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________________ तमका ३६५ तार तमका-चौथे नरकका पाँचवा पटल-दे० नरक/५/११॥ ३. तर्कौ पर समयकी मुख्यतासे व्याख्यान होता है तमसा-भरतक्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । द्र. सं./टी/४४/१६२/४ तर्के मुख्यवृत्त्यापरसमयव्याख्यानं । =तर्कमें तमिस्र-१. पांचवें नरक का पांचवां पटल-दे. नरक/५/११। मुख्यतासे अन्य मतोंका व्याख्यान होता है। २. विजयाध पर्वत की गुफा-दे लोक/३/११ ४. अन्य सम्बन्धित विषय * मतिज्ञानके तर्क प्रत्यभिज्ञान आदि मेद व इनकी उत्पत्तिका तमो-पाँचवें नरकका पहला पटल-दे० नरक/॥११ क्रम। -दे० मतिज्ञान/३ तमोर दशमी व्रत-व्रतविधान सं./पृ. १३० 'तम्बोल दशमि व्रत- * आगम प्रमाणमें तर्क नहीं चलता। -दे० आगम/६ को यह बोर, दश सुपात्रको देय तमोर ।' (यह व्रत श्वेताम्बर व * आगम सुतर्क द्वारा बाधित नहीं होता। --दे० आगम/५ स्थानकवासी आनायमे प्रचलित है।) * आगम विरुद्धतर्क तर्क ही नहीं। -दे० आगम/ तर्क-का लक्षण * तर्क आगम व सिद्धान्तोंमें अन्तर । -दे० पद्धति तत्वार्थाधिगमभाष्य/१/१५ ईहा, ऊहा तर्कः परीक्षा विचारणा जिज्ञासा * स्वभावमें तर्क नहीं चलता। -दे० स्वभाव/२ इत्यनान्तरम् । = ईहा, ऊहा, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा जित-कायोत्सर्गका एक अतिचार -दे० व्युत्सर्ग/ यह सन शब्द एक अर्थवाले है। श्लो. बा./३/१/१३/११६/२६८/२२ साध्यसाधनसंबन्धाज्ञानविवृत्तिरूपे तलवर-त्रि. सा./टी./६८३ तलवर कहिये कोटवाल । साक्षात स्वार्थ निश्चयने फले साधकतमस्तकः । = साध्य और साधन- तात्पर्यवृत्ति-इस नामकी कई टीकाएँ उपलब्ध हैं-१. आ० के अविनाभावरूप सम्बन्धके अज्ञानकी निवृति करना रूप स्वार्थ अभयनन्दि (ई० ६३०-६५०) कृत तत्त्वार्थ सूत्रको टोका; २. आ० निश्चयस्वरूप अव्यवहित फलको उत्पन्न करनेमें जो प्रकृष्ट उपकारक विद्यानन्दि कृत अष्ट सहस्रोकी लघु समन्तभद्र (ई० १०००) कृत वृत्ति; है, उसे तर्क कहते है। ३. आचार्य जयसेन (ई० श०११-१२) कृत समयसार, प्रवचनसार व प.मु./३/११-१३ उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं ब्याप्तिज्ञानमूहः १११॥ इदम पंचास्तिकायको टीकाएँ। स्मिन्सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च।१२॥ यथाग्नावेव धूमस्तदभावे तादात्म्य संबन्ध-स.सा./३३/१७,६१ अग्नेरुष्णगुणेनैव म भवत्येवेति च ।१३।- उपलब्धि और अनुपलब्धिकी सहायतासे सह होनेवाले व्याप्तिज्ञानको तर्क कहते हैं, और उसका स्वरूप है कि तादात्म्यलक्षणसबन्धः ॥५७ यत्किल सर्वास्वप्यवस्था यदात्मइसके होते ही यह होता है इसके न होते होता ही नहीं, जैसे कत्वेन व्याप्त भवति तदात्मकत्वव्याप्तिशून्यं न भवति तस्य तैः सह तादात्म्यलक्षणसंबन्धः स्यात् । अग्नि और उष्णताके साथ तादात्म्य अग्निके होते ही धुआँ होता है और अग्निके न होते होता ही रूप सम्बन्ध है।