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________________ ध्येय ५०० ३. पंचपरमेष्ठीरूप ध्येय निर्देश १. ध्येय सामान्य निर्देश प्रतिक्षण स्थिति, उत्पत्ति और व्ययरूप है तथा अनादिनिधन है वह सब यथावस्थित रूपमें ध्येय है ।११५। (ज्ञा./३१/१७) । १. ध्येयका लक्षण ..चेतनाचेतन पदार्थोंका यथावस्थितरूप ध्येय है चा. सा./१६७/२ ध्येयमप्रशस्तप्रशस्तपरिणामकारण। जो अशुभ तथा शुभ परिणामोंका कारण हो उसे ध्येय कहते हैं। ज्ञा./३१/१८ अमी जीवादयो भावाश्चिदचित्लक्षलाञ्छिताः । तत्स्वरूपा विरोधेन ध्येया धर्मे मनीषिभिः ।१८। -जो जीवादिक षट् द्रव्य २. ध्येयके भेद चेतन अचेतन लक्षणसे लक्षित हैं, अविरोधरूपसे उन यथार्थ स्वरूप ही बुद्धिमान जनों द्वारा धर्मध्यानमें ध्येय होता है । (शा. सा /१७); म. पु./२१/१११ श्रुतमर्थाभिधानं च प्रत्ययश्चेत्यदस्त्रिधा । स शब्द, अर्थ (त, अनु./१११, १३२)। और ज्ञान इस तरह तीन प्रकारका ध्येय कहलाता है। ३. सात तत्त्व व नौ पदार्थ ध्येय हैं त. अनु./E८,६६, १३१ आज्ञापायो विपाकं च संस्थानं भुवनस्य च । यथागममविक्षिपचेतसा चिन्तयेन्मुनिः।१८ नाम च स्थापना द्रव्यं घ.१३/५,४,२६/३ जिणउवइट्ठणवपयत्था वा ज्झेयं होति । -जिनेन्द्र भावश्चेति चतुर्विधम् । समस्तं व्यस्तमप्येतद् ध्येयमध्यात्मवेदिभिः भगवान द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थ ध्येय है। 18 एवं नामादिभेदेन ध्येयमुक्तं चतुर्विधम् । अथवा द्रव्यभावाभ्यां म. पू./२०/१०८ अहं ममात्रवो बन्धः संबरो निर्जराक्षयः। कर्मणामिति द्विधैव तदवस्थितम् ॥१३१। = मुनि आज्ञा, अपाय, विपाक और तत्त्वार्था ध्येयाः सप्त नवाथवा ।१०८ - मै अर्थात् जीव और मेरे लोकसंस्थानका आगमके अनुसार चित्तकी एकाग्रताके साथ अजीब आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा कर्मोका क्षय होनेरूप मोक्ष चिन्तवन करे।हमा अध्यात्मवेत्ताओंके द्वारा नाम, स्थापना, द्रव्य इस प्रकार ये सात तत्त्व या पुण्य पाप मिला देनेसे नौ पदार्थ ध्यान करने योग्य है। और भावरूप चार प्रकारका धयेय समस्त तथा व्यस्त दोनों रूपसे ध्यानके योग्य माना गया है ।। अथवा द्रव्य और भावके भेदसे १. अनीहित वृत्तिसे समस्त वस्तुएँ ध्येय हैं वह दो प्रकारका ही अवस्थित है। ध. १३/१,४,२६/३२/७० आलंबणेहि भरियो लोगो ज्झाइदुमणस्स * आज्ञा अपाय आदि ध्येय निर्देश-दे० धर्मध्यान/१। खवगस्स । जं जं मणसा पेच्छइ तं तं आलं बणं होइ। - यह लोक ध्यानके आलम्बनोंसे भरा हुआ है । ध्यानमें मन लगानेवाला क्षपक ३. नाम व स्थापनारूप ध्येय निर्देश मनसे जिस-जिस वस्तुको देखता है, वह वह वस्तु ध्यानका आलम्बन होती है। त. अनु /१०० वाच्यस्य वाचकं नामं प्रतिमा स्थापना मता।वाच्यका म.पू./२१/१७ ध्यानस्यालम्बनं कृत्स्नं जगत्तत्त्वं यथास्थितम्। विनाजो वाचक शब्द वह नामरूप ध्येय है और प्रतिमा स्थापना पानी त्मात्मीयसङ्कलपाद औदासीन्ये निवेशितम्। - जगतके समस्त तत्त्व गयी है। जो जिस रूपसे अवस्थित हैं और जिनमें मैं और मेरेपनका संकल्प और भी दे० पदस्थ ध्यान (नामरूप ध्येय अर्थात अनेक प्रकारके न होनेसे जो उदासीनरूपसे विद्यमान हैं वे सब ध्यानके आलम्बन मन्त्रों व स्वरव्यंजन आदिका ध्यान)। है।