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________________ जाति आर्य हो सकते हैं, जिनका विस्तार श्री पात्रकेसरी रचित त्रिलक्षण कदर्थशास्त्रमें दिया गया है। अतः यहाँ उसका विस्तार नहीं किया गया है । ३. उपरोक्त २४ जातियोंके लक्षण दे० वह वह नाम । जाति आर्य ३० आर्य । जाति-विजाति उपचार- दे० उपचार । जाति मंत्र - दे० मन्त्र १/६ । जाति मद - दे० मद । जालंधर (पा./१०/ श्लोक नं.), अर्जुन द्वारा कीचकले मारे जानेपर पाण्डवोंके विनाशके लिए जालन्धर युद्धको प्रस्तुत हुआ | १३ | तहाँ पाण्डवोंने राजा विराटको युद्धमें बाँध लिया | २२ | और गुप्तवेदी अर्जुन द्वारा बाँध लिया गया |४०|. 1 जाल-बारिक शरीरमें जालोंका प्रमाण दे० औदारिक/१/७ जिज्ञासातत्त्वाधिगमभाष्य/१/१५ ईहा जहा तर्क परीक्षा विचारणा जिज्ञासा इत्यनन्तरम्। ईहा, कहा, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा ये सम एकार्थाची है। न्या. दर्शन/भाष्य /१/२/२२/२३/१० तत्राप्रतीयमाने प्रार्थस्य प्रमत्तिका जिज्ञासा । प्रज्ञात पदार्थके जाननेकी इच्छाका नाम जिज्ञासा है। जित कषाय- सा/ता. वृ/२४०/३३३/१४ व्यवहारेण क्रोधादिकषायजयेन जितकषाय निश्चयेन चाकषायात्मभावनारतः । - व्यवहारसे क्रोधादि कषायोंके जीतनेसे और निश्चयसे अकषाय स्वरूप भारत रहनेसे जिसकपाय है। ३२८ - जितदंड - पुनाट संघकी गुर्वावलोके अनुसार आप नागहस्ती के शिष्य तथा नन्दिषेणके गुरु थे । दे० इतिहास / ७/८ । जित द्रव्य निक्षेप दे०/५ जितमोह (स.सा./१२) जो मोठं तुला जागसहायाधियं सुज आई। जिदमोह साडू परमदुनियामा विति। जो मुनि मोहको जीतकर अपने आत्माको ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्य द्रव्यभावों से अधिक जानता है, उस मुनिको परमार्थके जाननेवाले जितमोह कहते हैं । जितशत्रु-१६. पु/१४/लो. नं.) पूर्वभवनं भानुका पुत्र शूरसेन था । ६७-६८ । पूर्वभव नं. २ में चित्रचूल विद्याधरका पुत्र हिमचूल था । ९३२-१९३३ । पूर्वभव नं. १ में राजा गङ्गदेवका पुत्र नन्दिषेण था । १४२ - १४३ । ( ह. पु. / सर्ग / श्लो. नं. ) - वर्तमान भव में में सुदेवका पुत्र (३५/०) देवने जन्मते ही सुदृष्टि सेठके यहाँ पहुँचा दिया (१३/०) वहीं पर पोषण हुआ पीछे दीक्षा धारण कर ली (५६ / ११५-२० ) । घोर तप किया ( ६० / ७) । अन्तमें गिरनार पर्वतसे मोक्ष सिधारे (६५/१६-१७) २. (ह. ५/६६/५-१०) जितशत्रु भगवान् महावीरके पिता राजा सिद्धार्थ की छोटी बहनसे विवाहे गये थे। इनको यशोधा नामकी एक कन्या थी, जिसका विवाह उन्होंने भगवान् वीरसे करना चाहा। पर भगवान् ने दीक्षा धारण कर ली। पश्चात् ये भी दीक्षा धार मोक्ष गये । ३. द्वितीय रुद्र थे- दे० शलाका पुरुष / ७ । जितेन्द्रियस.