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________________ प्रकृति बंध 4 प्रकृति सहित बन्न योग्य है तातें पृथ्वीकाय मादरपर्याप्त सहित आप उद्योग एक प्रकृति संयुक्त छब्बीस प्रकृति रूपन्ध स्थान है, वा बादर अपकायिक पर्याप्त प्रत्येक वनस्पति पर्याव किसी कार सहित उद्योत प्रकृति संयुक्त छब्बीस प्रकृति रूप बन्ध स्थान हो है। और बेन्द्री सेन्द्री, चन्द्र, पंचेद्रिसीदन्द्रिय बसी विषे किसी एक प्रकृतिकरि सहित प्रयोत प्रकृतिसंयुक्त तीस प्रकृतिरूप बन्धस्थान सम्भव है। ९ नामकर्म • पर्या गो.क./जी. ५२०/६०६/१२ पर्याप्तम सर्ग वर्तमान सर्वप्रसस्थानराम्यां नियमावृच्छवासपरपाती बन्धयोग्य नान्येन सहित वर्तमान सर्व ही प्रस स्थावर विनिकर सहित घात बन्धयोग्य है अन्य सहित नहीं । बास पर १०. विहायोगति नामकर्म गोक / जी, प्र / ५२८/६८५/१९ सपर्याप्तबन्धेनैव सुस्वर दुस्वरयो प्रशस्त विहायोगरयोश्चैकतर बन्धयोग्यं नान्येन । त्रस पर्याप्त सहित ही सुस्वर दुस्वर दिएका वा प्रशस्त अप्रास्तविहायोगदिनिषे एकका बन्ध योग्य है अन्य सहित नहीं । ( देवगति के साथ अशुभ प्रकृति नहीं मंती (५.८/१.१२.१०/१२४/४) १२ सुख-दुस्वर, दुभंग-सुभग, आदेय अनादेय घ. ६/१६-२६/११/१ दुभग दुस्सर अगावे व विवादो सकिले काले वि बज्झमाणेण तित्ययरेण सह किण्ण बंधो। ण तेसिं बंधा तिथयरबधेण सम्मत्तेण य सह विरोहादो । संकिलेसकाले वि सुभग सुस्सर आदेज्जाणं चैव बधुवलभा । = सक्लेश काल में भी धनेवाले तीर्थंकर नामकर्म के साथ बबन्धी होने पर भी ) दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इन प्रकृतियोका बन्ध नहीं होता है. क्योंकि उन प्रकृतियोंके बन्धका तीर्थकर प्रकृतिके साथ और सम्यदर्शन के साथ विरोध है । संक्लेश-कालमें भी सुभग- दुस्वर और आदेय कृतियोका ही बन्ध पाया जाता है । ध. ६/१,६-२,६८/१२४/४ का भावार्थ - ( देवगति के साथ अप्रशस्त प्रकृतियों का बन्ध नही होता है । ) मोक / जो / ५२८/६८५/१२ सपर्याप्तेनेव सुस्वर- दु. स्वरयो... एकतर बंधयोग्यं नान्येन स पर्याप्त सहित ही स्मर-दुस्वर विधै एकका बन्ध योग्य है अन्य सहित नहीं । १२. पर्याप्त अपर्याप्त नामकर्म । गो. का. ज. प्र. ०४/०१० / २ एकेन्द्रियार्यास्पद बनारकेभ्योऽन्ये सस्थावरमनुष्य मिध्यादृश्य एवं बध्नन्ति एकेन्द्रिय अध : अपर्याप्त सहित है ताते इस स्थानको देव नारकी बिना अन्य त्रस स्थावर तिर्यंच या मनुष्य मिथ्यादृष्टि ही बाँधे है । १२. स्थिर अस्थिर नामकर्म घ ६ / १०६-२,६३ / ९२२/४ संकिलेसद्धाए बज्झमाण अप्पज्जत्तेण सह विरादी विसोहिपाटी संघविरोहा। ध ६ / १,६ - २६३/१२४/४ एथ अत्थिरादीनं किण्ण बंधो होदि । ण एदासि विसोहीए बंधविरोहा । - संक्लेशकाल में बँधनेवाले अपर्याप्त नामकर्म के साथ स्थिर आदि विशुद्धि कालमे मँघनेवाली शुभ प्रकृति मन्यका विराध है। २ इन अस्थिर आदि अशुभ प्रकृतियोंका (देवगति रूप) विशुद्धिके साथ धनेका विरोध है। १४. यशः अवश नामकर्म घ. ६/१६-२०६८/१२४/४ का भावार्थ ( देवगतिके साथ कृतियो के बँधनेका विरोध है ।) Jain Education International अप्रशस्त ९६ ६. प्रकृति बन्धके नियम