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________________ निर्वज्ञशविला निर्वाण्डप्रति समयके परिणाम खण्डको अनुकृष्टि कहते हैं । उस अनुकृष्टिका काल आयाम कहलाता है । वह ऊर्ध्व गच्छ संस्थात गुणे होते हैं। उन परिणामोंको ही निर्वा काठक कहते हैं। समय की समानताका नाम वर्गणा है, उस समान समयोंसे रहित जो ऊपरके समयवर्ती परिणाम खण्ड है उनके काण्डक या पर्वका नाम निर्वणा काण्डक है। विशेष- दे० करण /४/३/ निर्वज्ञशांवला- एक विद्याधर विद्या- दे० विद्या । - निर्तनाधिकरण निर्वहण - वृत्तिः । अर्था -भ.आ./वि./२/१४/२० निराकुलं बहनं धारणं निर्वहणं, परीषाद्य, पनिपातेऽप्याकुलतामन्तरेण दर्शनादिपरिणती सम्यग्दर्शनादि गुणोंको निराकुलतासे धारण करना परीषादिक प्राप्त हो जानेपर भी व्याकृत चित्त न होकर सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयरूप परिणतिमें तत्पर रहना, उससे च्युत न होना, यह निर्वहण शब्दका अर्थ है न. प./१/१६/९०४) निर्वाण नि.सा./मू./१७-१८१ णवि दुक्खं पवि सुक्खं णवि पीडा व विज्जदे बाहा । गवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होइ णिव्वाणं १७६॥ णवि इंदिय उवसग्गा वि मोहो विहियो ण णिद्दा य । ण य तिहा व हा तत्थेव य होइ णिव्वाणं (१८०॥ णवि कम्म णोकम्मं णवि चिता मेव अट्टागि। गवि धम्मनका सत्व व होफिया ११८११ - जहाँ दुःख नहीं है, सुख नहीं है, पीड़ा, बाधा, मरण, जन्म कुछ नहीं है वहीं निर्माण है। १०६ जहाँ इन्द्रियों, मोह, विस्मय, निद्रा, तृषा, क्षुधा, कुछ नहीं है वहीं निर्वाण है । १८०| जहाँ कर्म और नोकर्म, चिन्ता, आर्त व ध्यान अपना धर्म न शुक्लध्यान कुछ नहीं है, वहीं निर्माण है । १०१। 1 भ. जा./वि./१२/२३/२० निर्वाण विनाश तथा प्रयोग निर्माणः प्रदोषो नष्ट इति यान्तु विनाशसामान्यमुपादाय वर्तमानोऽपि निर्वाणशब्दः चरणशब्दस्य निर्जातकर्मशातनसामर्थ्याभिधायिनः प्रयोगकर्म विनाशचरो भवति । स च कर्मणां विनाशो द्विप्रकारः, कतिपयः प्रलय. सकलप्रलयश्च । तत्र द्वितीयपरिग्रहमाचष्टे । = निर्वाण शब्दका 'विनाश' ऐसा अर्थ है । जैसे--प्रदीपका निर्वाण हुआ अर्थात् प्रदीप नष्ट हो गया। परन्तु यहाँ चारित्रमें जो कर्म नाश करनेका सामर्थ्य है उसका प्रयोग यहाँ प्रकृतमें) निर्वाण शब्दसे किया गया है। वह कर्मका नाश दो प्रकारसे होता है-थोड़े कर्मोंका नाश और सकल कर्मोंका नाश । उनमेंसे दूसरा अर्थात सर्व कर्मोंका बिनाश हो यहाँ अभी है। प्र.सा./ता.वृ./// स्वाधीनातीन्द्रियरूपपरमज्ञानसुखलक्षण निर्मा णम् । १. स्वाधीन अतीन्द्रियरूप परमज्ञान व सुख लक्षण निर्वाण है । - २. भूतकालीन प्रथम तीर्थकर १०] तीर्थंकर / ५ । * भगवान् महावीरका निर्वाण दिवस दे० इतिहास / २ | निर्वाण कल्याणक वेला - दे० कल्याणकत | निर्वाह दे० निर्वहण निविध्या - भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी- दे० मनुष्य / ४ | निविकृति - सा. ध. / टीका /५/३५ विक्रियते जिह्वामनसि येनेति विकृतिर्गोर सेक्षुर सफल रसधान्यरसभेदाच्चतुविधा । तत्र गोरसः क्षीरादिरस खण्डगुडादि फसरसों शशक्षाशादिनिष्यन्द.. धान्यरसस्तै लमण्डादिः । अथवा यद्य ेन सह भुज्यमानं स्वदते तत्तत्र विकृतिरित्युच्यते । भोजनं निविकृति । १. जिसके आहार से जिहा और मनमें विकार पैदा होता है उसे विकृति कहते है जैसे-दूध, घी आदि गोरस, खाण्ड गुड आदि Jain Education International निविचिकित्सा इक्षुरस, दाख, आम आदि फलरस और तेल माण्ड आदि धान्य रस । ऐसे चार प्रकारके रस विकृति हैं। ये जिस आहार में न हों वह निविकृति है २ अथवा जिसको मिलाकर भोजन करनेसे भोजनमें विशेष स्वाद आता है उसको विकृति कहते हैं। जैसे-साग, चटनी आदि पदार्थ) इस विकृति रहित भोजन अर्थात् व्यंजनादिकसे रहित भात आदिका भोजन निनिकृति है। (भ.