाविनः परिणामा पर्याया आत्मनि विद -एक ही द्रव्यमें क्रमसे होनेवाले परिणामोको कहते है जैसे एक ही आत्मामे हर्ष और विषाद । ४७ १. पर्याय स्वतन्त्र हैं पं. ध / ५०/५६, ११७ वस्त्वस्ति स्वत. सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामि अपि नित्या प्रतिसमयं विनापि यत्नं हि परिणमन्ति गुणा | ११७१ - जैसे वस्तु स्वतः सिद्ध है वैसे ही वह स्वत' परिणमनशील भी है।गुण निरय है तो भी वे निश्चय करके स्वभाव से ही प्रतिसमय परिणमन करते रहते है । Jain Education International ५. पर्याय व क्रियामै अन्तर रा. वा./५/२२/२१/४८९/१६ भावो द्विविधः - परिस्पन्दात्मकः अपरिस्पन्दात्मकश्च । तत्र परिस्पन्दात्मक. क्रियेत्याख्यायते, इतरः परिणामः । = भाव दो प्रकारके होते हैं- परिस्पन्दात्मक व अपरिस्पन्दात्मक | परिस्पन्द क्रिया है तथा अन्य अर्थात् अपरिस्पन्द परिणाम अर्थात् पर्याय है। ३. स्वभाव विभाव अर्थ व्यंजन व द्रव्यगुण " , ६. पर्याय निर्देशका प्रयोजन पं.का./११/४९/५ अत्र पर्यायरूपेणानित्यत्वेऽपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेनाविनश्वरमनन्तज्ञानादिरूपशुद्धीवास्तिकामाभिधानं रागादिपरिहारेणोपादेयरूपेण भावनीयमिति भावार्थः पर्याय रूपसे अनियम होनेपर भी शुद्ध व्याधिक नयसे अविनश्वर अनन्त ज्ञानादि रूप शुद्ध जीवास्तिकाय नामका शुद्धात्म द्रव्य है उसको रागादिके परिहार के द्वारा उपादेय रूपसे भाना चाहिए, ऐसा भावार्थ है । ३. स्वभाव विभाव, अर्थ व्यंजन व द्रव्य गुण पर्याय निर्देश १. अर्थ व व्यंजन पर्यायके लक्षण व उदाहरण - ध. ४/१,५,४/३३७/८ वज्जसिलार्थ भादिसु वंजणसण्णिदस्स अवट्ठाणुवलभादो । मिच्छत्तं पि वंजणपज्जाओ। वज्रशिला, स्तम्भादिमें व्यंजन संज्ञिक उत्पन्न हुई पर्यायका अवस्थान पाया जाता है। मिध्याल भी व्यंजन पर्याय है। प्र.सा./त.प्र./२० इम्पाणि क्रमपरिणामेनेयतिद्रव्यै क्रमपरिणामेनार्यन्त इति वा अर्थ पर्याया' । जो द्रव्यको क्रम परिणामसे प्राप्त करते है, अथवा जो द्रव्योके द्वारा क्रम परिणामसे प्राप्त किये जाते है ऐसे 'अ' हैं। " निसा / ता.पू./गा. पदानिवृद्धिरूपा सुश्मा परमागमामायादभ्युपगमा १४ व्ययते स्कूटी कियते अनेनेति व्यञ्जनपर्यायः । कुतः, लोचनगोचरत्वात् पटादिवत् । अथवा सादिसनिधनमूर्त विजातीयविभावस्वभावत्वात् श्यमान विनाशस्य रूप | १५ | नरनारकादिव्यपर्याया जीवानां पंचसारप्रपञ्चानां पृडुगलानां स्थूलस्थादिस्कन्पया १६८ प हानि वृद्धि रूप सूक्ष्म, परमागम प्रमाणसे स्वीकार करने योग्य अर्थ पर्यायें (होती है ) | १६८ | जिससे व्यक्त हो- प्रगट हो वह व्यंजन पर्याय है। किस कारण पटादिकी भाँति चक्षु गोचर होनेसे ( प्रगट होती हैं) अथवा सादि-सात मूर्त विजातीय विभाव-स्वभाववासी होनेसे दिखकर नष्ट होनेवाले स्वरूप वाली होनेसे ( प्रगट होती है । ) नर-नारकादि व्यजन पर्याय पाँच प्रकारकी संसार प्रपंच वाले जीवोके होती है। लोको स्थूल स्थूल आदि स्कन्ध पर्याये (आंजन पर्यायें होती हैं॥९६८० (निसा./ता.वृ./१५)। बसु.आ./२५ सहमा अवायविसथा खमरवणो या विट्ठा। जपज्जायागतागिरगोयरा चिरविवथा ॥२३॥ अर्थ पर्याय सूक्ष्म है, अवाय (ज्ञान) विषयक है, अत शब्दसे नही कही जा सकती है और क्षण-क्षणमें बदलती हैं, किन्तु व्यंजन पर्याय स्थूस है, शब्द गोचर है अर्थात् शब्दसे कही जा सकती है और चिरस्थायो २५.का./ता.वृ./ १२ / ३६ / ६) जेवेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only CI न्या. दी./३/९७७/१२०/६ अर्थपर्यायो भूतत्वभविष्यत्वसंस्पर्श रहितशुद्ध वर्तमानकाला वस्तुस्वरूपम्। तदेतनविषयममन्यभियुक्ता । व्यजनं व्यक्तिः प्रवृत्तिनिवृत्तिनिबन्धनं जा नयनाद्यर्थक्रियाकारित्वम् । तेनोपलक्षित' पर्यायो व्यञ्जनपर्याय', मृदादेर्पिण्ड स्थास-कोश-कुशल-पट-कपालादयः पर्यायाः । भूत और भविष्य के उल्लेखरहित केवल वर्तमान कालीन वस्तु स्वरूपको अर्थपर्याय कहते है। आचार्योंने इसे सूत्र नयका विषय माना है। व्यक्तिका नाम व्यंजन है और जो प्रवृत्तिनिवृत्ति में कारणभूत 'जलके ले आने आदि रूप अर्थ क्रियाकारिता है वह व्यक्ति है। उस व्यक्तिसे युक्त पर्यायको व्यंजन पर्याय कहते है । जैसे-मिट्टी आदिको पिण्ड स्थास, कोश, कुशल, घट और कपाल आदि है। www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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