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________________ ध्येय ५०१ ४. निज शुद्धात्मारूप ध्येय निर्देश ज्ञा./३१/१७ शुद्धध्यान विशीर्ण कर्मकवचो देवश्च मुक्तेर्वर. । सर्वज्ञ' ४. निज शुद्धात्मारूप ध्येय निर्देश सकलः शिवः स भगवान्सिद्ध परो निष्कलः ११७१ शुद्धध्यानसे नष्ट हुआ है कर्मरूप आवरण जिनका ऐसे मुक्तिके वर सर्वज्ञदेव सकल . निज शुद्धात्मा ध्येय है अर्थात् शरीर सहित तो अहंत भगवान है अर्थात निष्कल सिद्ध भगवान् है । (त.अनु./११९) ति.प./६/११ गय सित्थमूसगब्भायारो रयणत्तयादिगुणजुत्तो। णियआदा ज्झायब्वो खयहिदो जीबघणदेसो ।४१ -मोमरहित मूषकके २. अहंतका स्वरूप ध्येय है अभ्यन्तर आकाशके आकार, रत्नत्रयादि गुणोंयुक्त, अनश्वर और जीवधनदेशरूप निजात्माका ध्यान करना चाहिए । म. पू./२१/१२०-१३० अथवा स्नातकावस्था प्राप्तो घातिव्यपायत । जिनोऽहन केवली ध्येयो बिभ्रत्तेजोमयं वपुः ।१२० -घातिया रा.वा./६/२७/७/६२५/३४ एकस्मिन् द्रव्यपरमाणौ भावपरमाणौ वार्थ कर्मों के नष्ट हो जानेसे जो स्नातक अवस्थाको प्राप्त हुए हैं, और जो चिन्तानियमो इत्यर्थ:/...। =एक द्रव्यपरमाणु या भावपरमाणु तेजोमय परम औदारिक शरीरको धारण किये हुए है ऐसे केवल (आत्माकी निर्विकल्प अवस्था) में चित्तवृत्तिको केन्द्रित करना ज्ञानी अर्हत जिन ध्यान करने योग्य हैं ।१२०। वे अहंत हैं, सिद्ध हैं, ध्यान है । (दे० परमाणु) विश्वदर्शी व विश्वज्ञ हैं ।१२१-१२२॥ अनन्तचतुष्टय जिनको प्रगट म.पु./२१/१८,२२८ अथवा ध्येयमध्यात्मतत्त्वं मुक्तेतरात्मकम् । तत्तत्त्वहुआ है।१२३॥ समवशरणमें विराजमान व अष्टप्रातिहार्यों युक्त हैं चिन्तनं ध्यातः उपयोगस्य शुद्धये ।१८। ध्येयं स्याद परमं तत्त्व११२४। शरीर सहित होते हुए भी ज्ञानसे विश्वरूप हैं ।१२५॥ विश्व मवाड्मानसगोचरम् १२२८ - संसारी व मुक्त ऐसे दो भेदवाले व्यापी, विश्वतोमुख, विश्वचक्षु, लोकशिखामणि हैं ।१२६॥ सुखमय, आत्म तत्त्वका चिन्तवन ध्याताके उपयोगकी विशुद्धिके लिए होता निर्भय, निःस्पृह, निधि, निराकुल, निरपेक्ष, नीरोग, नित्य, है ।१८। मन वचनके अगोचर शुद्धात्म तत्त्व ध्येय है ।२२८। कर्मरहित ।१२७--१२८नव केवललब्धियुक्त, अभेद्य, अच्छेद्य, निश्चल १२६। ऐसे लक्षणोंसे लक्षित, परमेष्ठी, परतत्त्व, परं ज्ञा./३१/२०-२१ अथ लोकत्रयीनाममूर्त परमेश्वरम। ध्यातुं प्रक्रमते ज्योति, व अक्षर स्वरूप अहंत भगवान् ध्येय है ।१३०। (त. अनु./ साक्षात्परमात्मानमव्ययम् ।२०। त्रिकाल विषयं साक्षाच्छक्तिव्यक्ति१२३-१२६)। विवक्षया । सामान्येन नयेन के परमात्मानमामनेव।२१ तीन लोक के नाथ अमूर्तीक परमेश्वर परमात्मा अविनाशीका ही साक्षात ध्यान ज्ञा./३१/९७ शुद्धध्यानविशीर्ण कर्मकवचो देवश्च मुक्तर्वरः। सर्वज्ञः करनेका प्रारम्भ करे। २० शक्ति और व्यक्तिकी विवक्षासे तीन कालके सकल: शिव. स भगवान्सिद्ध परो निष्कलः। - शुद्धध्यानसे नष्ट गोचर साक्षात सामान्य (द्रव्याथिक) नयसे एक परमात्माका ध्यान व हुआ है कर्मरूपी आवरण जिनका ऐसे मुक्तिके बर, सर्वज्ञ, देहसहित अभ्यास करे।२१ समस्त कल्याणके पूरक अर्हतभगवान ध्येय हैं। ३. अर्हतका ध्यान पदस्थ पिंडस्थ व रूपस्थ तीनों २. शुद्धपारिणामिक भाव ध्येय है ध्यानामें होता है नि.