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________________ प्रकृति बंध ७. प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाएँ १. सारणी में प्रयुक्त संकेतोंका परिचय मिथ्या० सम्य० मिश्र० अनन्तानु० अप्र० प्र० सं० नपु० पृ० हा० चतु० तिर्य० मनु० नरक, तिर्य०, मनु० देव द्वि० २. बन्ध म्युच्छित्ति ओघ प्ररूपणा गुण स्थान मिथ्यात्व सासादन मिश्र असंयत संयतासंयत प्रमत्त अप्रमत्त अपूर्व ० / १ अपूर्व ० / २-५ अपूर्व ०/६ अपूर्व ० /७ • मिथ्यात्व सम्यक्त्वमोहनीय मिश्र मोहनीय अनन्तानुमन्धी चतुष्क अप्रत्याख्यान चतुष्क प्रत्याख्यान चतुष्क संज्वतन नपुंसक वेद पुरुष बेद हास्य, रति, जरति शोक तियंच मनुष्य Jain Education International 49 व्युच्छित्तिको प्रकृतियाँ देवायु निद्रा, प्रचला भा० ३-१३ अप्रत्याख्यान ४ बज्रऋषभ नाराच, औ० द्विक, ९७ • नरक, तिर्य०, मनु, देव, त्रिक० 17 चतु० १. कुल बन्ध योग्य प्रकृतियाँ संघात दृष्टि नं ० १ वर्णादिक ४ की २० उत्तर प्रकृतियोंमें से एक समयमें अन्यतम चारका हो बन्ध होता है । तातै १६का ग्रहण नाहीं । बन्धन, की १० प्रकृतियोंका स्वस्व शरीरमें अन्तर्भाव हो जानेसे इन १० का भी ग्रहण नाहीं । सम्यक्व व मिश्र मोहनीय उदय योग्य है परबन्ध योग्य नहीं, मिथ्यात्वके ही तीन टुकडे हो जानेसे इनका सत्व हो जाता है । तातें कुल बन्ध योग्य प्रकृतियाँ १४८-(१६+१०+२ ) == १२० । देखो ( प्रकृति बन्ध ) । दृष्टि नं०२ (पं/सं/२) १४८ प्रकृतियाँ ही अपने-अपने निमित्त को पाकर मन्त्र और उदयको प्राप्त होती है। प्रत्याख्यान ४ अस्थिर, अशुभ, अयश कीर्ति, आसाता, अरति, शोक 21 आनु० औ० वै० आ० औ०, बै० आ० द्विक " चतु० मिथ्याध्य, नपुं०, इंटक, पाटिका, १४ इन्द्रिय, स्थावर आप सूक्ष्म अपर्याप्त, साधारण, नरक त्रिक = १६ अनन्तानु० चतु०, स्थान० त्रिक०, दुर्भग, दुस्बर, अनादेय, न्य० परि०, स्वाति, कुब्ज, वामन, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलित, प्रशस्त विहायो० स्त्री० तिर्यकत्रिक, उद्योत, नीचगोत्र-२५ तीर्थ ० ८/०१-३८/३०-०३) (म. नं. १/३ १६-२६/२२-४९); ( सं . २/१-२६ ४/३००-३२२.५/४००-४८१) (रा. मा./१/१/२५-२६/६१०-५६१); (गौ. क./६६५-१०२/०२-८६ ) /सं. २/११-३६: ४ / ११४ ) | भु० म० वै क्रि० घटक मनुष्य त्रिक = १० turr तीर्थंकर, निर्माण, शुभ विहायो० पंचेन्द्रिय तेजस, कार्माण, आ० डि. क्रि० द्वि०, समचतु०, देव द्वि०, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय । हास्य, रति, भय, जुगुप्सा । .३० - ४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only ७. प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाएँ यह वह गति, अनूपूर्वी वायु वह वह गति, आनुपूर्वी, यथायोग्य शरीर व अंगोपांग आनुपूर्वीय औदारिक वैकिसक तीर्थ ० ० द्वि०-३ आहारक वह वह शरीर व अंगोपांग दशरीर, अंगोपांग, नन्धन व संघात तीर्थंकर देव व मनुष्यायु भुज्यमान आयु बध्यमान आयु गरक गति व जानुपूर्वी देवगति आनुपूर्वी वैक्रिक शरीर व अंगोपांग अबन्ध पुन बन्ध प्रकृतियाँ प्रकृतियाँ कुलबन्ध योग्य अबन्ध पुन बन्ध | १२० ३ १०१ | देव व मनु० | ७४ तीर्थंकर आहारकदिक ५७ ५८ 娃 २६ Bak १०१ २५७६ ७४ | ७४ ७७ १०६७ ६७ ४ ६३ 썅 छ | शेष बन्ध योग्य ५६ | ५८ ५६ Dones or or ५७ ५६ ५६ ५६ ३० २६ २६ ४ २२ www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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