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________________ तारक तारक १, पिशाच जातीय व्यन्तर देवोंका एक भेद--दे० पिशाचः २. म. पु. / ५८ /६३ भरत क्षेत्रके मलय देशका राजा विन्ध्यशक्ति था । चिरकाल तक अनेकों योनियोमे भ्रमणकर वर्तमान भव में द्वितीय प्रतिनारायण हुआ। 1 विशेष [परिचय- दे० शलाकापुरुष / ५; ३. पा. ५/१०/६५ - अर्जुन (राण्डव) का शिष्य एवं मित्र था। मनवास के समय सहायवनमे दुर्योधन द्वारा चढाई करनेपर अपना शौर्य प्रगट किया । तारे- १. तारोंके नाम उपलब्ध नहीं है वि.प./०/३२ संपहि कालसेगं ताराणामाणं परिथ उवदेखो.. १३२१- इस समय काल वशसे द्वाराओंके नामका उपदेश नहीं है। ३६६ * ताराओंकी संख्या, भेद व उनका लोकर्मे अवस्थान -३० योषिदेव ताल प्रलंब भ.आ./वि./११२३/११३०/११ तालशब्दो न तरुविशेषवचनः किंतु वनस्पत्येकदेशस्तरुविशेष उपलक्षणाय वनस्पतीनां गृहीतं प्रलम्बं द्विविधं सम्वं कन्दमूलफलाख्यं भूम्यनुप्रवेशि कन्दमूलम् अङ्कुरणापत्राणि असम्मानितस्य प्र तालप्रलम्ब वनस्पतेरङ्कुरादिकं च लभ्यत इति । = - ताल प्रलम्ब इस सामासिक शब्द में जो ताल शब्द है उसका अर्थ ताडका वृक्ष इतना ही लोक नहीं समझते हैं। किन्तु वनस्पतिका एकदेश रूप जो ताड़का वृक्ष वह इन वनस्पत्तियोका उपलक्षण रूप समझकर उससे सम्पूर्ण वनस्पतिओं का ग्रहण करते हैं।.... " .. 'ताल प्रलम्ब' इस शब्द में जो प्रलम्ब शब्द है उसका स्पष्टीकरण करते हैं-- प्रलम्बके मूल प्रलम्ब, अग्र प्रलम्भ ऐसे दो भेद है । कन्दमूल और अंकुर जो भूमि प्रविष्ट हुए हैं उनको मूलप्रलम्ब कहते हैं । अंकुर, कोमल पत्ते, फल और कठोर पत्ते इनको अग्र प्रलम्ब कहते हैं । अर्थात तालप्रलम्भ इम शब्दका अर्थ उपलक्षण से वनस्पतियों के अंकुराबिक ऐसा होता है (, १/१.१.१/१ पर विशेषार्थ) । तिगिच्छ- निषेध पर्वतस्थ एक हद । इसमें से हरित व सीतोदा नदियाँ निकलती हैं। धृतिदेवी इसमें निवास करती हैं । -- दे० लोक/१/८ । तित्तिणदा-तितिणदा अतिचार सामान्य-३० अतिचार / 1 तिमिस्र - १. . विजयार्ध पर्वतकी कूट तथा देव - दे० लोक /५/४ | २. पाँचवे नरकका पाँच पट० नरक/३/११ तिरस्कारिणी- एक विद्या- दे० विद्या । तिरुत्तक्क तेवर Jain Education International गद्य चिन्तामणि, छत्र चूड़ामणि व जीवन्धर चम्पू के आधार पर रचित जीवक चिन्तामणि । समय-- ई श ७ । (ती./४/३१३) । · तियंच- पशु, पक्षी, कीट, पतंग यहाँ तक कि वृक्ष, जल, पृथिवी, व निगोद जीव भी तिच कहलाते है। एकेन्द्रिय पंचेन्द्रिय पर्यन्त अनेक प्रकारके कुछ जलवासी कुछ थलवासी और कुछ आकाशचारी होते हैं। इनमें से असंही पर्यन्तमसम्मूमि व मिध्यादृष्टि होते हैं । परन्तु संज्ञी तिच सम्यक्त्व व देशव्रत भी धारण कर सकते है। तियंचोंका निवास मध्य लोकके सभी असंख्यात द्वीप समुद्रोंमें है । इतना विशेष है कि अढाई द्वीपसे आगेके सभी समुद्रों में जल के अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं पाये जाते और उन द्वीपोंमें विकलत्रय नहीं पाये जाते । अन्तिम स्वयम्भूरमण सागरमें अवश्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पाये जाते है। अतः यह सारा मध्यलोक तिर्यक लोक कहलाता है । ง १ २ ३ ४ * * * * २ १ * रे ४ ५ ८ भेद व लक्षण तिर्यच सामान्यका लक्षण । जलचरादिकी अपेक्षा तिर्यथोक भेद । गर्भनादिकी अपेक्षा तिचोके भेद । मार्गणाकी अपेक्षा तिर्ययकिभेद । जीव समासोंकी अपेक्षा तिर्यचोंके भेद । २१ १२ सम्मूमितिर्वच । महामत्स्यकी विशाल काय । भोगभूमिया तिर्यंच निर्देश । - दे० जीव समास । ३० सम्मूर्च्छन । - दे० सम्मूर्च्छन । -३० भूमि तिर्यों में सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाएँ तिगति सम्यक्त्वका स्वामित्व औपशमिकादि सम्यक्का स्वामित्व । तियंच -दे० सम्यग्दर्शन / IV/ जन्म पश्चात् सम्यक्त्वग्रहणकी योग्यता । -दे० सम्यग्दर्शन /LV/२/ जन्मके पश्चात् संयम ग्रहणकी योग्यता -दे० संयम / २ | विर्य चोगे गुणस्थानों का स्वामित्व । गति - अगतिके समय सम्यक्त्व व गुणस्थान । - दे० जन्म / ६ । स्त्री, पुरुष व नपुंसकवेदी तिर्यंचों सम्बन्धी । - दे० वेद । क्षायिक सम्यग्दृष्टिसंयतासंयत मनुष्य ही होय तिर्यच नहीं । तिर्वच संयतासंयतों में शायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं। तिर्यञ्चनीमें क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं । अपर्याप्त तिर्वचिनी सम्यक्त्व क्यों नहीं। पर्याप्ता तिर्यच । - दे० पर्याप्ति । अपर्याप्त तिर्यंचोंमें सम्यक्त्व कैसे सम्भव है । अपर्याप्त विचोंमें संयमासंयम क्यों नहीं। तिचायुका बन्ध होनेपर अणुव्रत नहीं होते । - दे० आयु / ६ । -दे० ३। तिर्यंचायुके बन्ध योग्य परिणाम । ति संयत क्यों नहीं होते। १० | सर्व द्वीप समुद्रों में सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत तिर्यंच कैसे ९ सम्भव हैं। ढाई द्वीपसे बाहर सम्यक्त्वकी उत्पत्ति क्यों नहीं। कर्मभूमिया तिर्यथों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं। तिर्यच गतिके दुःख । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only -३० म.प्र./५/१००१-१३७। तिर्यंचों में संभव वेद, कषाय, लेश्या व पर्याप्ति आदि । - दे० वह वह नाम 1 www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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