सा./११ जो इंदिये जिपिता नागसहायाधिवं मुगदि आई। तं खलु जिदिदियं ते भांति जे णिच्छिदा साहू | ३११ - जो इन्द्रियोंको - Jain Education International जिन जीतकर ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्य द्रव्य से अधिक आत्माको जानते हैं, उन्हें जो निश्चयनयमे स्थित साधु है वे वास्तवमे जितेन्द्रिय कहते हैं। त. अनु / ७६ इन्द्रियाणां प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मनः प्रभु' । मन एव जयेतस्मारितेतस्मिन् जितेन्द्रियः । इन्द्रियो की प्रवृति और । ७६ निवृत्ति दोनों में मन प्रभु है, इसलिए मनको ही जीतना चाहिए । मनके जीतनेवर मनुष्य जितेन्द्रिय होता है। २. इद्रिय व मनको जीनका उपाय ०२ जिन - १. जिन सामान्यका लक्षण मू. आ./ १६१ जिदको हमाणमाया जिदलोहा तेण ते जिणा होंति । क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायोंको जीत लेने के कारण अर्हन्त भगवाद जिन है [म. सं. डी./१४/०७/१० भ. आ / वि / ३१८/५३१/२२ कर्मैकदेशानां च जयात धर्मोऽपि कर्माण्यभिभवति इति जनशब्देनोच्यते । =धर्म भी कर्मोंका पराभव करता है अत उसको भी जिन कहते है । नि.सा./ता.वृ./१ अनेकजन्मापहेतु समस्तमोहरागद्वेपारीच जयतीति जिनः । = अनेक जन्मरूप अटवीको प्राप्त करानेके हेतुभूत समस्त मोहरागद्वेषादिरूको जो जीत लेता है वह जिन है। पं.का./ता.वृ./१/४/१० या कमरातीन् जयतीति जिन' । अनेक भवोंके गहन विषयोंरूप संकटों की प्राप्तिके कारणभूत कर्मरूपी शत्रुओंको जीतता है, वह जिन है । (स.श./टी./२/२२३/५ ) । २. जिनके भेद १. विदेशजन ध. ६/४,१, १/१०/७ जिणा दुविहा सयलदेस जिणभेएण । सकलजिन व देश जिनके भेदगे जिन दो प्रकार हैं । २. निक्षेप मैद घ. १/४.१.१/६०० (निक्षेप सामान्यके भेदोके अनुरूप है। ३. सकल व देश जिनके लक्षण 1= घ. ६/४.१, १/१० / ७ खवियघाइकम्मा सयलजिणा। के ते अरहंत सिद्धा । अवरे आइरिय उवज्झाय साहू देसजिणा तिव्वकसाई दिय- मोहविजयादो । जो घातिया कर्मोंका क्षय कर चुके हैं वे सकल जिन हैं । वे कौन हैं-- अर्हन्त और सिद्ध इतर आचार्य, उपाध्याय और साधु तीव्र कषाय, इन्द्रिय एवं मोहके जीत लेनेके कारण देश जिन हैं । - नि. सा./ता.वृ./ २४३.२६३ स्वमक्ष जीमयुक्त को जिनेश्रादेषः । २४३ ॥ सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः । न कामपि भियां क्वापि तां विद्मो हा जडा वयम् । २५३ - जो जीव स्ववश हैं वे जीवन्मुक्त हैं, जिनेश्वरसे किंचित् न्यून है । २४३ | सर्वज्ञ वीतराग में और इस स्ववश योगी में कभी कुछ भी भेद नहीं है, तथापि अरेरे! हम जड़ हैं कि उनमें भेद मानते हैं ॥ २५३॥ प्र. सा./ता.वृ./ २०१ / २७१/१३ सासादनादिक्षीणकषायान्ता एकदेश जिना उच्यन्ते । = सासादन गुणस्थान से लेकर क्षीण कषाय गुणस्थान पर्यन्त एकदेश जनहलाते हैं। द्र. सं./टी./१/५/१० जितमिथ्यात्वरागादिश्वेन एकदेश जिना असंयतसम्यग्दृष्ट्यादय । मिथ्यात्व तथा रागादिको जीतनेके कारण असंयत सम्यग्दृष्टि आदि ( देश संयत श्रावक व सक्ल संयत साधु ) एकदेश जिन है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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