सम्बन्धी शंकाएं [घ] ८/३६/२०/० जसकिति पुण निरयगई मोतृण तिगत बंधदि । - यशःकीर्तिको नरकगतिको छोर तीन गरियोसे संयुक्त है। ६. प्रकृति बन्धकी नियम सम्बन्धी शंकाएँ १. प्रकृति बन्धकी व्युच्छित्तिका निश्चित कम क्यों ध. ६/१,१-३,२/१३६/७ कुदो एस बंधवोच्छेदकमो । असुह- असुहयरअहतमभेण पमडीणमवाणशे प्रश्न- यह प्रकृतियो के मन्धव्युच्छेदका क्रम किस कारण से है उत्तर अशुभ, अशुभतर और अशुभतमके भेदसे प्रकृतियोंका अवस्थान माना गया है। उसी अपेक्षासे यह प्रकृतियोंके बन्ध व्युच्छेदका क्रम है । २. तिर्यगाति द्विकके निरन्तर बम्ध सम्बन्धी F घ. ८/३३/३,८/३३/७ होदु सांतरबंधो पडिवक्त्रपयडीणं बंधुवल भादो; मणिरतरमधो, तरस कारणावभादो ति बुझे रुपये एस दोस्रो, तेस्काइयावाकाइयमिच्छाइट्ठीय समविशेरह मिच्छाइट्ठी च भयपद्धिसंकिलेसेण निरंतरं धोवभादो। प्रश्न- प्रतिपक्षभूत प्रकृतियोंके बन्धकी उपलब्धि होनेसे ( तिर्यग्गति व तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपर्वी प्रकृतियोका) सान्तर बन्ध भले ही हो, किन्तु निरन्तर बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि उसके कारणोका अभाव है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, तेजकायिक और पामुकाविक मिध्यादृष्टियों तथा सप्तम पृथिवीके नारकी मिथ्यादृष्टियोके भवसे सम्बद्ध संक्लेश के कारण उक्त दोनों प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । ३. पंचेन्द्रिय जाति औदारिक शरीरादिके निरन्तर बन्ध सम्बन्धी ध. / ३.३२४ / ३११ / १ चिदिजादि ओरातियसरी अंगो पर वादसास-स-मादरपणात पसे यसरीराणं मिच्याइ ठिम्हि सांतर निरंतरी, सणक्कुमारादिदेवणेरइए निरंतरबंधुवलं भादो । विग्गहगदी कधं निरंतरदा । ण, सत्ति पडुच्च निरंतरत्तु वदेसादो । -पंचेन्द्रिय जाति औदारिक वारीसंगोपांग परमात, मास. समावर पर्याप्त और प्रत्येक शरीरका मिध्यादृष्टि गुणस्थान में सान्तर - निरन्तर बन्द होता है, क्योंकि, सनत्कुमारादि देव और नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। प्रश्न--विग्रहगतिमें बन्धकी निरन्तरता कैसे सम्भव है उत्तर-नहीं, क्योकि वाणिकी अपेक्षा उसको निरन्तरताका उपदेश है। ४. तिर्यग्गतिके साथ लाताके बन्ध सम्बन्धी ध. ८/३, १३ / ४० / १ अप्पसत्थाए तिरिक्खगईए सह कधं सादबंधो। ण, णिरयगई व अच्चतिय अप्पसत्यत्ताभावादो । = प्रश्न - अप्रशस्त तिर्यग्गति के साथ कैसे साता वेदनीयका बन्ध होना सम्भव है । उत्तर- नहीं, क्योंकि तिर्यग्गति नरकगतिके समान अत्यन्त अप्रशस्त नहीं है। ५. हास्यादि चारों उत्कृष्ट संगलेशमें क्यों न बँधे क. पा. ३/३,२२/११८/ ७ एदाणि चत्तारि वि कम्माणि उक्कस्ससंकिलेसेण किरण बज्मंति। ण, साहावियादो। ! प्रश्न--ये स्त्रीवेद आदि (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रति) चारों कर्म उत्कृष्ट संपलेसे नहीं बँधते है उत्तर नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट संश्लेशसे नहीं बँधनेका इनका स्वभाव है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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