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________________ पर्याय ४८ ३. स्वभाव विभाव, अर्थ व्यंजन व द्रव्यगुण"" प्र. सा./ता. वृ /८०/१०१/१७ शरीराकारेण यदात्मप्रदेशानामवस्थानं स व्यन्जनपर्यायः, अगुरुलघुगुणषड्बृद्धिहानिरूपेण पतिक्षण प्रवर्तमाना अर्थपर्याया. । शरीरके आकार रूपसे जो आत्म-प्रदेशोका अवस्थान है वह व्यंजन पर्याय कहलाती है। और अगुरुलधु गुणकी षट् वृद्धि और हानिरूप तथा प्रतिक्षण बदलती है, वे अर्थ पर्याय होती है। २. अथ व गुण पर्याय एकार्थवाची हैं पं. ध//६२ गुणपर्यायाणामिह केचिन्नामान्तर वदन्ति बुधा'। अर्थो गुण इति वा स्यादेकार्थादर्थ पर्याया इति च ।६२। -यहाँ पर कोईकोई विद्वान् अर्थ कहो या गुण कहो इन दोनोका एक ही अर्थहोनेसे अर्थ पर्यायौंको ही गुणपर्यायोका दूसरा नाम कहते है ।६२॥ ३. व्यंजन व द्रव्य पर्याय एकार्थवाची है ध, ४/१.५.४/३३७/६ वंजणपज्जायस्स दव्बत्तन्भुवगमादो। -व्यजन पर्यायके द्रव्यपना माना गया है। (गो जी./मू.५८२)। पं.ध/पू /६३ अपि चोद्दिष्टानामिह देशांशैर्द्रव्यपर्यायाणा हि । व्यञ्जनपर्याया इति केचिन्नामान्तरे वदन्ति बुधा' १६३ कोई-कोई विद्वान् यहाँ पर देशाशोके द्वारा निर्दिष्ट द्रव्यपर्यायोंका ही व्यंजन पर्याय यह दूसरा नाम कहते है ।६३॥ १. द्रव्य व गुण पर्यायसे पृथक् अर्थ व व्यंजन पर्यायके निर्देशका कारण पं.का./ता. वृ./१६/३६/१६ एते चार्थ व्यंजनपर्यायाः । अत्र गाथा च ये द्रव्यपर्याया' गुणपर्यायाश्च भणितास्तेषु च मध्ये तिष्ठन्ति । तहि किमर्थं पृथक्कथिता इति चेदेकसमयवर्तिनोऽर्थपर्याया भण्यन्ते चिरकालस्थायिनो व्यञ्जनपर्याया भण्यन्ते इति कालकृतभेदज्ञापमार्थम् ।-प्रश्न-यह जो अर्थ व व्यंजन पर्याय कही गयी है वे इस गाथामे कथित द्रव्य व गुण पर्यायोंमे ही समाविष्ट है, फिर इन्हे पृथक क्यो कहा गया । उत्तर-अर्थ पर्याय एक समय स्थायी होती है और व्यंजन पर्याय चिरकाल स्थायी होती है, ऐसा काल कृत भेद दर्शानेके लिए ही इनका पृथक् निर्देश किया गया है। ५. सब गुण पर्याय ही हैं फिर द्रव्य पर्यायका निर्देश ६. अर्थ व व्यंजन पर्यायका स्वामित्व ज्ञा/६/१० धर्माधर्मनभ.काला अर्थपर्यायगोचरा । व्यजनाख्यस्य सबन्धौ द्वावन्यौ जीवपुगगलौ ।४०। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार पदार्थ तो अर्थ पर्याय गोचर है, और अन्य दो अर्थात जीव पुदगल व्यजन पर्यायके सम्बन्ध रूप है ।४।। प्र.सा./ता वृ/१२६/१८१/२१ धर्माधर्माकाशकालाना मुख्यवृत्त्यैकसमयवर्तिनोऽर्थ पर्याया एव जीवपुद्गलानामर्थपर्यायव्यञ्जनपर्यायाश्च । =धर्म. अधर्म, आकाश, कालको तो मुख्य वृत्तिसे एक समयवर्ती अर्थ पर्याय ही होती है, और जीव व पुद्गलमें अर्थ व व्यजन दोनो पर्याय होती है। (का अ./टो /२२०/१५४/६) । ७. व्यंजन पर्यायके अभाव होनेका नियम नहीं है ध ७/२.२.१८७/१७८/३ अभविय भावो णाम वियंजणपज्जाओ, तेणेदस्स विणासेण होदयमण्णहा दव्वत्तप्पसंगादो त्ति होदु वियंजणपज्जाओ, ण च वियजणपउजायस्स सव्वस्स विणासेण होदव्य मिदि णियमो अत्थि, एयतवादप्पसंगादो। ण च ण विणस्सदि त्ति दवं होदि उपाय-दि -भंग-संगयस्स दव्वभावग्भुवगमादो । -प्रश्न-- अभव्य भाव जीवकी व्यंजन पर्यायका नाम है, इसलिए उसका विनाश अवश्य होना चाहिए, नही तो अभव्यत्वके द्रव्यत्व होनेका प्रसग आ जायेगा। उत्तर-अभव्यत्व जीवकी व्यंजनपर्याय भले ही हो, पर सभी उयंजनपर्यायका अवश्य नाश होना चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेसे एकान्तवादका प्रसंग आ जायेगा। ऐसा भी नहीं है कि जो वस्तु विनष्ट नहीं होती वह द्रव्य ही होना चाहिए, क्योंकि जिसमें उत्पाद, धौव्य और व्यय पाये जाते है, उसे द्रव्यरूपसे स्वीकार किया गया है। ८. अर्थ व व्यंजन पर्यायोंकी स्थूलता सूक्ष्मता २. दोनोंका काल घ, १/४,१,४८/२४२-२४४/६ अत्य पज्जाओ एगादिसमयावट्ठाणो सण्णा सबंध वज्जिओ अप्पकालावट्ठाणादो अनविसोसादो वा। तत्थ जो सो जहण्णुक्सेहि अंतोमुत्तासंखेज्जलोगमैत्त कालावठाणो अणाइअणतो वा ।