५७। जो निश्चयसे समस्त ही अवस्थाओं में यदनहीं है। आत्मकपनेसे अर्थात् जिस स्वरूपपनै से व्याप्त हो और तद्-आत्मकन्या. दी./३/६१५-१६/६२/१ व्याप्तिज्ञानं तर्क. । साध्यसाधनयोर्गम्य पनेकी अर्थात उस स्वरूपपनेकी व्याप्तिसे रहित न हो उसका उनके गमकभावप्रयोजको व्यभिचारगन्धासहिष्णुः संबन्धविशेषो व्याप्तिर साथ तादात्म्य लक्षण सम्बन्ध होता है। विनाभाव इति च व्यपदिश्यते। तत्सामाखल्वग्न्यादि धूमादिरैव गमयति न तु घटादि; तदभावात् । तस्याश्चाविनाभावापर- ताप-स.सि./६/११/३२६/१ परिवादादिनिमित्तादाविलान्तःकरणस्य नाम्न्याः व्याप्तेः; प्रमितौ यत्साधकतम तदिदं तारख्यं प्रमाणमि- तीवानुशयस्तापः । -अपवाद आदिके निमित्तसे मनके खिन्न होने त्यर्थः ।...यत्र यत्र धूमवत्त्वं तत्र तत्राग्निमत्त्वमिति । -व्याप्तिके पर जो तीव्र अनुशय सन्ताप होता है, वह ताप है। (रा.वा./५/११ ज्ञानको तर्क कहते हैं। साध्य और साधनमें गम्य और गमक (बोध्य 1३/११)। और बोधक) भावका साधक और व्यभिचारीकी गन्धसे रहित स्या.म./३२/३४२/ पर उद्धृत श्लो० ३ जीवाइभाववाओ बंधाइपसाइगो जो सम्बन्ध विशेष है, उसे व्याप्ति कहते हैं। उसोको अविनाभाव इदं तावो। जीवोंसे सम्बद्ध दुख और बन्धको सहना करना भी कहते हैं। उस व्याप्तिके होनेसे अग्नि आदिको धूमादिक ही ताप है। जनाते हैं, घटादिक नहीं। क्योंकि घटादिककी अग्नि आदिके साथ व्याप्ति नहीं है। इस अविनाभाव रूप व्याप्तिके ज्ञानमें जो तापन- तीसरे नरकका चौथा पटल- दे० नरक/५/१५॥ साधकतम है वह यही तर्क नामका प्रमाण है। ...उदाहरण-जहाँ महाँ धूम होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती है। तापस-१. एक विनयवादी-दे० वैनयिक; २. भरतक्षेत्र पश्चिम स्या. म./२८/३२१/२७ उपलम्भानुपलम्भसभवं त्रिकालीकलि तसाध्य साधनमबन्धाद्यालम्बनमिदमस्मिन् सत्यैव भवतीत्याद्याकार संवेदन आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । मूहस्तर्कापरपर्यायः । यथा यावान् कश्चिद् धूमः स सर्वो बह्नौ तापी-भरत क्षेत्रस्थ आर्यखण्डकी एक नदी-दे. मनुष्य/४ । सत्येव भवतीति तस्मिन्नसति असौ न भवत्येवेति वा। - उपलम्भ तामस दान-दे० दान । और अनुपलम्भसे उत्पन्न तीन कालमें होनेवाले साध्य साधनके तामिल वेद-एलाचार्य (अपरनाम कुन्दकुन्द) द्वारा रचित कुरलसम्बन्ध आदिसे होनेवाले, इसके होनेपर यह होता है, इस प्रकारके ज्ञानको ऊह अथवा तर्क कहते हैं जैसे-अग्निके होनेपर ही धूम काव्यका अपरनाम है। होता है, अग्निके न होनेपर धूम नहीं होता है। ताम्रलिप्ती-वर्तमान ताम्रलक नगर। सुह्म देशकी राजधानी थी २. तर्कामासका लक्षण (म.पु./प्र.४६/पं. पन्नालाल)। प. मु./६/१०/५५ असंबद्ध तज्ज्ञानं तर्काभासं ॥१०॥ =जिन पदार्थोंका ताम्रा-पूर्व आर्यखण्डस्थ एक नदी-दे० मनुष्य/४। आपसमें सम्बन्ध नहीं उनका सम्बन्ध मानना तर्काभास है। तार-चतुर्थ नरकका तृतीय पटल-दे० नरक/५/११॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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