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________________ द्रव्य ४६० ४. सत् व द्रव्यमे कथंचित् भेदाभेद यदि उष्ण गुणके सयोगसे अग्नि उष्ण होती है तो वह उष्णगुण भी अन्य उष्णगुणके योगसे उष्ण होना चाहिए। इस प्रकार गुणके योगसे द्रव्यको गुणी माननेसे अनवस्थादोष आता है। (रा. वा /१/१/१०/५। २५); (रा.वा /२/८/५/११६/१७) 18. यदि जिनका अपना कोई भी लक्षण नहीं है ऐसे द्रव्य व गुण, इन दो पदार्थोके मिलनेसे एक गुणवान् द्रव्य उत्पन्न हो सकता है तो दो अन्धोंके मिलनेसे एक नेत्रवाद हो जाना चाहिए । (रा. वा/१/६/११/४६/२०); (रा. वा./५/२/३/ ४३७/५ ) । १०. जेसे दीपकका संयोग किसी जात्यंध व्यक्तिको दृष्टि प्रदान नहीं कर सकता उसी प्रकार गुण किसी निर्गुण पदार्थ में अनहुई शक्ति उत्पन्न नहीं कर सकता। (रा. वा./१/१०/३/१०/१५) । व्यपदेश भी सम्भव न हो सकेगा । (रा. वा/५/२/६/४३६/१२) २. अकेले गुणके या गुणीके रहनेपर-यदि गुणी रहता है तो गुणका अभाव होनेके कारण वह निःस्वभावी होकर अपना भी विनाश कर बैठेगा। और यदि गुण रहता है तो निराश्रय होनेके कारण वह कहाँ टिकेगा। (रा.वा/५/२/8/४३६/१३), (रा.वा/५/२/१२/४४०/१०) ३ द्रव्यको सर्वथा गुण समुदाय मानने वालोंसे हम पूछते हैं, कि वह समुदाय द्रव्यसे भिन्न है या अभिन्न 1 दोनों ही पक्षोंमें अभेद व भेद पक्षमें कहे गये दोष आते हैं । (रा.वा/५/२/१/४४०/१४) २. एकान्त मेद पक्षका निरास १. गुण व गुणी अविभक्त प्रदेशी है, इसलिए भिन्न नहीं हैं। (पं.का /मू./४६) २. द्रव्यसे पृथक् गुण उपलब्ध नहीं होते। (रा.वा/ ५/३८/४/५०१/२०) ३. धर्म व धर्मीको सर्वथा. भिन्न, मान लेनेपर कारणकार्य, गुण-गुणी आदिमें परस्पर 'यह इसका कारण है और यह इसका गुण है' इस प्रकार की वृत्ति सम्भव न हो सकेगी। या दण्ड दण्डीकी भॉति युतसिद्धरूप वृत्ति होगी । (आप्त. मी./६२-६३) ४. धर्म-धर्मीको सर्वथा भिन्न माननेसे विशेष्य-विशेषण भाव घटित नहीं हो सकते । (स.म./४/१७/१८) ५. द्रव्यसे पृथक रहनेवाला गुण निराश्रय होनेसे असत हो जायेगा और गुणसे पृथक् रहनेवाला द्रव्य नि स्वरूप होनेसे कल्पना मात्र बनकर रह जायेगा। (पं.का./ मू./४४-४५) (रा.वा/५/२/१/४३६/११) ६. क्योंकि नियमसे गुण द्रव्यके आश्रयसे रहते है, इसलिए जितने गुण होंगे उतने ही द्रव्य हो जायेंगे। (पं. का /मू./४४) ७. आत्मा ज्ञानसे पृथक हो जानेके कारण जड़ बनकर रह जायेगा। (रा.वा/१/१/११/४६/१५) ४. धर्म व धर्मीमें समवाय सम्बन्धका निरास यदि यह कहा जाये कि गुण व गुणी में संयोग सम्बन्ध नहीं है अलिक समवाय सम्बन्ध है जो कि समवाय नामक 'एक', 'विभु', व 'नित्य' पदार्थ द्वारा कराया जाता है, तो वह भी कहना नहीं मनता -क्योकि, १. पहले तो वह समवाय नामका पदार्थ ही सिद्ध नहीं है ( दे० समवाय )। २. और यदि उसे मान भी लिया जाये तो, जो स्वयं ही द्रव्यसे पृथक होकर रहता है ऐसा समवाय नामका पदार्थ भला गुण व द्रव्यका सम्बन्ध कैसे करा सकता है। (आप्त. मी./६४, ६६), (रा. वा./१/१/१४/६/१६)। ३. दूसरे एक समवाय पदार्थकी अनेकोंमें वृत्ति कैसे सम्भव है। (आप्त. मी. ६५) (रा. वा./१/३३/५/ १६/१७ )। ४. गुणका सम्बन्ध होनेसे पहले वह द्रव्य गुणवान् है, या निर्गुण । यदि गुणवान तो फिर समवाय द्वारा सम्बन्ध करानेको कल्पना ही व्यर्थ है, और यदि वह निर्गुण है तो गुणके सम्बन्धसे भी वह गुणवान् कैसे बन सकेगा। क्योकि किसी भी पदार्थ में असत शक्तिका उत्पाद असम्भव है। यदि ऐसा होने लगे तो ज्ञानके सम्बन्धसे घट भी चेतन बन बैठेगा। (पं. का./मू./४८-४६); (रा. वा./२/१/६//२१), (रा. वा./१/३३/२/१६/३); (रा. वा./५/२/३/४३७/ ७)।