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________________ प्रत्याख्यानावरण १३३ प्रत्यासत्ति २.प्रत्याख्यातावरण में मी कथंचित् सम्यक्त्व घातक गो क./जी प्र./५४६/७०८/११ अनन्तानुबन्धिना तदुद यसहचरिताप्रत्याख्यानादीना च चारित्रमोहत्वेऽपि सम्यक्त्वसयमघातक्त्वमुक्त तेषा तदा तच्छक्तवोदयात। अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानोदयरहितप्रत्याख्यानसज्वलनोदया सकल संयम (ध्नति)। -अनंतानुबन्धीके और इसके उदयके साथ अप्रत्याख्यानादिकके चारित्र मोह-पना होते हुए भी सम्यक्त्व और सयमका घातकपना कहा है। अनतानुबन्धी और अप्रत्याख्यानके उदय रहित, प्रत्याख्यान और सज्वलनका उदय है तो वह सकल सयमको धातती है। ३. प्रत्याख्यानावरण कषायका वासना काल गो, क./मु व टी./१६/१७/१० उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो बासनाकाल सच प्रत्याख्यानावरणानामेकपक्ष । - उदयका अभाव होते हुए भी कषायोका सस्कार जितने काल रहे, उसको वासना काल कहते है। उसमे प्रत्याख्यानावरणका बासना काल एक पक्ष है। षण्मासादिरूपेण भविष्यत्काल सावधिक कृत्वा तत्र स्थूल हिसानृत- स्तयाब्रह्मपरिग्रहान्न चरिष्यामि इति प्रत्याख्यानमल्पकालम् । आमरणमवधि कृत्वा 7 करिष्यामि स्थूल हिसादीनि इति प्रत्याख्यान जीविताबधिक च। उतरगुणप्रत्याख्यान सयतसयतासयतयोरपि अल्पकालिक जीवितावधिक बा। परिगृहीतस यमस्य सामायिवादिक अनशनादिक च वर्तते इति उत्तरगुणत्वं सामायिकादेस्तपसश्च । भविष्यत्कालगोचराशनादित्यागात्मकत्वात्प्रत्याख्यानत्वं ।- १. उत्तरगुणोको कारण होनेसे व्रतो मे मूलगुण यह नाम प्रसिद्ध है, मूलगुण रूप जो प्रत्यारण्यान व मूल गुण प्रत्याख्यान है। बतोके अनतर जो पाले जाते है ऐसे अनशनादि तपोको उत्तरगुण कहते है।"२. मुनियोको मूलगुण प्रत्याख्यान आमरण रहता है। सयतासयतके अणुवतीको मूलगुण कहते है। गृहस्थ मूल गुण प्रत्यख्यान अल्पकालिक और जीवितावधिक ऐसा दो प्रकार कर सकते है। पक्ष, मास, छह महीने आदि रूपसे भविष्यत् कालकी मर्यादा करके उसमे स्थूल हिसा, असत्य, चोरी, मैथुन सेवन, और परिग्रह ऐसे पंच पातक मै नही करूँगा ऐसा सकल्प करना यह अल्पकालिक प्रत्याख्यान है। 'भै आमरण स्थूल हिसादि पापोको नही करूंगा' ऐसा सकल्प कर त्याग करना यह जीवितावधिक प्रत्याख्यान है। ३ उत्तर गुण प्रत्याख्यान तो मुनि और गृहस्थ जीबितावधिक और अल्पाधिक भी कर सकते है । जिसने सयम धारण किया है, उसको सामायिकादि और अनशनादिक भी रहते है, अत सामायिक आदिकोको और तपको उत्तरगुणपना है। भविष्यत्कालको विषय करके अनशनादिकोका त्याग किया जाता है । अत उत्तरगुण रूप प्रत्याख्यान है, ऐसा माना जाता है । (और भी दे० भ. आ./वि ११६/२७७/१८) * प्रत्याख्यान दप्रदिन.म.में अन्तर--- दे० प्रतिक्रमण/३। ४.प्रत्याख्यानका प्रयोजन अन. ध./8/३८ प्रत्यारण्यानं बिना दैवात् क्षीणायु स्याद्विराधक । तदलपकालमप्यल्पमप्यर्थ पृथुचण्डवत् ।