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________________ पर्याय ४६ १. भेद व लक्षण द्रव्यके सम्बन्धसे उत्पन्न होनेवाली समानजातीय द्रव्य पर्याय कही जाती है। अब असमान जातीय द्रव्य पर्याय कहते है-भवान्तरको प्राप्त हुए जीवके शरीर नोकर्म रूप पुद्गलके साथ मनुष्य, देवादि पर्याय रूप जो उत्पत्ति है वह चेतन जीवकी अचेतन पुद्गल द्रव्यके साथ मेलसे होनेके कारण असमानजातीय द्रव्य पर्याय कही जाती है। ४. स्क्भाव पर्याय व विभाव पर्याय न. च. वृ/१७-१६ पज्जय द्विविध. ॥१७। सम्भावं खुविहावं दव्वाण पज्जयं जिणुद्दिछ।१८। दव्वगुणाण सहावा पज्जायंतह विहावदो णेयं ।१६-पर्याय दो प्रकारकी होती है-स्वभाव ब विभाव । तहाँ द्रव्य व गुण दोनों को ही पर्याय स्वभाव व विभावके भेदसे दो-दो प्रकारकी जाननी चाहिए। (पं का./ता, वृ/१६/३६/१६)।। आ. प./३ पर्यायास्ते द्वेधा स्वभाव विभावपर्यायभेदात् । विभावद्रव्यव्यजनपर्याय' • विभावगुणव्यजनपर्याय स्वभावद्रव्यव्यंनपर्याय. • स्वभावगुणव्यजनपर्याय. । - पर्याय दो प्रकारकी होती हैस्वभाव व विभाव । ये दोनो भी दो-दो प्रकारकी होती है यथाविभाव-द्रव्य व्यजनपर्याय, विभावगुण व्यजनपर्याय, स्वभाव द्रव्य- व्यंजन पर्याय व स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय । (प. प्र./टी /१/५७)। प्र.सा./त प्र./६३ द्रव्यपर्याय । स द्विविध , समानजातीयोऽसमानजातीयश्च । • गुणपर्याय' । सोऽपि द्विविध' स्वभावपर्यायो विभावपर्यायश्च । - द्रव्य पर्याय दो प्रकारकी होती है-समानजातीय और असमान जातीय। ..गुणपर्याय दो प्रकारकी है-स्वभाव पर्याय व विभाव पर्याय। (पं. का./ता.व./१६/३५/१३) । ५. कारण शुद्ध पर्याय व कार्य शुद्ध पर्याय नि.सा./ता.वृ.१५ स्वभावविभावपर्यायाणा मध्ये स्वभावपर्यायस्तावत् द्विप्रकारेणोच्यते । कारणशुद्भपर्याय कार्यशुद्धपर्यायश्चेति। स्वभाव पर्यायो व विभाव पर्यायोके बीच प्रथम स्वभाव पर्याय दो प्रकारसे कही जाती है-कारण शुद्धपर्याय, और कार्यशुद्भपर्याय । ३. द्रव्य पर्याय सामान्यका लक्षण प्र.सा./त प्र/१२ तत्रानेकद्रव्यात्मकैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो द्रव्यपर्याय.। -- अनेक द्रव्यात्मक एकताकी प्रतिपत्तिको कारणभूत द्रव्य पर्याय है। (पं.का./ता. वृ./१६/३५/१२)। वंध./पू /१३५ यतरे प्रदेशभागास्ततरे द्रव्यस्य पर्यया नाम्ना ।।१३५॥ द्रव्यके जितने प्रदेश रूप अश है, उतने वे सब नामसे द्रव्यपर्याय है। ५. गुणपर्याय सामान्यका लक्षण प्रसा/त.प्र./१३ गुणद्वारेणायतानैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो गुणपर्याय १६३। - गुण द्वारा आयतकी अनेकताकी प्रतिपत्तिको कारणभूत गुणपर्याय है ।६३। पं.का /ता बृ /१६/३६/४ गुणद्वारेणान्वयरूपाया एकत्वप्रतिपत्तेर्निबन्धनं कारणभूतो गुणपर्याय । = जिन पर्यायोंमें गुणोंके द्वारा अन्वयरूप एकत्वका ज्ञान होता है, उन्हे गुणपर्याय कहते है। पंध/पू /१३५ यतरे च विशेषास्ततरे गुणपर्यया भवन्त्येव ।१३५॥ - जितने गुणके अंश है, उतने वे सब गुणपर्याय ही कहे जाते है ।१३।। (पं.ध./पू./६१ )। १. गुणपर्याय एक द्रव्यात्मक ही होती हैं प्र.सा/त प्र /१०४ एकद्रव्यपर्याया हि गुणपर्याया' गुणपर्यायाणामेक द्रव्यत्वात् । एकद्रव्यत्व हि तेषां सहकारफलवत् । -गुण पर्याय एक द्रव्य पर्याय है, क्योकि गुण पर्यायोको एक द्रव्यत्व है । तथा वह द्रव्यत्व आम्रफल की भॉति है। पं का./ता. वृ./१६/३६।