५. ज्ञानका सम्बन्ध जीव से ही होगा घटसे नहीं यह नियम भी तो नहीं किया जा सकता। (रा. वा./९/१/१३/६/८): (रा. वा/१/४/११/४६/१६)। ६. यदि कहा जाये कि समवाय सम्बन्ध अपने समवायिकारणमें ही गुणका सम्बन्ध कराता है, अन्यमें नहीं और इसलिए उपरोक्त दूषण नहीं आता तो हम पूछते हैं कि गुणका सम्बन्ध होनेसे पहले जब द्रव्यका अपना कोई स्वरूप ही नहीं है, तो समवायिकारण ही किसे कहोगे। (रा. वा./५/२/३/४३७/१७)। ५. द्रव्यको स्वतन्त्रता ३. धर्म-धर्मीमें संयोग सम्बन्धका निरास अब यदि भेद पक्षका स्वीकार करनेवाले वैशेषिक या बौद्ध दण्ड-दण्डीवर गुणके संयोगसे द्रव्यको 'गुणवान' कहते हैं तो उनके पक्षमें अनेकों दूषण आते है-१. द्रव्यत्व या उष्णत्व आदि सामान्य धर्मोके योगसे द्रव्य व अग्नि द्रव्यत्ववान् या उष्णत्ववान बन सकते है पर द्रव्य या उष्ण नहीं। (रा. वा./५/२/४/४३/३२): (रा.वा। १/१/१२/६/४ ) । २. जैसे 'घट', 'पट' को प्राप्त नहीं कर सकता अर्थात् उस रूप नहीं हो सकता, तब 'गुण', 'द्रव्य' को कैसे प्राप्त कर सकेगा (रा. वा./५/२/११/४३६/३१) । ३. जैसे कच्चे मिट्टी के घड़ेके अग्निमें पकनेके पश्चात लाल रंग रूप पाकज धर्म उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार पहले न रहनेवाले धर्म भी पदार्थमें पीछेसे उत्पन्न हो जाते हैं । इस प्रकार 'पिठर पाक' सिद्धान्तको बतानेवाले वैशेषिकोंके प्रति कहते हैं कि इस प्रकार गुणको द्रव्यसे पृथक् मानना होगा, और वैसा माननेसे पूर्वोक्त सर्व दूषण स्वत: प्राप्त हो जायेंगे। (रा. वा./५/ २/१०/४३६/२२)। ४. और गुण-गुणीमें दण्ड-दण्डीवव युतसिद्धत्व दिखाई भी तो नहीं देता। (प्र. सा./ता. वृ./E6)। ५. यदि युत सिद्धपना मान भी लिया जाये तो हम पूछते हैं, कि गुण जिसे निष्क्रिय स्वीकार किया गया है, संयोगको प्राप्त होनेके लिए चलकर द्रव्यके पास कैसे जायेगा। (रा. वा./५/२/8/४३६/१६) ६. दूसरी बात यह भी है कि संयोग सम्बन्ध तो दो स्वतन्त्र सत्ताधारी पदार्थोंमें होता है, जैसे कि देवदत्त व फरसेका सम्बन्ध । परन्तु यहाँ तो द्रव्य व गुण भिन्न सत्ताधारी पदार्थ ही प्रसिद्ध नहीं है, जिनका कि संयोग होना सम्भव हो सके। (स. सि./५/२/२६६/१०) (रा.वा./ १/१/५/७/28/८); (रा. वा./१/६/११/४६/१६); (रा. वा./५/२/१०/ ४३६/२०); (रा. वा./५/२/३/४३६/३१); (क. पा. १/१-२०१७ ३२२/ ३९३/६)। ७. गुण व गुणीके संयोगसे पहले न गुणका लक्षण किया जा सकता है और न गुणीका । तथा न निराश्रय गुणकी सत्ता रह सकती है और न निःस्वभावी गुणी की। (पं.ध./पू./४१-४४).८. १.द्रव्य अपना स्वभाव कमी नहीं तोड़ता पं. का./मू./७ अण्णोणं पविस्संता दिता ओगासमण्णमण्णस्स । मेलंता विय णिच्चं सगं सभा ण विजहंति। वे छहों द्रव्य एक दूसरेमें प्रवेश करते हैं, एक दूसरेको अवकाश देते है, परस्पर (क्षीरनीरवद ) मिल जाते हैं, तथापि सदा अपने-अपने स्वभावको नहीं छोड़ते । (प. प्र./मू./२/२५)।(सं. सा./आ/३)। पं. का./त. प्र/३७ द्रव्यं स्वद्रव्येण सदाशन्यमिति। - द्रव्य स्वद्रव्यसे सदा अशून्य है। २. एक द्रव्य अन्य रूप परिणमन नहीं करता प.प्र./मू./१/६७ अप्पा अप्पु जि परु जि परु अप्पा पर जिण होई। परु जि कयाइ वि अप्पु णवि णियमें पभणहिं जोइ । निजवस्तु आत्मा ही है, देहादि पदार्थ पर ही हैं। आत्मा तो परद्रव्य नहीं होता और परद्रव्य आत्मा नहीं होता, ऐसा निश्चय कर योगीश्वर कहते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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