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________________ प्रकृति बंध कर्म उत्कृष्ट सक्लेशसे क्यो नहीं बँधते ? उत्तर—नही, क्योकि उत्कृष्ट सक्लेश से नहीं बँधने का इनका स्वभाव है । क. पा. ३/३.२२/९४८०/२० उस ठिदिवसका वाली किरण बज्झति । अश्वसुहत्ताभावादी साहावियादो वा । प्रश्न - उत्कृष्ट स्थितिके बन्धकालमे ये चारो (क. पा. ३/३,२२/ चूर्ण सूत्र / १४८५/२७०) स्त्रोवेद पुरुषवेद, हास्य और रति) प्रकृतियों क्यों नही बचती है। उत्तर- १. क्योकि यह प्रकृतियाँ अत्यन्त अशुभ नही है इसलिए उस काल में इनका बन्ध नही होता । २. अथवा उस समय न बँधनेका इनका स्वभाव है। ७. नामकर्मकी प्रकृतियोंके बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम १. गति नामकर्म घ. ८/३.८/३३/८ तेउन काइया वाउक्काइयमिच्छाहट्टीणं सत्तमपुढविणेर'इयमिच्छाइट्ठीण च भवपडिबद्धसकिलेसेण निरंतर बंधोवलं भादो । .. सलमढविलासमाग तिरिक्समगई मोतृणमाभावादी घ. ८/३.१८/४०/४ आगदादिदेने पिरसरमधे सह अग्नत्य सारमधूमल भादो। प. ८/२.१४०/२०८/१० अपव्यत्तद्वार तासि बंधाभावादशे से जसकायिक और मायुकायिक मिध्यादृहियो तथा सप्तम पृथिवी के नारकी मिध्यादृष्टियों के भवसे सम्बन्ध सक्लेशके कारण उक्त दोनों (तिर्यद्वय) प्रकृतियोका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। सप्तम पृथ्वी के सासादन सम्यग्दृष्टियोंके तिर्यग्गतिको छोड़कर अन्य गतियोका बन्ध नहीं होता / १३/-) आनतादि देवोगे ( मनुष्यद्विकको ) निरन्तर बन्धको प्राप्तकर अन्यत्र सान्तर बन्ध पाया जाता है /४७/४) अपर्याप्त कालमें उनका ( देव व नरक गतिका) बन्ध नहीं होता । ( गो . क./ जी. प्र / ५४६ / ७०८ / १ ) 1 ध. ६/११-२६२/१०३ /२ णिरमईए सह जासिमनकमेम उदओ बरिय ताओ णिरयगईए सह बधमागच्छति त्ति केई भणति, तण्ण घडदे | - कितने ही आचार्य यह कहते है कि नरकगति नामक नामकर्मकी प्रकृति के साथ जिन प्रकृतियोंका युगपत उदय होता है, वे प्रकृतियाँ नरकगति नामकर्म के साथ बन्धको प्राप्त होती हैं। किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता । । गो. क / जो प्र. / ७४५/०६६/२ अटाविंशतिकं नरदेवगतियुतत्वादसंज्ञि शितिर्यक् कर्मभूमि मनुष्या एव विग्रहगतिशरोर मिश्रकालावतीत्य शरीरकाले एव मध्नन्ति अठाईसका बन्ध नरक-देवगति युत है । इसलिए असज्ञी सज्ञो तियंच वा मनुष्य है, ते विग्रहगति मिश्रशरीरको उल्ल घकर पर्याप्त काल में बाँधता है। २. जाति नामकर्म मो. जी. प्र. ७४३/११/१ देवेषु भवनश्यतौचानामेवै केन्द्रियपर्यातमेव व २५ एवं भवनत्रिक सौधर्म ठिक देवनिक एकेन्द्रिय पर्याप्त युत ही पचीसका बन्ध है । ३. शरीर नामकर्म ९५ घ. ८/२.३०/०२/१० अपुष्यस्तुवरिमसमभागे किरण बंधो। न गो.क./ /५२५/०४/३ आहारकद्वयं देवगत्येवमनन्ति । कुद्धः । समन्धस्थानमितराभिर्गतिभिर्न मन्नातीति कारणाय । गो/जी/४६/०९/१ नात्र देवगस्याहारकद्वय अप्रमत्ताकरण योरेव समन्धसंभवात् । - अपूर्व करण के उपरिम सप्तम भागमें इन (आहारक द्विक) का बन्ध नहीं होता . ) आहारक द्विक देवगति सहित ही मान्धे जातै सयतके योग्य जो बन्धस्थान सो देवगति बिना अभ्यगति सहित बान्धे नाहीं (यो क./५२५)। देवगति बहारक कि सहित स्थान न संभव है जातें इसका मन्ध अप्रमत्त अपूर्वकरण मिये ही सम्भने है। Jain Education International ५. प्रकृति बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम ४. अंगोपांग नामकर्म ध. ६/१,६-२,७६/११२ एइंदियाणमंगोवंगं किण्ण परूविदं । ण । गो.