२४२-२४३। असुद्धो उजुसुदणओ सो चक्रनुपासियवेंजणपज्जयविसओ। तेसिं कालो जहण्णेण अंतोमुहूत्तमुक्कस्सेण छम्मासा संखेज्जा वासाणि वा। कुदो चक्रिवदियगेझवेजण-पज्जायाणामप्पहाणीभूदव्वाणमेत्तियं कालमव ठाणुवल भादो। - १. अर्थपर्याय थोडे समय तक रहनेसे अथवा प्रतिसमय विशेष होनेसे एक आदि समयतक रहनेवाली और संज्ञा-संज्ञी सम्बन्धसे रहित है। और व्यंजन पर्याय जघन्य और उत्कर्षसे क्रमश अन्तर्मुहूर्त और असख्यात लोक मात्र कालतक रहनेवाली अथवा अनादि अनन्त है। (पृ २४२-२४३) २. अशुद्ध ऋजुसुत्र नय चक्षुरिन्द्रियकी विषयभूत व्यजन पर्यायको विषय करनेवाला है। उन पर्यायोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे छह मास अथवा संरख्यातवर्ष है क्योकि चक्षुरिन्द्रियसे ग्राह्य व्यंजन पर्यायें द्रव्यकी प्रधानतासे रहित होती हुई इतने काल तक अवस्थित पायी जाती है। वसु. श्रा./२५ खणखइणो अत्थपज्जया दिट्ठा २ =अर्थपर्याय क्षण क्षणमे विनाश होनेवाली होती है। अर्थात एकसमयवर्ति होती है। (प्र.सा./ता. वृ./७/१०१/१८); (पं.का./ता.व./१६/३६/६ व १८)। २. व्यंजनपर्यायमें विलीन अर्थपर्याय प्र. सा/त प्र/४/६४/१ (द्रव्य, क्षेत्र, काल ) भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायान्तीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वष्वपि. द्रष्टुत्व प्रत्यक्षत्वात । - (द्रव्य, क्षेत्र, काल) व भावप्रच्छन्न स्थूलपर्यायों में अन्तर्लीन सूक्ष्म पर्याये है वास्तवमें वह उस अतीन्द्रिय ज्ञानके द्रष्टापन (दृष्टिगोचर) है। क्यों पं. ध./पू./१३२-१३५ ननु चैन :सति नियमादिह पर्याया' भवन्ति यावन्त' । सर्वे गुणपर्याया वाच्या न द्रव्यपर्याया केचित् ११३२॥ तन्न यतोऽस्ति विशेषः सति च गुणानां गुणत्ववत्वेऽपि । चिदचिद्यथा तथा स्याद क्रियावतो शक्तिरथ च भाववती।१३३॥ यतरे प्रदेशभागस्ततरे द्रव्यस्य पर्यया नाम्ना। यतरे च विशेषास्ततरे गुणपर्यया भवन्त्येव ।१३॥-प्रश्न-गुणोके समुदायात्मक द्रव्यके माननेपर यहाँ पर नियमसे जितनी भी पर्याय होती है, वे सब गुण पर्याय कही जानी चाहिए, किसीको भी द्रव्य पर्याय नहीं कहना चाहिए ।१३२। उत्तर-यह शंका ठीक नही है, क्योंकि सामान्यपनेसे गुणवत्वके सदृश रहते हुए भी गुणों में विशेष भेद है, जैसे-आत्माके चिदात्मक शक्ति रूप गुण और अजीव द्रव्योके अचिदात्मक शक्ति रूप गुण ऐसे तथा वैसे ही द्रव्यके क्रियावती शक्ति रूप गुण और भाववती शक्ति रूप गुण ऐसे गुणों के दो भेद हैं ।१३३। जितने द्रव्य प्रदेशरूप अंश है, वे सब नामसे द्रव्य पर्याय है और जितने गुणके अश है वे सब गुण पर्याय कहे जाते है ।१३।। भावार्थ-'अमुक द्रव्यके इतने प्रदेश है', इस कल्पनाको द्रव्यपर्याय कहते हैं। और प्रत्येक द्रव्य सम्बन्धी जो अनन्तानन्त गुण हैं। उनकी प्रतिसमय होनेवाली षट् गुणी हानि वृद्धिसे तरतमरूप अवस्थाको गुणपर्याय कहते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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