३८। -प्रत्याख्यानादिके ग्रहण बिना यदि कदाचित् पूर्वबद्ध आयुकर्म के बशसे आयु क्षीण हो जाय तो वह साधु विराधक समझना चाहिए। किन्तु इसके विपरीत प्रत्याख्यान सहित तत्काल मरण होनेपर थोडी देरके लिए और थोड़ा सा ग्रहण किया हुआ प्रत्याख्यान चण्ड नामक चाण्डालकी तरह महान फल देनेवाला है। प्रत्याख्यानावरण-मोहनीय प्रकृतिके उत्तर भेद रूप यह एक कर्म विशेष है, जिसके उदय होनेपर जोव विषयोका त्याग करनेको समर्थ नहीं हो सक्ता । ४. अन्य सम्बन्धित विषय १ प्रत्याख्यानावरण प्रकृतिकी सन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणा तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान आदि। दे० बह वह नाम । २. कषायोकी तीव्रता-मन्दतामें प्रत्याख्यानावरण नही बल्कि लेश्या कारण है। -दे० कषाय/३ । ३ प्रत्याख्यानावरणमें दशों करण सम्भव हैं -दे० करण/२ । ४ प्रत्याख्यानावरणका सर्वधातीपना -दे० अनुभाग/४ । १. प्रत्याख्यानावरणका लक्षण स. सि./4/8/३८६/६ यदुदयाद्विरति कृत्स्ना सयमाख्या न शक्नोति तु ते कृत्स्न प्रत्याख्यानमावृण्वन्त प्रत्याख्यानावरणा क्रोधमानमायालोभा । -जिसके उदयसे सयम नामवाली परिपूर्ण विरतिको यह जीव करने में समर्थ नही होता है वे सकल प्रत्याख्यानको आवृत करने वाले प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ है। (रा वा./८/8/५/५७५/२) (पं. स./प्रा /१/११०,११५) (गा. क., म् /२८३) (गो. जी/मू/४५)। घ. १३/५.५,६५/३६०/११ पच्चक्खाण महव्वयाणि तेसिमाधारण १म्म पच्चरखाणावरणीय । तं चउबिह कोह-माण-माया-लोहभेएण। = प्रत्यारण्यानका अर्थ महावत है। उनका आवरण करनेवाला वर्म प्रत्याख्यानाबरणीय है। वह क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे चार प्रकारका है। (ध.६/१,६-१,२३/४४/४) (गो जी./जी, प्र/ २८३/६०८/१५) । (गो. क./जी. प्र./३३/२८/४) (गो 6/जो. प्र/ ४५/४६/१३। प्रत्याख्यानावरणी भाषा-दे० भाषा। प्रत्यागाल-दे० आगाल। प्रत्यामुंडा- ख. १३/५-५/सू. ३६/२४३ आवायो धवसायो बुद्धी विण्णाणी आउ डी पच्चाउंडी ३६। प्रत्यर्थमामुण्ड्यते सकोच्यते मीमा सितोऽर्थ अनयेति प्रत्यामुण्डा । - अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञाप्ति, आमुडा और प्रत्यामुडा ये पर्याय नाम है ।३६। जिसके द्वारा मौमासित अर्थ अलग अलग 'आमुड्यते' अर्थात् सकोचित किया जाता है, वह प्रत्यामुडा है। प्रत्यावलि-दे० आवलि । प्रत्यास-ध १२/४,२,१४,४३/४६७/१० प्रत्यास्यते अस्मिन्निति प्रत्यास जीवेण ओट्ठद्धखेत्तस्स खेत्तपच्चासे त्ति सण्णा । जहाँ समीपमें रहा जाता है वह प्रत्यास कहा जाता है। जीवके द्वारा अवलम्बित क्षेत्रको क्षेत्रात्यास सज्ञा है। प्रत्यासत्ति रा, वा हि./१/७/६४ निकटताका नाम प्रत्यासत्ति है। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावके भेदसे चार प्रकार है । तिनके लक्षण निम्न प्रकार है१ कोई पर्यायकै कोई पर्यायरि समवाय ते निकटता है। जैसे स्मरणके और अनुभवकै एक आत्मा विषै समवाय है (यह द्रव्य प्रत्यासत्ति है ) । २. बगुलाकी पक्तिके और जल के क्षेत्र प्रत्यासत्ति है। ३, सहचर जो सम्यग्दर्शन ज्ञान सामान्य, तथा शरीर विषै जीव ओर स्पर्शन विशेष, तथा पहले उदय होय भरणी-कृतिका नक्षत्र, तथा कृतिका-रोहिणी नक्षत्र--इनके काल प्रत्यासत्ति है। ४. गऊगवयका एक रूप, केवली-सिद्धके केवल ज्ञान का एक स्वरूपपना ऐसे भाव प्रत्यास त्ति है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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