क.जी. प्र./२२८/६०६ / ११९ प्रसापर्यासपर्यायन्यतरभयेनैव पदसंहननानां प्रयोपाङ्गानां चैक्टर बन्धयोग्यं नान्येन ।-१, एकेन्द्रिय जीवों के अगोपांग नहीं होते। २. इस पर्याप्त ना अपर्याप्तनि विधे एक किसी प्रकृति सहित छह संहनन, तीन अंगोमाग एकएक बंध ही है। ५. सस्थान नामकर्म घ. ६/११-२.१८/२०१७ निगलिदिया मधोउदो विठा मेवेति । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only t घ. ६/११-२००६/१९२/८ ए दिया संठामाणि किम पविदामि। ण पञ्चवयव परूविदलक्खणपं चसं ठाणाणं समूहसरुवाणं छ संठाणस्थितविरोहा । - १. विकलेन्द्रिय जीवोके हुंडक सस्थान इस एक प्रकृतिका ही बन्ध और उदय होता है । ( भावार्थ - तथापि सम्भव अवयवोकी अपेक्षा अन्य भी संस्थान हो सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक aaraमें भिन्न-भिन्न सस्थानका प्रतिनियत स्वरूप माना गया है । किन्तु आज यह उपदेश प्राप्त नही है कि उनके किस अवयबमें कौनसा संस्थान किस आकार रूपसे होता है । (ध. ६/१,६-२१/८/ २०१८ भावार्थ ) २. एकेन्द्रिय जीवोंके यहाँ संस्थान नहीं बतलाये क्योंकि प्रत्येक अवयव में प्ररूपित लक्षणवाले पाँच संस्थानोंको समूहस्वरूपसे धारण करनेवाले एकेन्द्रियोंके पृथक् पृथक् छह संस्थानोंके अस्तित्वका विरोध है । ( अर्थात् एकेन्द्रिय जीवोंके केवल हुडकसंस्थान ही होता है। ) ६. संहनन नामकर्म प. ६/१६-२.६६/९२३/० देवगदी सह संवाणि किरण मति । ण. 1 प्र. गो. क/जी. १/५२०/६०५/१० सापर्याप्त्रपष्टियोरन्यतरमन्धेने व पट्संहनाना चैकतर वग्धयोग्यदेवगति के साथ हो संहनन नहीं बंधते २. सपना अपने एक किसी प्रकृति सहित छह संहनन में से... एकका बन्ध होता है । ७. उपघात व परघात नानकर्म गो.क./जी. २०१६६६/१२ पर्याप्तनेय समं वर्तमानस सस्थानराम्य नियमादुच्छ् वासपरघातौ बन्धयोग्यौ नान्येन । पर्याप्तके साथ वर्तमान सब हो स स्थावर तिनिकर सहित उच्छ्वास परघात बन्ध योग्य है, अन्य सहित नही । ८. आतप उद्योत नामकर्म घ. ६/१,६-२,१०२/१२६ / १ देवगदीए सह उज्जोवस्स किण्ण बंधो होदि । ण । = देवगतिके साथ उद्योत प्रकृतिका बन्ध नहीं होता । गो.क./टी./२२४/६५३ भूमादरपज्जसे मादान मंजोग । उतिगुणतिरिक्त पसत्याणं एयदरणेण । ५२४ पृथ्वी काय बादरपर्याप्तेनातप बन्धयोग्यो नान्येन । उद्योतस्तेजोवातसाधारणवनस्पतिसबन्धिवाद र सूक्ष्माण्यन्यसमन्धिसूक्ष्माणि च अप्रशस्तत्वात् त्यक्त्वा शेषतिर्यक् संबन्धिवादरपर्याप्तादिप्रशस्तानामन्यतरेण बन्धयोग्य उत' पृथ्वी कायमादरपर्याप्तना सपोथोसाम्यतर, भादराकाय पर्या प्रत्येकमनस्पतिपययोरन्यतरेणोत च पदािसिकं, इन्द्रियत्रन्द्रियचतुरिन्द्रियासं पिचेन्द्रियसंचेिन्द्रियकर्मान्यसरेणीतं त्रिशरकं च भवति। पृथ्वीका भारत सहित ही आप प्रकृति बन्धयोग्य है अन्य सहित मन्ये नाहीं बहुरि उद्योत प्रकृति है सो तेज वायु साधारण वनस्पति सम्बन्धी बादर सूक्ष्म अन्य सबन्धी सूक्ष्म ये अप्रशस्त हैं तातें इन बिना अवशेष तिच सम्बन्धी बादर पर्याप्त आदि प्रशस्त प्रकृतिनिधि किसी www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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