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________________ निश्चय ६२८ निषेक सा पसल ४३३२६/१ अहंदादिकारते हैं (भ. ओ निषिधीयोगिक निश्चय-प्र. सा./ता-वृ./६३/११८/३१ परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः। = परमार्थ का विशेष रूपसे तथा संशयादि रहित अवधारण निश्चय है। द्र. सं./टी./४१/१६४/११ श्रद्धानं रुचिनिश्चय इदमेवेत्थमेवेति निश्चय बुद्धिः सम्यग्दर्शनम् । श्रद्धान, रुचि, निश्चय अर्थात् यह इस प्रकार ही है ऐसी निश्चय बुद्धि सम्यग्दर्शन है। निश्चय नथ-१. सर्व नयोंके मूल निश्चय व्यवहार-(दे० नय] I/१) २. निश्चय व्यवहार नय-दे० नय/V) निश्चयावलंबी-दे० साधु।३ । निश्चल-एक ग्रह- दे० ग्रह । निश्चित विपक्ष वृत्ति-दे० व्यभिचार । निषद्यका-दे० समाचार। निषद्या - दे० निषिद्धिका । निषद्या क्रिया-दे० संस्कार/२ । निषद्या परीषहस. सि./६//४२३/७ स्मशानोद्यानशून्यायतनगिरिगुहागहरादिष्वनभ्यस्तपूर्वेषु निवसत आदित्यप्रकाशस्वेन्द्रियज्ञानपरीक्षितप्रदेशे कृतनियमक्रियस्य निषद्या नियमितकालामास्थितवतः सिंहव्याधादिविविधभीषणध्वनिश्रवणानिवृत्तभयस्य चतुर्विधोपसर्गसहनादप्रच्युतमोक्षमार्गस्य वीरासनोत्कुटिकाद्यासनादविचलितविग्रहस्य तत्कृतबाधासहन निषद्या परिषहविजय इति निश्चीयते। जिनमें पहले रहनेका अभ्यास नहीं किया है ऐसे श्मशान, उद्यान, शून्यधर, गिरिगुफा और गह्वर आदिमें जो निवास करता है, आदित्यके प्रकाश और स्वेन्द्रिय ज्ञानसे परीक्षित प्रदेशमें जिसने नियम क्रिया की है, जो नियत काल निषद्या लगाकर बैठता है, सिंह और व्याघ्र आदिकी नाना प्रकारकी भीषण ध्वनिके सुननेसे जिसे किसी प्रकारका भय नहीं होता, चार प्रकारके उपसर्गके सहन करनेसे जो मोक्षमार्गसे च्युत नहीं हुआ है, तथा वीरासन और उत्कटिका आदि आसनके लगानेसे जिसका शरीर चलायमान नहीं हुआ है, उसके निषद्या कृत बाधाका सहन करना निषद्या परीषहजय निश्चित होता है। (रा. वा./६/४/१२/६१०/२२ ); (चा. सा./११८/३)। निषध-रा, वा./३/११/५-६/१८३/८-यस्मिन् देवा देव्यश्च क्रीडार्थ निषीधन्ति स निषधः, पृथोदरादिपाठात् सिद्ध । अन्यत्रापि तत्तुल्यकारणत्वात्तत्प्रसङ्गः इति चेन्न; रूढिविशेषबललाभात । क्व पुनरसौ। हरिविदेयोमर्यादाहेतुः । =जिसपर देव और देवियाँ क्रीडा करें वह निषध है। क्योंकि यह संज्ञा रूढ है, इसलिए अन्य ऐसे देवक्रोडाकी तुल्यता रखनेवाले स्थानोंमें नहीं जाती है। यह वर्षधर पर्वत हरि और विदेहक्षेत्रकी सीमापर है। विशेष-दे० लोक/३/३।। ज. दी. प./प्र./१४१ A.N. U.P. A H.L. Jain इस पर्वतसे हिन्द्रकुश शृखलाका तात्पर्य है। हिन्दूकुशका विस्तार वर्तमान भूगोलके अनुसार पामीर प्रदेशसे, जहाँसे इसका मूल है, काबुलके पश्चिममें कोहेबाबा तक माना जाता है। "कोहे-बाबा और बन्दे-बाबाकी परम्पराने पहातोको उस ऊँची शृखलाको हेरात तक पहुंचा दिया है। पामीरसे हेरा तक मानो एक ही शृखला है।" अपने प्रारम्भसे ही यह दक्षिण को दाबे हुए पश्चिमकी ओर बढ़ता है। यही पहाड़ ग्रीकोंका परोपानिसस है। और इसका पार्श्ववर्ती प्रदेश काबुल उनका परोपानिसदाय है। ये दोनों ही शब्द स्पष्टतः 'पर्वत निषध' के ग्रीक रूप हैं, जैसा कि जायसवालने प्रतिपादित किया है । "गिर निसा (गिरि निसा) भी