१७। म.पु./२१/१६-२१); (द्र.सं./मू./५५); (त.अनु./१३८) । * पाँच धारणाभोंका निर्देश-दे०.पिण्डस्थ ध्यान पं.का./ता, ग./१७३/२५३/२५ में उद्धृत-ध्येयं वस्तु यथास्थितम् । * आग्नेयी भादि धारणाओंका स्वरूप-दे० वह वह नाम । - अपने-अपने स्वरूपमें यथा स्थित वस्तु ध्येय है। ३. पंच परमेष्ठोरूप ध्येय निर्देश २. द्रव्यरूप ध्येय निर्देश १. सिद्धका स्वरूप ध्येय है १. प्रतिक्षण प्रवाहित वस्तु व विश्व ध्येय है ध.१३/५४,२६/६६/४ को ज्झाइज्जइ । जिणो वीयरायो केवलणाणेण त. अनु/११०-११५ गुणपर्ययवद्गद्रव्यम् ।१००। यथै कमेकदा द्रव्यमुरिपत्सु अवगयतिकालगोयराणं तपज्जाओवचियछद्दव्वो णवकेवललद्धिप्पहुडिस्थास्नु नश्वरम् । तथैव सर्वदा सर्व मिति तत्त्वं विचिन्तयेत् ॥११॥ अणतगुणेहि आरद्धदिव्बदेहधरो अजरो अमरो अजोणिसंभवो" अनादिनिधने द्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् । उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति सव्वलक्षणसंपुण्णदप्पणसंकेतमाणुसच्छायागारो संतो वि सयलजलकल्लोलवज्जले ।११२। यद्विवृतं यथा पूर्व यच्च पश्चाद्विवर्त्यति । माणुसपहावुत्तिण्णो अव्वओ अक्रवओ। .. सगसरूवे दिण्णचित्तविवर्तते यदत्राद्य तदेवेदमिदं च तत् ।११३। सहवृत्ता गुणास्तत्र जीवाणमसेसपावपणासओ.. भैयं होंति । प्रश्न-ध्यान करने पर्यायाः क्रमवर्तिनः । स्यादेतदात्मकं द्रव्यभेते च स्युस्तदारमकाः। योग्य कौन है। उत्तर-जो वीतराग है, केवलज्ञानके द्वारा जिसने १६१४। एवं विधमिदं वस्तु स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकम् । प्रतिक्षणमनाद्य- त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे उपचित छह द्रव्योंको जान लिया नन्तं सर्व ध्येयं यथा स्थितम् ।११। द्रव्यरूप ध्येय गुणपर्यायवान है, नव केवललब्धि आदि अनन्त गुणोंके साथ जो आरम्भ हुए होता है ।१००। जिस प्रकार एकद्रव्य एकसमयमें उत्पाद व्यय धौव्य- दिव्य देहको धारण करता है, जो अजर है, अमर है, अयोनि रूप होता है, उसी प्रकार सर्वद्रव्य सदा काल उत्पाद व्यय धौव्यरूप सम्भव है, अदग्ध है, अछेद्य है...( तथा अन्य भी अनेकों) समस्त होते रहते हैं ।११०। द्रव्य जो कि अनादि निधन है, उसमें प्रतिक्षण लक्षणोंसे परिपूर्ण है, अतएव दर्पणमें संक्रान्त हुई मनुष्यकी छायाके स्व पर्यायें जलमें कल्लोलोंकी तरह उपजती तथा विनशती रहती हैं समान होकर भी समस्त मनुष्यों के प्रभावसे परे है, अव्यक्त है, ।११२। जो पूर्व क्रमानुसार विवर्तित हुआ है, होगा और हो रहा है वही अक्षय हैं। (तथा सिद्धोंके प्रसिद्ध आठ या बारह गुणोसे समवेत है सब यह (द्रव्य ) है और यही सब उन सबरूप है ।११३। द्रव्यमें गुण (दे० मोक्ष/३))। जिन जीवोंने अपने स्वरूपमे चित्त लगाया है सहवर्ती और पर्यायें क्रमवर्ती हैं । द्रव्य इन गुणपर्यायात्मक है और उनके समस्त पापोंका नाश करनेवाला ऐसा जिनदेव ध्यान करने गुणपर्याय द्रव्यात्मक है ।११४। इस प्रकार यह द्रव्य नामकी वस्तु जो योग्य है । (म.पु./२१/१११-११६); (त.अनु./१२०-१२२) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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