५ गुणपर्यायः, स चैकद्रव्यगत एव सहकारफले हरितपाण्डरादिवर्णवत् । = गुणपर्याय एक द्रव्यगत ही होती है, आनमें हरे व पीले रंगकी भॉति । ७. स्व व पर पर्यायके लक्षण मोक्ष चाशत/२३-२५ केवलिप्रज्ञया तस्या जघन्योऽस्तु पर्याय । तदाऽनन्त्येन निष्पन्न सा द्य तिर्निजपर्यया' ।२३। क्षयोपशमवैचित्र्य ज्ञेयवैचित्र्यमेव वा। जीवस्य परपर्याया. षट्स्थानपतितामी १२५ = केवलज्ञानके द्वारा निष्पन्न जो अनन्त अन्तद्युति या अन्तर्तेज है वही निज पर्याय है ।२३। और क्षयोपशमके द्वारा व ज्ञेयोके द्वारा चित्र-विचित्र जो पर्याय है सो परपर्याय है। दोनो ही षट्स्थान पतित वृद्धि हानि युक्त है ।२४ ४. समान व असमान जातीय द्रव्यपर्यायका लक्षण प्र.सा./त.प्र./६३ तत्र समानजातीयो नाम यथा अनेकपुदगलात्मको द्वयणुकरूयणुक इत्यादि, असमानजातीयो नाम यथा जीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यादि । =समानजातीय वह है-जैसे कि अनेक पुद्गलात्मक द्विअणुक त्रिअणुक, इत्यादि; असमानजातीय वह है जैसे कि जीव पुद्गलात्मक देव, मनुष्य इत्यादि । प्र.सा/त प्र./५२ स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चितस्यैकस्यार्थस्य स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्व निश्चित एवान्यस्मिन्नर्थे विशिष्टरूपतया संभावितात्मलाभोऽर्थोऽनेकद्रव्यात्मक पर्याय । • जीवस्य पुद्गले सस्थानादिविशिष्टतया समुपजायमान, संभाव्यत एव । -स्वलक्षण भूत स्वरूपास्तित्वसे निश्चित अन्य अर्थ में विशिष्ट (भिन्न-भिन्न ) रूपसे उम्पन्न होता हुआ अर्थ ( असमान जातीय ) अनेक द्रव्यात्मक पर्याय है। .. जो कि जीव की पुद्गल में संस्थानादिसे विशिष्टतया उत्पन्न होती हुई अनुभवमें आती है। पं.का./ता.वृ./१६/३५/१४ द्वे त्रीणि वा चत्वारीत्यादिपरमाणुपुद्गलद्रव्याणि मिलित्वा स्कन्धा भवन्तीत्यचेतनस्यापरेणाचेतनेन सबन्धासमानजातीयो भण्यते । असमानजातीय कथ्यते-जीवस्य भवान्तरगतस्य शरीरनोकर्मपुद्गलेन सह मनुष्यदेवादिपर्यायोत्पत्तिचेतनजीवस्याचेतनपुद्गलद्रव्येण सह मेलापकादसमानजातीयः द्रव्यपर्यायो भण्यते। -दो, तीन वा चार इत्यादि परमाणु रूप पुद्गल द्रव्य मिलकर स्कन्ध बनते है, तो यह एक अचेतनकी दूसरे अचेतन ८. कारण व कार्य शुद्ध पर्यायके लक्षण नि, सा /ता बृ /१५ इह हि सहजशुद्धनिश्चयेन अनाद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहज ज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीत - रागसुखारमकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्वभावानन्तचतुष्टयस्वरूपेण सहाचितपंचमभावपरिणतिरेव कारण शुद्धपर्याय इत्यर्थ । माद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसभूतव्यवहारेण केवलज्ञान-केवलदर्शनकेवलसुख केवल शक्तियुक्तफलरूपानन्तचतुष्टयेन साद्ध' परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्धपर्यायश्च । सहज शुद्ध निश्चयसे, अनादि अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाववाले और शुद्ध ऐसे सहजज्ञान-सहजदर्शन-सहजचारित्र-सहज परमवीतरागसुखात्मक शुद्ध अन्तस्तत्त्व रूप जो स्वभाव अनन्तचतुष्टयका स्वरूप उसके साथकी जो पूजित पचम भाव परिणति वही कारण शुद्धपर्याय है। सादिअनन्त, अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले, शुद्धसभूत व्यवहारसे, केवलज्ञान-केवलदर्शन-केवलसुख-केवलशक्तियुक्त फलरूप अनन्त चतुष्टयके साथकी परमोत्कृष्ट क्षायिक भावकी जो शुद्ध परिणति वही कार्य शुद्ध पर्याय है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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