गिरि निषधका ही रूप है। इसमें गिरि शब्द एक अर्थ रखता है। वायु पुराण/४६/१३२ में पहाड़ीकी शृखलाको पर्वत और एक पहाड़ीको गिरि कहा गया है-"अपवर्णास्तु गिरयः पर्वभिः पर्वता' स्मृताः।" निषधकूट-निषध पर्वतका एक कूट तथा सुमेरु पर्वतके सौमनस व __ नन्दनवन में स्थित एक कूट-दे० लोक/५/४ ५। निषध देव-निषध पर्वतके निषधकूटकार क्षक देव-दे० लोक/७ । निषध हद-देवकुरुके १० हृदोंमेसे एक-दे० लोक/VE निषाद-एक स्वरका नाम-दे० स्वर । निषिक्त-ध.१४/५६.२४६/३३२/8 पढमसमए पदेसरगं णिसित्तं पढमसमयबद्धपदेसग्गं त्ति भणिदं होदि । प्रथम समयमें प्रदेशान निषिक्त किया है। अर्थात प्रथमसमय जो प्रदेशाग्र बाँधा गया है, यह तात्पर्य है। निषिद्धिका-श्रतज्ञानमें अंगबाह्यका १४वाँ विकल्प-दे० श्रुत ज्ञान/III) निषीधिकाभ. आ./मु./१९६७-१९७०/१७३५ समणाणं ठिदिकप्पो वासावासे तहेव उड्ढबंधे । पडिलिहिदव्वा णियमा णिसीहिया सव्वसाधूहि ।१९६७ एगता सालोगा णादिविकिट्ठा ण चावि आसण्णा । वित्थिण्णा विद्धत्ता णिसीहिया दूरमागाढा ११६६८। अभिमुआ असुसिरा अघसा अज्जोवा बहुसमा य असिणिडा। णिज्जंतुगा अहरिदा अविला य तहा अणाबाधा 1१६६१ जा अवरदक्षिणाए व दक्खिणाए व अध व अवराए। वसधीदो वणिज्जदि णिसीधिया सा पसत्यत्ति ।१६७०1 भ. आ./वि./१४३/३२६/१ णिसिहीओ निषिधीर्योगिवृत्तिर्यस्या भूमौ सा निषिधी इत्युच्यते । - अर्हदादिकोंके व मुनिराजके समाधिस्थानको निषिद्धिका या निषीधिका कहते हैं (भ. आ./वि.)। चातुर्मासिकयोगके प्रारम्भकालमें तथा ऋतु प्रारम्भमें निषीधिकाकी प्रतिलेखना सर्व साधुओंको नियमसे करने चाहिए, अर्थात उस स्थानका दर्शन करना तथा उसे पीछीसे साफ करना चाहिए। ऐसा यह मुनियोंका स्थित कल्प है ।१६६७। वह निषीधिका एकान्तप्रदेशमें, अन्य जनोंको दीख न पड़े ऐसे प्रदेशमें हो। प्रकाश सहित हो। वह नगर आदिकोंसे अतिदूर न हो। न अति समीप भी हो। वह टूटी हुई, विध्वस्त की गयी ऐसी न हो। वह विस्तीर्ण प्रासक और दृढ होनी चाहिए ।१९६८। वह निषी धिका चौंटियोंसे रहित हो, छिद्रोंसे रहित हो, घिसी हुई न हो, प्रकाश सहित हो, समान भूमिमें स्थित हो, निर्जन्तुक व बाधारहित हो, गीली तथा इधर-उधर हिलनेवाली न हो। वह निषीधिका क्षपककी वसतिकासे नैऋत दिशामें, दक्षिण दिशामें अथवा पश्चिम दिशामें होनी चाहिए। इन्हीं दिशाओं में निषाधिकाकी रचना करना पूर्व आचार्योंने प्रशस्त माना है ।१९६९-१६७०) * निषीधिकाको दिशाओंपरसे शुभाशुभ फल विचार -दे० सल्लेखना/६/३ । निषेक-१. लक्षण ष. खं/६/१, ६-६/सू. ६/१५० आबाधुणिया कम्मठ्ठिदी कम्मणिसेओ।। = ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय व अन्तराय) इन कर्मोंका आबाधाकालसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक होता है। (ष. वं. ६/१,६-६/सू. ६,१२,१५,१८,२१/पृ. १५६-१६५ में अन्य तीन कर्मोंके सम्बन्धमें उपरोक्त ही बात कही है)। ध, ११/४,२,६,१०१/२३७/१६ निषेचनं निषेकः, कम्मपरमाणुक्रवंधणिक्खेबो णिसेगो णाम । -निषेचनं निषेकः' इस निरुक्तिके अनुसार कर्म परमाणुओंके स्कन्धोंके निक्षेपण करनेका नाम निषेक है। थानको ना इत्युच्यते । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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