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________________ द्रव्य आस्रव न. च. वृ./७ अवरोप्परं विभिस्सा तह अण्णोण्णावगासदो णिच्चं । संतो वि एयते ण परसहावे हि गति [31] परस्पर में तथा एक दूसरेमें प्रवेश पाकर नित्य एकक्षेत्रमें रहते हुए भी द्रव्यों कोई भी अन्य द्रव्यने स्वभावको प्राप्त नही होता आ. / ३ ) । यो सा./ / / सर्वे भायाः स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थिता । न शक्यन्तेऽन्यथा कर्तु ते परेण कदाचन । =समस्त पदार्थ स्वभावसे ही अपने स्वरूप में स्थित हैं, वे कभी अन्य पदार्थोंसे अन्यथा नहीं किये जा सकते । पं.पू. /४६१ न यतोऽशक्यविवेचनमेक क्षेत्रावगाहिनां चास्ति । एकत्वमनेकत्वं न हि तेषां तथापि तदयोगात् ॥ यद्यपि ये सभी द्रव्य एक क्षेत्रालगाड़ी है, सो भी उनमें एकरम नहीं है, इसलिए इन्थोंमें क्षेत्र एकस्व अनेकन मानना युक्त नहीं है। (पं. ध. / / ५६६)। पं. का./त.प्र./३७ द्रव्यमन्यद्रव्यैः सदा शून्यमिति । द्रव्य अन्य द्रव्योंसे सदा शुन्य है । = ३. द्रव्य अनन्यशरण है मा. अ./११ जाइजर मरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा । तम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो |११| जन्म, जरा, मरण, रोग और भय आदिसे आत्मा ही अपनी रक्षा करता है, इसलिए वास्तव में जो कर्मोकी बन्ध उदय और सत्ता अवस्थासे भिन्न है, वह आत्मा ही इस संसारमें शरण है । पं. ध. / पू./८,५२८ तत्त्वं सल्लक्षणिकं स्वसहायं निर्विकल्पं च || अस्तमितसर्वसंकरदोष [तसम्पदोष मा जरिव वस्तुसमस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणम् ॥ ५२८ ॥ तत्त्व सत् लक्षणवाला. स्वसहाय व निर्विकल्प होता है। सम्पूर्ण संकर व शून्य दोषोसे रहित सम्पूर्ण वस्तु सहत व्यवहारनयसे अणुकी तरह अनन्य शरण है. ऐसा ज्ञान होता है। - S मिले हुए इन छहों (स. सा./ ४. द्रच्य निश्रयसे अपने में ही स्थित है, आकाशस्थित कहना व्यवहार है द्रव्य आस्रव - दे० आखव / १ । द्रव्य इन्द्रिय -- दे० इन्द्रिय/१ | द्रव्य कर्म - दे० कर्म / २ | रा. बा/४/१२/५-६१२२४/२८ एवंभूतनयादेशात सर्वद्रव्याणि परमार्थसमा आत्मप्रतिष्ठनि अन्योन्याधारिताव्यापात इति चेन्न व्यमहारतस्तत्सिद्धे ॥६॥ - एवंभूतनयकी दृष्टिसे देखा जाये तो सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित ही है, इनमें आधाराधेय भाव नहीं है, व्यवहारनयसे ही परस्पर आधार-आधेयभावकी कल्पना होती है । जैसे कि वायुके लिए आकाश, जलको वायु, पृथिवीको जल आधार माने जाते है । द्रव्य नय - दे० नय //५ । - द्रव्य निक्षेप दे० १० निक्षेप /५ । द्रव्य निर्जरा - दे० निर्जरा / १ । य नैगम नय ३० नय / III/२। द्रव्य परमाणु - ३० परमाणु/१ Jain Education International द्रव्यत्व - वैशे द / १/२/११/४६ अनेकद्रव्यववे द्रव्यत्वमुक्तम् । - अनेक द्रव्योंमे रहनेवाला एक तथा नित्य धर्म, जिसके द्वारा द्रव्य = की गुण व कर्म ( पर्याय ) से पृथक् पहचान होती है। ४६१ द्रव्य परिवर्तनरूप संसार दे० संसार/ २ द्रव्य पर्याय दे०पर्याय १ द्रव्य पूजा - दे० पूजा / ४ । बंध-२० द्रव्य मूढ दे० मूढ द्रव्य मोक्ष - दे० मोक्ष / १ । लिंग-० द्रव्य लेश्या - दे० लेश्या/३ । द्रव्यवाद दे० सांख्यदर्शन। द्रव्य शुद्धि - दे० शुद्धि | द्रव्य श्रुतज्ञान द्रव्य संग्रह- नेमिचन्द सिद्धान्तिक देवकी तस्व व द्रव्य प्रतिपादक एक प्रसिद्ध प्राकृत गाथाबद्ध रचना। पहले २६ गाथा प्रमाण लघु संग्रह रचा. पीछे उसमें दो अधिकार और जोडकर ५८ गाथा प्रमाण बृहद संग्रह रचा। दो टीकायें हैं । एक प्रभाचन्द (वि० श० १२) कृत और दूसरी ब्रह्मदेव कृत । समय- ई० श० ११ (जे / २ / ३३७, ३४१, ३४३) । द्रव्य संवर - दे० संबर / १ । दे० श्रुतज्ञान / III द्रव्यानुयोग — दे० अनुयोग /९ । द्रव्यार्थिकनय - १. द्रव्यार्थिकनयके भेद व लक्षण आदि-दे० नय IV / १-२ । २ व्यार्थिक व पर्यायार्थिकसे पृथ गुणार्थिक नय नहीं होतो- दे० नय / १/१/५३. निक्षेपोंका यथायोग्य द्रव्याचिकनयमें अन्तर्भाव० निक्षेप २ द्रोणाचार्य ग्रह - उत्तर कुरु व देव कुरुमें स्थित २० द्रह हैं जिनके दोनों तरफ कांचनगिरि पर्वत है-३० सी०/३/१२। ब्रहवती- पूर्वविदेहकी एक विभंगा नदी । - दे० लोक /५/८ । डुमसेन दे० बसेन । --- द्रोण- टीका एक प्रमाण ३० गणित/१/१/२ द्रोणमुख ति.प./४/१४०० दोणमुहाभिघाणं सरिवइबेलाए वेढियं जाण । समुद्रको वेलासे वेष्टित द्रोणमुख होता है । - ध. १३/२-२-६३/३१/१० समुद्रनिम्नगासमीपस्थममरन्नो निवहं द्रोणमुखंनाम जो समुद्र और नदी के समीप स्थित है, और जहाँ नौकाएँ आती जाती है, उसकी द्रोणमुख संज्ञा है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश म.पु / १६/१७३.९७५ भने द्रोणमुखं नाम्ना निम्नगातटमाश्रितम् ।... | १७३ | शतान्यष्टौ च चत्वारि द्वे च स्युग्रमसंख्यया । राजधान्यास्तथा द्रोणमुख कर्वटयो क्रमात । १७५ । जो किसी नदी के किनारेपर हो उसे द्रोणमुख कहते हैं । १७३॥ एक द्रोणमुखमे ४०० गाँव होते जि.सा./६०४-०६ (नदी करि बेरिस द्रोण है। ) द्रोणाचार्य- - (पा.पु. / सर्ग / श्लो.) कौरव तथा पाण्डवके गुरु थे । (८/ २१०-२१२) । अश्वत्थामा इनका पुत्र था । (१०/१४६-१५२) । पाण्डवोंका कौरवों द्वारा मायामहल में जलाना सुनकर दुःखी हुए। (१२/१६७) कौरवोंकी ओरसे अनेक बार पाण्डवोंसे लडे । ( १६ / ६१ ) । अन्तमें स्वयं शस्त्र छोड दिये । (२०/२२२-२३२) । धृष्टार्जुन द्वारा मारे गये (२०/२१३) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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