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________________ तियंच ३६७ २. तिथंचोमे सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाएँ कौन तियं च मरकर कहाँ उत्पन्न हो और क्या गुण प्राप्त करे -दे. जन्म/६। तिर्यंच गतिमें १४ मार्गणाओके अस्तित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ। -दे० सत्। तिर्यच गतिमें सत्, संख्या, क्षेत्र, पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्प-बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ -दे०वह वह नाम । तिर्य च गतिमें कर्मोका बन्ध उदय व सत्त प्ररूपणाएँ व तत्सम्बन्धी नियमादि। -दे. वह वह नाम । तियचगति व आयुकर्मकी प्रकृतियाँके बन्ध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्सम्बन्धी नियमादि । -दे० वह वह नाम । भाव मार्गणाकी इष्टता तथा उसमें भी आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम । -दे० मार्गणा। * घ./१३/५,९,१४०/३६२/२ तिरः अञ्चन्ति कौटिल्यमिति तिर्यञ्च । "तिर.' अर्थात कुटिलताको प्राप्त होते हैं वे तिर्यच कहलाते हैं। २. जलचर आदिकी अपेक्षा तियचोंके भेद रा, वा/३/३६/५/२०६/३० पञ्चेन्द्रिया' तैर्यग्योनय पञ्चविधाः-जलचरा', परिस, उरगाः, पक्षिण , चतुष्पादश्चेति । - पञ्चेन्द्रिय तिर्यच पाँच प्रकारके होते हैं-जलचर-(मछली आदि), परिसर्प (गो. नकुलादि); उरग-सर्प, पक्षी, और चतुष्पद । पं. का./ता. वृ./११८/१८१/११ पृथिव्याध केन्द्रियभेदेन शम्बूकयूकोद्द शकादिविकलेन्द्रियभेदेन जलचरस्थलचरखचर द्विपदचतु पदादिपञ्चेन्द्रियभेदेन तिर्यञ्चो बहुप्रकारा' । =तियंचगतिके जीव पृथिवी आदि एकेन्द्रियके भेदसे; शम्बूक, जूव मच्छर आदि विकलेन्द्रियके भेदसे; जलचर, स्थलचर, आकाशचर, द्विपद, चतुष्पदादि पञ्चेन्द्रियके भेदसे बहुत प्रकारके होते हैं। ३. गर्भजादिकी अपेक्षा तियचोंके भेद का, आ./१२६-१३० पंचक्खा वि य तिविहा जल-थल-आयासगामिणो तिरिया। पत्तेयं ते दुबिहा मगेण जुत्ता अजुत्ता य ।१२६॥ ते वि पुणो वि य दुविहा गब्भजजम्मा तहेव संमुच्छा। भोगभुवा गम्भ-भुवा थलयर गह-गामिणो सण्णी ।१३०। पंचेन्द्रिय तियच जीवोके भी तीन भेद है-जलचर, थलचर और नभचर । इन तीनों में से प्रत्येकके दो-दो भेद हैं-सैनी और असैनी ।१२६। इन छह प्रकारके तिर्यचोके भी दो भेद है-गर्भज, दूसरा सम्मूछिम जन्मवाले... । ४. मार्गणाकी अपेक्षा तिर्यंचोंके भेद ध. १/१,१,२६/२०८/३ तिर्यञ्चः पञ्चविधा', तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च', पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियपर्याप्ततिरश्च्यः । पञ्चेन्द्रियापर्याप्ततिर्यञ्च इति । --तिर्यंच पाँच प्रकार के होते है-सामान्य तियंच, पचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रियपर्याप्ततिर्यञ्च, पंचेन्द्रिय पर्याप्त-योनिमती, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त-तियच । (गो. जी./मू. १५०) । तिथंच लोक निर्देश तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश । तिर्यंच लोकके नामका सार्थक्य । ३ तिर्यंच लोककी सीमा व विस्तार सम्बन्धी दृष्टि भेद। विकलेन्द्रिय जीवोंका अवस्थान । | पंचेन्द्रिय तिर्य चोंका अवस्थान । जलचर जीवोंका अवस्थान । | कर्म व भोग भूगियोंमें जीवोका असस्थान। -दे० भूमि। तैजस कायिकोंके अवस्थान सम्बन्धी दृष्टि भेद। -दे० काय/२/५। मारणान्तिक समुद्धातगत महामत्स्य सम्बन्धी भेद दृष्टि । ---दे० मरण/५/६। ७ | वैरी जीवोंके कारण विकलत्रय सर्वत्र तिर्यक लोक में | होते हैं। २. तिर्यंचोंमें सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाएँ १. भेद व लक्षण १. तिथंच सामान्यका लक्षण त. सू./४/२७ औपपादिकमनुष्येभ्य शेषास्तियग्योनाय ।२७ उपपाद जन्मवाले और मनुष्योके सिवा शेष सब जीव तिर्यचयोनि वाले हैं ।२७१ घ. १/१,१.२४/गा. १२६/२०२ तिरियंति कुडिल-भावं सुवियड-सण्णाणिगिट्ठमण्णाणा। अच्चंत-पाव-बहुला तम्हा तेरिच्छया णाम । - जो मन, वचन और कायकी कुटिलताको प्राप्त हैं, जिनकी आहारादि संज्ञाएँ सुव्यक्त हैं, जो निकृष्ट अज्ञानी हैं और जिनके अत्यधिक पापकी बहुलता पायी जावे उनको तिर्यच कहते हैं ।१२।। (प. सं /प्रा./२/ ६१); ( गो जी./म् /१४८ )। रा, वा./४/२७/३/२४५/ तिरोभावो न्यग्भार उपबाह्यत्व मित्यर्थः, तत' कर्मोदयापादितभावा तिर्यग्यो निरित्याख्यायते । तिरश्चियो निर्येषां ते तिर्यग्योनयः ।-तिरोभाव अर्थात नीचे रहना-बोझा ढोनेके लायक । कर्मोदयसे जिनमें तिरोभाव प्राप्त हो वे तिर्यग्योनि है। १.तियच गतिमें सम्यक्त्वका स्वामित्व प.वं./१/१,१/सू. १५६-१६१/४०१ तिरिक्ख अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्टी असंजदसम्माइट्ठी संजदासजदा त्ति ।१५६। एवं जाव सव्व दीव-समुद्देसु ॥१५७॥ तिरिक्वा असंजदसम्माइट्ठि-हाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी ।१५८। तिरिक्खा संजदासंजदहाणे खइयसम्माइट्ठी णस्थि अवसेसा अस्थि ।१५। एवं पचि दियतिरिवा-पज्जत्ता १६० पचिदिय-तिरिक्रव-जोणिणीसु असंजदसम्माइट्ठी-संजदासंजदठाणे खइयसम्माइट ठी णत्थि, अवसेसा अस्थि ।१६१-तिर्यच मिथ्यावृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सभ्यग्मिध्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत होते हैं ।१५६। इस प्रकार समस्त द्वीप-समुद्रवर्ती तिर्यचोंमें समझना चाहिए ।१५७। तियच असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते है।१५८० तिर्यंच संयतासंयत गुणस्थानमे क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते है । शेषके दो सम्यग्दर्शनोसे युक्त होते हैं ।१५। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यच और पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियच भी होते हैं ।१६०॥ योनिमती पंचेन्द्रिय तियंचोके असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयतगुणस्थानमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते हैं। शेषके दो सम्यग्दर्शनोसे युक्त होते है ।१६१॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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