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________________ द्रव्य वैसा व्यवहार सम्भव नहीं है। इसलिए उनमें मुख्य प्रदेश विद्यमान रहनेपर भी परमाणुके नामसे उनका व्यवहार किया जाता है। ५. प्रदेशमेद करनेसे द्रव्य खण्डित नहीं होता १. घटादिकी भाँति धर्मादि द्रव्यों में विभागी प्रदेश नहीं हैं। अतः अविभाग प्रदेश होनेसे वे निरवयव है ( रा. वा./३/-/६/४६०/८) 1 २. प्रदेशको ही स्वतन्त्र द्रव्य मान लेनेसे द्रव्यंके गुणोंका परिणमन भी सर्वदेशमें न होकर देशांशोंमें ही होगा। परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता, क्योंकि, देहके एकदेशमें स्पर्श होनेपर सर्व शरीरमें इन्द्रियजन्य ज्ञान पाया जाता है। एक सिरेपर हिलाया माँस अपने सर्व पवनें बराबर हिलता है (पं.भ.पू./३१-३५) ३. यद्यपि परमाणु व कालाणु एकप्रदेशी भी द्रव्य हैं, परन्तु वे भी अखण्ड है। (पं.अ./पू./३६) ४. द्रव्यके प्रत्येक प्रदेशमें 'यह वही द्रव्य है' ऐसा प्रत्यय होता +1 (4.14.12./24) ६. सावयव व निरवयवपनेका समन्वय १. पुरुषकी दृष्टि से एकत्व और हाथ-पाँव आदि अंगोंकी दृष्टिसे अनेकवकी भाँति आत्माके प्रदेशोंमें द्रव्य व पर्याय दृष्टिसे एकत्व अनेकत्व के प्रति अनेकान्त है। ( रा. वा /५/८/२१/४५२ / १ ) २. एक पुरुषमें लावक पाचक आदि रूप अनेकत्वकी भाँति धर्मादि द्रव्यों में भी द्रव्यको अपेक्षा और प्रतिनियत प्रदेशोंकी अपेक्षा अनेकत्व है। (रा.वा./५/८/२१/४५२/३) ३. अखण्ड उपयोगस्वरूपकी दृष्टि एक होता हुआ भी व्यवहार दृष्टिसे आत्मा संसारावस्थामें सावयव व प्रदेशवाद है । ३. कालकी या पर्याय-पर्यायीकी अपेक्षा द्रव्यमें कथंचित् भेदाभेद १. कथंचित् अमेद पक्ष युक्ति १. पर्यायसे रहित द्रव्य ( पर्यायी ) और द्रव्यसे रहित पर्याय पायी नहीं जाती, अतः दोनों अनन्य हैं (पं.का./मू./१२) २ गुणों पर्यायोंकी सत्ता भिन्न नहीं है। (प्र.सा./मू./१००); (१.८/३/६४) (पं.प.पू./११७) २. कथंचित् भेद पक्षमें युक्ति १. जो द्रव्य है, सो गुण नहीं और जो गुण है सो पर्याय नहीं, ऐसा इनमें स्वरूप मेद पाया जाता है (म.सा./त.प्र./ १३०) ३. भेदाभेदका समन्वय • १. लक्षणकी अपेक्षा द्रव्य ( पर्यायी ) व पर्यायमें भेद है, तथा वह द्रव्यसे पृथ नहीं पायी जाती इसलिए अभेद है। (क.पा. १/१-१४/१२४१-२४४/२८०/१) (क.पा. १/१-२२/६३६४/२/०३/२) २. धर्मधर्मोरूप भेद होते हुए भी वस्तुस्वरूपसे पर्याय व पर्यायीमें भेद नहीं है। (पं.का.प्र./१२) (का.अ./मू./२४५) २. सर्व पर्यायोंमें अन्वयरूपसे पाया जानेके कारण द्रव्य एक है, तथा अपने गुणपर्यायोंकी अपेक्षा अनेक है । (ध. ३ / १, २, १ / श्लो. ५/६ ) ४. त्रिकालो पर्यायका चिन्ह होनेसे द्रव्य कथं चिद एक व अनेक है। (६.३/१.२. १ / श्लो. २/५) (५.१/४.१.४५/६६/१८३४. व्यरूपसे एक तथा पर्याय रूपसे अनेक है (राजा./१/२/९६/०/२९) (न. बी./३/ ६७१/१२३) ४५९ Jain Education International ४. सत् व द्रव्यमें कथंचित् भेदाभेद ४. मानकी अर्थात् धर्म-धर्मीकी अपेक्षा द्रव्यमें कथंचित् भेदाभेद १. कथंचित् अभेदपक्ष में युक्ति " ९. द्रव्य गुण व पर्याय ये तीनों ही धर्म प्रदेशोंसे पृथक्पृथक् होकर युतसिद्ध नहीं हैं बल्कि तादात्म्य हैं । (पं.