सा./ता../४१ पञ्चानां भावानां मध्ये...पूर्वोक्तभावचतुष्टयं सावरद्र.सं./टी./१० को पातनिका/२०४/८ पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य णसंयुक्तत्वात न मुक्तिकारणम् । त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरंजन निजध्येयभूतमहत्सर्वज्ञस्वरूपं दर्शयामीति"। -पदस्य, पिण्डस्थ और परमपञ्चमभावभावनया पञ्चमगति मुमुक्षवो यान्ति यास्यन्ति रूपस्थ इन तीन ध्यानोके ध्येयभूत जो श्री अहंत सर्वज्ञ हैं उनके गताश्चेति । =पाँच भावों में से पूर्वोक्त चार भाव आवरण संयुक्त होनेसे स्वरूपको दिखलाता हूँ। मुक्तिके कारण नहीं है। निरुपाधि निजस्वरूप है, ऐसे निरंजन निज परमपंचमभावकी भावनासे (चमगति (मोक्ष) में मुमुक्षु जाते हैं जायेंगे ४. आचार्य उपाध्याय साधु भी ध्येय हैं और जाते थे। त.अनु./१३० सम्यग्ज्ञानादिसंपन्नाः प्राप्तसप्तमहर्दयः । यथोक्तलक्षणा द्र,सं./टी/५७/२३६/८ यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूपः शुद्धपारिणामिकपरमध्येया सूर्यपाध्यायसाधव ११३०। जो सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रयसे भावलक्षणपरमनिश्चयमोक्षः स पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानी भविष्यसम्पन्न हैं, तथा जिन्हें सात महा ऋद्धियाँ या लब्धियाँ प्राप्त हुई हैं, तीत्येवं न । स एव रागादिविकल्परहिते मोक्षकारणभूते ध्यानभावनाऔर जो यथोक्त लक्षणके धारक हैं ऐसे आचार्य, उपाध्याय और पर्याये ध्येयो भवति। =जो शुद्धद्रव्यकी शक्तिरूप शुद्धपरम साधु ध्यानके योग्य हैं। पारिणामिकभावरूप परमनिश्चय मोक्ष है, वह तो जीवमें पहले ही विद्यमान है. अब प्रगट होगी ऐसा नहीं है। रागादि विकल्पोंसे रहित मोक्षका कारणभूत ध्यान भावनापर्यायमें वही मोक्ष (त्रिकाल ५. पंचपरमेष्ठीरूप ध्येयकी प्रधानता निरुपाधि शुद्धात्मस्वरूप) ध्येय होता है। (द्र.सं./टी./१३/१४/१०) त.अनु./१९६,१४० तत्रापि तत्त्वतः पञ्च ध्यातव्याः परमेष्ठिनः ॥११॥ संक्षेपेण यदत्रोक्तं विस्तारात्परमागमे । तत्सर्व ध्यातमेव स्याद ३. आत्मा रूप ध्येयकी प्रधानता ध्यातेषु परमेष्ठिसु ।१४०। आत्माके ध्यानमें भी वस्तुतः पंच परमेष्ठी ध्यान किये जानेके योग्य हैं ।११। जो कुछ यहाँ संक्षेप त.अनु./११७-१९८ पुरुष' पुद्गलः कालो धर्माधौ तथाम्बरम् । षडविधं रूपसे तथा परमागममें विस्ताररूपसे कहा गया है वह सब परमे द्रव्यमारख्यात तत्र ध्येयतमः पुमान् ।११७। सति हि ज्ञातरि ज्ञेयं ष्ठियोंके ध्याये जानेपर ध्यात हो जाता है। अथवा पचपरमे ध्येयता प्रतिपद्यते। ततो ज्ञानस्वरूपोऽयमात्मा ध्येयतम. स्मृतः।११८) ष्ठियोका ध्यान कर लिया जानेपर सभी श्रेष्ठ व्यक्तियों व बस्तुओका - पुरुष (जीव), पुद्गल, काल, धर्म, अधर्म और आकाश ऐसे छह ध्यान उसमें समाविष्ट हो जाता है।१४०। भेदरूप द्रव्य कहा गया है। उन द्रव्यभेदोमें सबसे अधिक ध्यानके योग्य पुरुषरूप आत्मा है ।११७ ज्ञाताके होनेपर ही, ज्ञेय ध्येयताको *पंच परमेष्ठीका स्वरूप-दे० वह वह नाम । प्राप्त होता है, इसलिए ज्ञानस्वरूप यह आत्मा ही ध्येयतम है ।११८। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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