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________________ प्रत्याख्यान परिणामे सिदं ज तु तं पुण पराभावच तु गाव | ६४ - १ सिद्ध भक्ति आदि सहित कायोत्सर्गपरूप विनय, व्यवहार विनय ज्ञान-विनय दर्शन व चारित्र विनय- इस तरह पाँच प्रकारके विनय सहित प्रत्याख्यान वह विनयकर शुद्ध होता है । ६४० | २ गुरु जैसा कहे उसी तरह प्रत्याख्यानके अक्षर, पदव व्यञ्जनोंका उच्चारण करे, वह अक्षरादि क्रमसे पढना, शुद्ध गुरु लघु आदि उच्चारण शुद्ध होना वह अनुभाषणा शुद्ध है । ६४१ । २. रोग, उपसर्गमे, भिक्षाकी प्राप्तिके अभाव मे मनमे जोपासन क्रिया भग्न न हो वह अनुपालना शुद्ध है । ६४२ । ३, राग परिणामसे अथवा द्वेष परिणामसे मनके विकारकर जो प्रत्याख्यान दूषित न हो वह प्रत्याख्यान भावविशुद्ध है। २. निक्षेप रूप भेदोंके लक्षण " १३२ " म आ / वि. / ११६/ २०६/२२ अयोग्यं नाम नोच्चारयिष्यामीति चिन्ता नामप्रत्याख्यान । आप्ताभासाना प्रतिमा न पूजयिष्यामीति, योगत्रयेण सस्थावरस्थापनापीडा न करिष्यामीति प्रणिधानं मनस. स्थापनाप्रत्याख्यानं । अथवा अर्हदादीना स्थापनां न विनशयिप्यामि नेवानावर रात्र करिष्यामीति वा अयोग्याहारोपकरणद्रव्याणि न ग्रहीष्यामीति चिन्ताप्रबन्धो द्रव्यप्रत्याख्यान । अयोग्यानि वानिष्प्रयोजनानि संयमहानि संक्लेशं वा सपादयन्ति यानि क्षेत्राणि तानि त्यक्ष्यामि इति क्षेत्रप्रत्याख्यान | कालस्य दु परिहार्यत्वात् कालसध्याया क्रियायां परिहृतायां काल एव प्रत्याख्यातो भवतीति ग्राह्य तेन संध्याकासादिष्यध्ययनगमनादिकं न सपादविष्यामीति पेठ कालप्रध्याख्यानं भावोऽशुभपरिणाम न निर्वर्तयिष्यामि इति संकल्पकरणं भावप्रत्याख्यानं तद्विविध मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरण गुणप्रत्याख्यानमिति । अयोग्य नामका मैं उच्चारण नहीं करूँगा ऐसे सकल्पको नाम प्रत्याख्यान कहते २. आभास हरिहरादिकोकी प्रतिमाओंकी ने पूजा नहीं करूँगा, मनसे, वचनसे और कायसे त्रस और स्थावर जीवोकी स्थापना मै पीडित नही करू ँगा ऐसा जो मानसिक संकल्प वह स्थापना प्रत्याख्यान है । अथवा अर्हदादि परमेष्ठियोकी स्थापनाउनकी प्रतिमाओका मै नाश नही करूँगा, अनादर नहीं करूँगा, यह भी स्थापना प्रत्याख्यान है । ३. अयोग्य आहार, उपकरण गैरह पदार्थो को ग्रहण मै न करूँगा ऐसा संकल्प करना, यह द्रव्य प्रत्याख्यान है । ४. अयोग्य व जिनसे अनिष्ट प्रयोजनकी उत्पत्ति होगी, जो सयमकी हानि करेगे अथवा संक्लेश परिणामोको उत्पन्न करेगे, ऐसे क्षेत्रोको मै त्यागू गा, ऐसा मंकल्प करना क्षेत्र प्रत्याख्यान है । ५. कालका त्याग करना शक्य ही नही है, इसलिए उस काल में होनेवाली क्रियाओको त्यागनेसे कालका ही त्याग होता है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए। अर्थात संध्याकाल रात्रिकाल वगैरह समयमें अध्ययन करना, आना-जाना इत्यादि कार्य मै नही करूँगा, ऐसा संकल्प करना काल प्रत्याख्यान है । ६. भाव अर्थात् अशुभ परिणाम उनका मै त्याग करूगा ऐसा सकल्प करना वह भाव प्रत्याख्यान है । इसके दो भेद है मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तरगुण प्रत्याख्यान । ( इनके लक्षण दे० प्रत्याख्यान / ३) । Jain Education International २. मन, वचन, काय प्रत्यारुवानके लक्षण म आ / वि / ५०६/०२० / १५ मनसातिपारादीन्न करिष्यामि इति मन प्रत्याख्यानं । वचसा तन्नाचरिष्यामि इति उच्चारणं । कायेन तन्नाचरिष्यामि इत्यंगीकार १ मनसे मै अतिचारोको भविष्यत् कालमें नही करू ँगा ऐसा विचार करना यह मन प्रत्याख्यान है । २. अतिचार मे भविष्यत् में नहीं करूंगा ऐसा बोलना ( कहना ) यह वचन प्रत्याख्यान है । ३. शरीरके द्वारा भविष्यत् कालमे अतिचार नहीं करना यह काय प्रत्याख्यान है । ३. प्रत्याख्यान निर्देश २. प्रत्याख्यान विधि न वा १. प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापना व निष्ठापना विवि अन.