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________________ निविचिकित्सा ३. भाव निर्विचिकित्साका लक्षण १. परीषहोंने ठानि न करना मु. आ./२४२ सुहादिए मानविदिगिका धादि २२ परीषहोंने संक्लेश परिणाम करना भावविचिकित्सा है। उसका न होना सो निसा गुण है - पु. सि. उ. ); (पु. सि. उ. / २५) । २. असत् व दूषित संकल्प विकल्पोंका निरास रा. वा./६/२४/९/२२६/१० शरीराचसु विस्वभावमवगम्य सुचीति मिथ्यासंकल्पापनयः, प्रवचने या स्वमयुक्तं घोर कष्टं न चेदिदं सर्वमुपपन्नमित्यशुभभावनाविरहः निर्विचिकित्सता । - शरीरको अत्यन्त अशुचि मानकर उसमें शुचिवके मिथ्या संकल्पको छोड़ देना, अथवा अर्हन्तके द्वारा उपदिष्ट प्रबचनमें यह अयुक्त है, घोर कष्ट है, यह सम नहीं बनता' आदि प्रकारकी अशुभ भावनाओंसे चित विचिकित्सा नहीं करना अर्थाद ऐसे भावों का गिरह निर्विचिकित्सा है (म. पू./१३/३९५-३१६) (पा, सा./२/ द्र.सं./टी./४१/१७२/११ यत्पुनर्जेनसमये सर्व समीचीनं परं किन्तु वस्त्रावरणं जलस्नानादिकं च न कुर्वन्ति देन वृषणमिवादि कुत्सितभावस्य विशिष्टविवेकमसेन परिहरण सा निर्विचिकित्सा भण्यते । 'जैनमत सम अच्छी बातें हैं, परन्तु वस्त्र के आवरण से रहितता अर्थात् नग्नपना और जलस्नान आदिका न करना यही एक दूषण है' इत्यादि बुरे भावोंको विशेष इनके मसरी दूर करना, वह निर्विचिकित्सा कहलाती है। ३. ऊँच-नीच के अथवा मशंसा निन्दा आदिके भावका निरास पं. ध. /उ./५७८-५८४ आत्मन्यात्मगुणोत्कर्ष बुद्धयां स्वात्मप्रशंसनात् । परत्राप्यपकर्षेषु बुद्धिर्विचिकित्सता स्मृता ॥ ५७८ ॥ नैतत्तन्मनस्यज्ञानमस्म्यहं संपद पदम्। नासावस्मत्समो दोनो दराको विपद पद ॥८१॥ प्रत्युत ज्ञानमेतत्तत्र कर्मविपाकः प्राणिनः सदृशाः सर्वे सस्थावर योनयः ॥ ८-अपने अपनी प्रशंसा द्वारा अपने गुणकी उत्कर्षता के साथ-साथ जो अन्य गुणोंके अपकर्ष में बुद्धि होती है उसको विचिकित्सा कहते हैं। ऐसी बुद्धि न होता सोनि चिकित्सा है। सम्यग्दृष्टि मनमें यह अज्ञान नहीं होता है कि मैं सम्पत्तियोंका आस्पद हूँ और यह दीन ग़रीब विपत्तियोंका आस्पद है. इसलिए हमारे समान नहीं है |१| बल्कि उस निर्विचिकित्सके तो ऐसा ज्ञान होता है कि कर्मोंके उदयसे उत्पन्न त्रस और स्थावर यो निवाले सर्व जीव सदृश हैं । ५८२ | (ला. सं./४/१००-१०५) । ४. निश्चय निर्विचिकिल्ला निर्देश प्र.सं./टी./४९/९०३/२ नियमेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिविचिकित्सागुणस्य महेन समस्तद्वेगादिविकल्परूपकवतोमासायागेन निर्मलासमानुभूतिलक्षणे निजशुद्धात्मनि व्यवस्थान निर्विचिकित्सा गुण इति निश्चयसे तो इसी (पूर्वो) निर्विचिकित्सा गुणके बलसे जो समस्त राग-द्वेष आदि विकल्परूप तरंगों का त्याग करके निर्मल आत्मानुभव लक्षण निज सुद्धात्मामें स्थिति करना निर्मिचिकित्सा गुण है। निशुंभ विचिकित्सा या जुगुप्साको यदि अतिचार कहोगे तो मिध्यान असंयम यादों को जुगुप्सा होती है, उसे भी सम्यग्दर्शनका अतिचार मानना पड़ेगा। उत्तर-यहाँपर जुगुप्साका विषय नियत समझना