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________________ ध्यान ४९९ रूप धर्मसे परिणत आत्मा स्वयं धर्म होता है | जब वह जीव शुभ अथवा अशुभ परिणामोंरूप परिणमता है तब स्वयं शुभ और अशुभ होता है और जब शुद्धरूप परिणमन करता है तब स्वयं शुद्ध होता है || ३. आत्मा अपने ध्येयके साथ समरस हो जाता है त अनु / १५० सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् एतदेव समाधिः स्याल्लोकद्वयफलप्रदः ॥१३७॥ =उन दोनों ध्येय और ध्याताका जो यह एकीकरण है, वह समरसीभाव माना गया है, यही एकीकरण समाधिरूप ध्यान है, जो दोनों लोकोके फलको प्रदान करनेवाला है । (ज्ञा./३१/३८) | ४. अर्हतको ध्याता हुआ स्वयं अहंत होता है शा./३६/४१-४३ गुणग्राम संसीनमानसस्तद्गताशयः । तद्भावभावितो योगी तन्मयत्वं प्रपद्यते ।४१। यदाभ्यासवशात्तस्य तन्मयत्वं प्रजायते तदात्मानमसी ज्ञानी समीक्षते ॥४२॥ एष देवः स सर्वज्ञः सोऽहं राद्रूपतां गतः । तस्मात्स एवं नान्योऽहं विश्वदर्शीति मन्यते |४३| उस परमात्मामें मन लगानेसे उसके ही गुणों में लीन होकर उसमें ही चितको प्रवेश करके उसी भावसे भावित योगी उसीकी तन्मयताको प्राप्त होता है |४१| जब अभ्यासके वशसे उस मुनिके उस सर्वज्ञके स्वरूपसे तन्मयता उत्पन्न होती है उस समय वह मुनि अपने असर्वज्ञ आत्माको सर्वज्ञ स्वरूप देखता है ॥ ४२ ॥ उस समय वह ऐसा मानता है, कि यह वही सर्वज्ञदेव है, वही तत्स्वरूपताको प्राप्त हुआ मैं हूँ, इस कारण वही निस्वदर्शी में हूँ. अन्य में नहीं|४३| त. अनु. / १६० परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति । अर्ह ध्यानाविष्टो भावार्हन् स्यात्स्वयं तस्मात् । =जो आत्मा जिस भावरूप परिणमन करता है, वह उस भावके साथ तन्मय होता है। ( और भी देखो शीर्षक नं. १ ), अतः अर्हध्यानसे व्याप्त आत्मा स्वयं भाव अहंत होता है ।११० ५. गरुड आदि तत्वोंको ध्याता हुआ आत्मा ही स्वयं उन रूप होता है। - ज्ञा. / २१/६-१७ शिवोऽयं वैनतेयश्च स्मरश्चात्मैव कीर्तितः । अणिमादिगुणानरतवाधित उप प्रधान्तरे वारयन्तिक स्वभावोत्थानन्तज्ञानसुख' पुमान् । परमात्मा विपः कन्तुरहो माहारम्यमात्मनः । ६....तदेवं यदिह जगति शरीर विशेष समवेतं किमपि सामर्थ्यमुपलभामहे तत्सकलमात्मन एवेति विनिश्चयः । आत्मप्रवृत्ति परम्परोत्पादितत्वाद्विग्राहणस्येति ॥ १७० विद्वानों ने इस आत्माको ही शिव, गरुड व काम कहा है, क्योंकि यह आत्मा ही अणिमा महिमा आदि अमुल्य गुणरूपी नौका समूह है। अन्य ग्रन्थमें भी कहा है-- अहो ! आत्माका माहात्म्य कैसा है, अविनश्वर स्वभावसे उत्पन्न अनन्त ज्ञान व सुखस्वरूप यह आत्मा ही शिव, गरुड व काम है।- ( आत्मा ही निश्चय से परमात्म ( शिव ) व्यपदेशका धारक होता है ।