घ./६/३६ प्राणयात्रा चिकीर्षायां प्रत्यारम्यानमुपोषित नाप्यविधि प्रतिष्ठयेत्॥१६॥ यदि भोजन करनेकी इच्छा हो तो पूर्व दिन जो प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण किया था उसकी विधि पूर्वक क्षमापणा (निष्ठापना) करनी चाहिए । और उस निष्ठापनाके अनंतर शास्त्रोक्त विधिके अनुसार भोजन करके अपनी शक्तिके अनुसार फिर भी प्रत्याख्यान या उपवासकी प्रतिष्ठापना करनी चाहिए (यदि आचार्य पास हो तो उनके समक्ष प्रश्वाख्यानकी प्रतिपनाया निशाना करनी चाहिए।) ३० कृतिकर्म / २ / २ प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन व निष्ठापनमें भक्ति वादि पाठोका क्रम । ) २. प्रत्याख्यान प्रकरण में कायोत्सर्गके कालका प्रमाण ३० व्युत्सर्ग/ १ (अन्धादिके प्रारंभ में पूर्णकालमें स्वाध्यायमें बंधना मे, अशुभ परिणाम होनेमें जो कायोत्सर्ग उसमें सत्ताईस उच्छ्वास करने योग्य है ) । ३. प्रत्याख्यान निर्देश १. ज्ञान व विराग ही वास्तव मे प्रत्याख्यान ससा // २४ भावे जम्हा पश्चखाई परेति मा सम्हा पापा विमा मुणेयन्न ॥१४- जिससे अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थो को 'पर है' ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है, उससे प्रत्याख्यान ज्ञान ही है, ऐसा नियमसे जानना । अपने ज्ञानमें त्याग रूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है, दूसरा कुछ नही । नि.सा./ / १०५-१०६ पिसायरस तस्स सूरस्स यवसायियो । संसारभयभोदस्स पञ्चवखाणं सुह हवे | १०५ । एवं भेदभासं जो कुव्वइ जीवकम्मणो णिच्चं । पञ्चक्खाण सक्कदि धरिदे सो संजमो णियमा । १०६ । - जो नि कषाय है, दान्त है, शूरवीर है, व्यवसायी है और संसारसे भयभीत है, उसे सुखमय (निश्चय) प्रश्वाख्यान है | १०५ | इस प्रकार जो सदा जीव और कर्मके भेदका अभ्यास करता है, वह संयत नियमसे प्रत्याख्यान धारण करनेको शक्तिमान है । १०६ । स साता २०३० निर्विकारस्य संविवि प्रश्याख्यानं - निर्मिकार स्वसंवेदन ज्ञानको प्रत्याख्यान कहते है। * निश्चय व्यवहार प्रत्याख्यानकी मुख्यता गौणता -दे० चारित्र २ सम्यक्त्व रहित प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान नहीं भ.आ./वि./ ११६/२७७/१० सति सम्यक्त्वे चैतदुभयं प्रत्याख्यानं । सम्यक्त्व यदि होगा तभी यह दो तरहका (दे० अगला शीर्षक ) प्रत्याख्यान गृहस्थ व मुनिको माना जाता है । अन्यथा वह प्रत्याख्यान इस नामको नही पाता । ३. मूल व उत्तर गुण तथा साधु व गृहस्थके प्रश्याख्यानमें अन्तर कारणत्वसव्यपदेशो भ. जा./वि./११/२००२ उत्तानो तेषु वर्तसे तो सरकासभावितस्थादमानादिकं उत्तरगुण इति उच्यते । •• तत्र सयतानां जीवितावधिक मूलगुणप्रत्याख्यानं । तास पहाना अधुमतानि सगुणवतव्यपदेशमाजि भवन्ति तेषां विविध प्रत्याख्यानं अल्पकालिक, जीवितादिकं चेति । पक्षमास जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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