आ./ताराधना टीका / २५४ /४०५/१६) ( निविचिकित्सा - १. दो प्रकारको विचिकित्सा ६२६ सू.आ./२५२ मि दुवा दब्बे भावे व होड़ गाया। - विचिकित्सा दो प्रकार है-द्रव्य व भाव । म २. व्य निर्विचिकित्साका लक्षण २. साधु व धर्मात्माकि शरीरोंकी अपेक्षा यू.आ./२५३ उच्चार परसवणं वं सिंघाणच चम्मट्ठी पूर्ण च मंससोदित जन्तावि साहूणं ॥२५३॥ साधुयों के शरीर के विष्ठामल, मूत्र, कफ, नाकका मल, चाम, हाड़, राधि, मांस, लोही, वमन, सर्व अंगोका मल, लार इत्यादि मलोंको देखकर ग्लानि करना द्रव्य विचिकित्सा है (तथा ग्लानि न करना द्रव्य निर्विचिकित्सा है ।) (अन. ४/२/८०/२००) र. क. श्रा./१३ स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचित्सिता । १३। - स्वभाव से अपवित्र और रत्नजयसे पवित्र ऐसे धर्मात्माओंके शरीर में ग्लानि न करना और उनके गुणों में प्रीति करना सम्यग्दर्शनका निर्विधित्सा अंग माना गया है । (का. अ. / . /४१७) ४.सं./टी./४९/१०२/१ भेदाभेदरत्नत्रयाराधकभव्यजीवानां दुर्गन्धवीभत्सादिकं दृष्ट्वा धर्मबुद्धया कारुण्यभावेन वा यथायोग्यं विधिकित्सापरिहरणं द्रव्यनिर्विचिकित्सागुणो भण्यते । - भेदाभेद रत्नत्रयके आराधक भव्यजीवोंकी दुर्गन्धी तथा आकृति आदि देखकर धर्मबुद्धिसे अथवा करुणाभाव से यथायोग्य विचिकित्सा ( ग्लानि ) को दूर करना द्रव्य निर्विचिकित्सा गुण है। २. जीव सामान्यके शरीरों व सर्वपदार्थों की अपेक्षा म.आ./२५२ उच्चारादि २५१ विद्या आदि पदार्थोंमें ग्लानिका होना द्रव्य विचिकित्सा है । ( वह नहीं करनी चाहिए पु. सि. उ. ) (पु. सि. उ० / २५) । स. सा./मू./२३१ जो ण करेदि जुगुप्पं चेदा सव्वे सिमेव धम्माणं । सो लुगिदिगो सम्मादिदिगुणेवव्यो । २३९॥ जो चेतयिता सभी धर्मों या वस्तुस्वभावोंके प्रति जुगुप्सा ( ग्लानि ) नहीं करता है, उसको निश्चयसे निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । स. सा./ता.वृ./२३१/३१३ / १२ यश्चेतयिता आत्मा परमात्मतत्वभावनामलेन जुगुको निन्दा दोष द्वे विचिकित्सान करोति, केपी संचधित्वेन । सर्वेषामेव वस्तुधर्माणां स्वभावानां दुर्गन्धादिविषयेमा स सम्यग्दृष्टिः निर्विचिकित्सः खलु स्फुट मन्तव्यो । -जो आत्मा परमात्म तत्वको भावना के महसे सभी वस्तुधर्मो या स्वभाव अथवा दुर्गन्ध आदि विषयों में ग्लानि या जुगुप्सा नहीं करता, न ही उनकी निन्दा करता है, न उनसे द्वेष करता है, वह निर्विचिकित्स सम्यग्दष्टि है, ऐसा मानना चाहिए। .../५८० दुर्वात् दुःखिते पुंसि तीमा सातामृणास्पदे यन्नासूयापर चेत स्मृतो निर्विचिकित्सकः ॥५८०० दुर्देव वश तीव्र असाता उदयसे किसी पुरुषके दुःखित हो जानेपर उससे घृणा नहीं करना निर्विचिकित्सा गुण है। (ता. सं./३/१०२ ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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