१०१ गारुडीविद्याको जाननेके कारण गारुडगी नामको अवगाहन करनेवाला यह आत्मा ही गरुड नाम पाता है | १५ | आत्मा ही कामकी संज्ञाको धारण करनेवाला है | १६ | ) इस कारण शिव गरुड व कामरूपसे इस जगत् में शरीरके साथ मिली हुई जो कुछ सामर्थ्य हम देखते हैं, वह सब आत्माकी ही है । क्योंकि शरीरको ग्रहण करनेमें आत्माकी प्रवृत्ति ही परम्परा हेतु है |१७| त. अनु. / १३५-१३६ या ध्यानमहाद्वाता शून्यीकृतस्य ध्येय. स्वरूपाविवाह संपद्यते स्वयम् ॥१३५॥ तदा तथाविधध्यानसंवित्तिः - ध्वस्तकल्पनः । स एव परमात्मा स्याद्वैनतेयश्च मन्मथः Jain Education International ध्येय | १३६। जिस समय ध्याता पुरुष ध्यानके बलसे अपने शरीरको शुन्य बनाकर ध्येयस्वरूपमे आविष्ट या प्रविष्ट हो जानेसे अपनेको तत्सदृश बना लेता है, उस समय उस प्रकारकी ध्यान संवित्तिसे भेद विकल्प को नष्ट करता हुआ वह ही परमात्मा (शिव) गरुड अथवा काम - देव है । नोट- ( तीनों तत्त्वोके लक्षण- देखो वह वह नाम । ६. अन्य ध्येय मी आत्मामें आलेखतवत् प्रतीत होते हैं उ. अनु. / १३३ याने हि निति स्थेयं ध्येयरूप परिस्फुटम् आलेखितमिवाभाति ध्येयस्यासं निधन | १३३० ध्यानमें स्थिरता के परिपुष्ट हो जानेपर ध्येयका स्वरूप ध्येयके सन्निकट न होते हुए भी, स्पष्ट रूपसे आलेखित जैसा प्रतिभासित होता है। ध्यानशुद्धि दे० शुद्धि ध्येय—क्योंकि पदार्थोंका चिन्तक ही जीवोंके प्रशस्त या अप्रशस्त भावका कारण है, इसलिए ध्यानके प्रकरण में यह विवेक रखना आवश्यक है, कि कौन व कैसे पदार्थ ध्यान किये जाने योग्य हैं और कीन नहीं। 9 १ २ ३ २ १ २ ३ ४ ३ १ २ ३ ४ ५ * ४ १ २ ३ ५ १ २ ३ ४ ध्येय सामान्य निर्देश ध्येयका लक्षण ध्येयका भेद आशा अपाय आदि ध्येय निर्देश दे० धर्मध्यान १ । नाम व स्थापनारूप ध्येय निर्देश । - 1 पाँच धारणाओंका निर्देश दे०पिण्डस्थध्यान आग्नेयी आदि धारणाओंका स्वरूप । प्रम्यरूप ध्येय निर्देश प्रतिक्षण प्रवाहित वस्तु व विश्व ध्येय हैं। चेतनाचेतन पदार्थों का यथावस्थितरूप ध्येय है । सात तत्त्व व नौ पदार्थ ध्येय हैं. 1 अनीहित वृत्तिसे समस्त वस्तुएँ ध्येय है। पंच परमेष्ठीरूप ध्येय निर्देश सिद्धोंका स्वरूप ध्येय है। अर्हन्तोंका स्वरूप ध्येय है। अर्हन्तका ध्यान पदस्थ पिण्डर व रूपस्थ तीनों ध्यानोंमें होता है। आचार्य उपाध्याय व साधु भी ध्येय हैं। पंच परमेष्ठीरूप ध्येयकी प्रधानता पंच परमेष्ठीका स्वरूप । - दे० वह वह नाम । निज शुद्धात्मारूप ध्येय निर्देश निज शुद्धात्मा ध्येय है । शुद्ध पारिणामिक भाव ध्येय है। आत्मरूप ध्येयकी प्रधानता । भावरूप ध्येय निर्देश भावरूप ध्येयका लक्षण । -दे० वह वह नाम । सभी वस्तुओंगास्थित गुण पर्याय ध्येय हैं। रत्नत्रय व वैराग्यकी भावनाएँ ध्येय हैं। ध्यानमें भाने योग्य कुछ भावनाएँ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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