चाहिए। रत्नत्रयमेंसे किसी एकमें अथवा रत्नत्रयाराधकों में कोपादि न जुगुप्सा होना ही सम्यग्दर्शन का अतिचार है क्योंकि, इसके वशीभूत मनुष्य अन्य सम्यग्दृष्टि जीवके ज्ञान, दर्शन व आचरणका तिरस्कार करता है । तथा निरतिचार सम्यग्दृष्टिका तिरस्कार करता है । अतः ऐसी जुगुप्सासे रत्नत्रयके माहात्म्यमें अरुचि होनेसे इसको अतिचार समझना चाहिए। ( अन ध/२/७१/२०७) । निर्विष ऋद्धि - दे० ऋद्धि / ७ । निर्वृत्ति-स.सि./२/१७/९०६६४ नियते इति निवृतिः । रचना का नाम निवृत्ति है। Jain Education International ६२७ रा.वा./२/१०/२/१३०/० कर्मणा या निर्वते निष्णायते सा निवृतिरित्युपदिश्यते नामकर्मसे जिसकी रचना हो उसे (इन्द्रियको ) निति कहते हैं। -दे० इन्द्रिय / १ । ★ पर्यात अपर्याप्त निर्वृति३० पर्या४/१। निर्वृति अक्षर दे० बार । निर्वृति इंद्रियनिर्वृति विद्यादे०विद्या । निर्वृत् कर्म दे० कर्ता/ निर्वेगनी कथा दे० कथा | निर्वेचनी कथा कथा निर्वेद - पं. ध. /उ. /४४२-४४३ संवेगो विधिरूपः स्यान्निर्वेदश्च (स्तु) निषेधनात् । स्याद्विवक्षावशाद्द्वैतं नार्थादर्थान्तरं तयोः ॥ ४४२ | स्यागः सर्वाभिलाषस्य निर्वेदो लक्षणात्तथा। स संवेगोऽथमा धर्मः साभिलाषन धर्मा ४४३ संवेग विधिरूप होता है और निषेधको विषय करनेके कारण निर्वेद निषेधात्मक होता है । उन सवेगन निर्वेद विवक्षा यश ही भेद है, वास्तव में कोई भेद नहीं है । ४४२ | सब अभिलाषाओंका रयाग निर्वेद कहलाता है और धर्म तथा धर्मके फलमें अनुराग होना संवेग कहलाता है। वह संवेग भी सर्व अभिलाषाओंके व्यागरूप पड़ता है; क्योंकि, सम्यग्दृष्टि अभिलाषावान् नहीं होता | ४४३ | निलय - एक ग्रह-दे० ग्रह | निवृत्ति-सा / ../१०६/२८८/११ महिरविषयवायादीहागतचित्तस्य निवर्तनं निवृत्तिः । बहिरंग विषय कषाय आदि रूप अभिलाषाको प्राप्त चित्तका त्याग करना अर्थात् अभिलाषाओंका त्याग करना निवृत्ति है । * प्रवृत्ति में भी निवृत्तिका अंश * प्रवृति व निवृत्तिसे अतीत०] संवर/२ । तीसरी भूमिका ही श्रेय है-दे० धर्म/३/२। निशि भोजन कथाभारामत (१० १०५६) द्वारा हिन्दी भाषा में रचित कथा ! निशि भोजन त्याग रात्रिभोजन त्याग निशुंभ-म. पु. / अधि. /श्लोक - दूरवर्ती पूर्व भव में राजसिंह नामका बड़ा मल्ल था । (६१/५६-६० ) । अपर नाम मधुक्रीड़ था। पूर्व भवमें पुण्डरीक नामक नारायण के जीवका शत्रु था । (४/१८० ) । वर्तमान अनमें पाँचों प्रतिनारायण हुआ देशका पुरुष / ५। ५. इसे सम्यक्त्वका अतिचार कहनेका कारण भ. जा./वि./४४/१४४ / १ विचिकित्सा जुगुप्सा मिथ्यात्वा संयमादिषु जुगुप्सायाः प्रवृत्तिरतिचारः स्यादिति चेत इहापि नियतनिधया जुगुप्सेति मतातिचारत्वेन । रत्नत्रयाणामन्यतमे तद्वति वा कोपादिनिमित्ता जुगुप्सा हह गृहोता ततस्तस्य दर्शनं ज्ञानं चरणं बाझोमममिति । यस्य हि एवं भ इति पद्धानं स तस्य जुगुप्स करोति । ततो रमत्रयमाहारम्यारुचिर्युज्यते अतिचारः 1 प्रश्न जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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