का/मू./५०); ( स. सि. / ५ / ३८ / ३० पर उद्धृत गाथा ); (प्र. सा./त. प्र / १५, १०६ ) २. अयुतसिद्ध पदार्थोंमें संयोग व समवाय आदि किसी प्रकारका भी सम्बन्ध सम्भव नहीं है। (रा.वा /५/२/१०/४३१/२५); (क.पा/ १/१-२०/१३२३/३५४/१) ३. गुण द्रव्यके आश्रय रहते हैं । थर्मीके बिना धर्म और धर्मके बिना धर्मो टिक नहीं सकता। (पं.का./ १३); (आ.मी./०५) (२२/४०/६), (पं.ध/पू./०) ४. यदि द्रव्य स्वयं सत् नहीं तो वह द्रव्य नहीं हो सकता । (प्र. सा./मू / १०५) ५. तादात्म्य होनेके कारण गुणोंकी आत्मा या उनका शरीर ही द्रव्य है (आप्त. मी./०५); (पं./५/३६,४१८) ६. यह कहना भी युक्त नहीं है कि अभेद होनेसे उनमें परस्पर लक्ष्य लक्षण भाव न बन सकेगा, क्योंकि जैसे अभेद होनेपर भी दीपक और प्रकाश में लक्ष्य लक्षण भाव बन जाता है, उसी प्रकार आत्मा व ज्ञानमें तथा अन्य द्रव्यों व उनके गुणों में भी अभेद होते हुए लक्ष्य लक्षण भाव बन जाता है । (रा. वा. /५/२/११/४४०/१) ७. द्रव्य व उसके गुणो में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा अभेद है (पं.का./ता.वृ./४ २. कथंचित् भेदपक्षमें युक्ति १ जो द्रव्य होता है सो गुण व पर्याय नहीं होता और जो गुण पर्याय हैं वे द्रव्य नहीं होते, इस प्रकार इनमें परस्पर स्वरूप भेद है (प्र.सा./त.प्र./ १३०) २. यदि गुण गुणी रूपसे भी भेद न करे तो दोनोंमें से किसीके भी लक्षणका कथन सम्भव नहीं । (ध. २/१.२.१/६/३): (का.अ./मू./१९५०) ३. भेदाभेदका समन्वय * १. लक्ष्य लक्षण रूप भेद होनेपर भी वस्तु स्वरूपसे गुण व गुणी अभिन्न है । ( पं. का/त.प्र./६ ) २. विशेष्य-विशेषणरूप भेद होते हुए भी दोनों वस्तुत अपृथक् हैं (क.पा.१/१-१४/१२४२/ २८६ / ३) ३. द्रव्यमें गुण गुणी भेद प्रादेशिक नहीं बल्कि अतद्वाविक है अर्थात् उस उसके स्वरूपको अपेक्षा है (प्र.सा./त.प्र / १) ४. हा आदिका भेद होनेपर भी दोनों लक्ष्य लक्षण रूपसे अभिन्न हैं । ( रा. वा. २/८/६ / ११६/२२) ५. संज्ञाकी अपेक्षा भेद होनेपर भी ससाकी अपेक्षा दोनोंमें अभेद है (पं.का./त.प्र./१२) 4. संज्ञा आदिका भेद होनेपर भी स्वभावसे भेद नहीं है। (पं. का./मू./५१-५२) ७. संज्ञा लक्षण प्रयोजनसे भेद होते हुए भी दोनों में प्रदेशोंसे अमेद है (पं.का.सू./४५-४६): (आप्त, मो. ०१७२); (स.सि /५/२/२६७/७); (पं.का./त.प्र / ५०-५२ ) ८ धर्मीके प्रत्येक धर्मका अन्य अन्य प्रयोजन होता है। उनमेंसे किसी एक धर्म के मुख्य होनेवर शेष गौण हो जाते है (आप्स. मी./२२) (च.१/ ४.१.४५ / १.६८/९८३) ६ अव्यार्थिक दृष्टिसे द्रव्य एक व अखण्ड है, तथा पर्यायार्थिक दृष्टिसे उसमें प्रदेश, गुण व पर्याय आदि के भेद हैं। (पं.अ./-(४) ५. एकान्त भेद या अभेद पक्षका निरास १. एकान्त अभेद पक्षका निरास १. गुण व गुणीमें सर्वथा अभेद हो जानेपर या तो गुण ही रहेंगे, या फिर गुणी ही रहेगा । तब दोनोंका पृथक-पृथक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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