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________________ जाति ( नामकर्म ) - जिस कर्मस्कन्धसे जीवोंके अत्यन्त सदृशता उत्पन्न होती है, वह कर्मस्कन्ध कारणमें कार्यके उपचारसे 'जाति' इस नामवाला कहलाता है। ६/१३/२२.१०१/३६३/६ इंदिय-वेदितेदिय चरिदिय पंचि दिभावविर्य जं समं तं जादि नार्म जो कर्म एकेन्द्रिय हीन्द्रिय द्रय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय भावका मनानेवाला है वह जाति नामकर्म है । २. नामकर्मके भेद प.सं. ६/११-१/२०/६० तं जादिणामकम्मं तं पंच दिय जादिणामकम्म, वीइंदियजादिनामकम्मं, तीहंदिदिणामक चरिदियजादिणामकम्मं पंचिदियजादिणामकम्मं चेदि जो जाति नामकर्म है वह पाँच प्रकारका है-एकेन्द्रियजातिनामकर्म, इन्द्रियजातिनामकर्म त्रीन्द्रियजातिनाम, चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म और पंचेन्द्रियजातिनामकर्म (प. नं. १३/५.६/१०३/३६०): (पं.सं./ /२/४/४६/२०) (स.सि./९/११/२०१/४ ) ( रा. वा. // १९/२/०६/११) (गो, क/जी. प्र./२३/२/१८) और भी-३० नाम कर्म-असं रूपात भेद हैं- ३. एकेन्द्रियादि जाति नामकमोंके लक्षण स. सि/ ०/११/३८१/५ यदुदवारमा एकेन्द्रिय इति शम्यते तदेकेन्द्रियजातिनाम । एवं शेषेष्वपि योज्यम् । -जिसके उदयसे आत्मा एकेन्द्र कहा जाता है वह एकेन्द्रिय जाति नामकर्म है। इसी प्रकार शेष जातियों में भी लागू कर लेना चाहिए। ( रा. वा./८/११/२/ ५७६ / १३ ) । ३२७ Jain Education International जाति (न्याय) आकारवाले हो जायेगे । किन्तु इस प्रकार है नहीं, क्योंकि, इस प्रकारके वे पाये नहीं जाते तथा प्रतिनियत सदृश परिणामो में अवस्थित वृक्ष आदि पाये जाते है। घ. १३/५,५/१०९ / ३६३/१० जादी णाम सरिसप्पच्चयगेज्मा । ण च तुणतरुमरे सरिसत्तमस्थि, दो चिडियासु (1) सरिसभानावर्सभादो 1 ण जलाहारग्गहणेण दोष्णं पि समाणत्तदंसणादो । प्रश्नजाति तो से ग्राह्य है. परन्तु तृण और मुंहोंने समानता है नहीं 1 उत्तर - नहीं, क्योंकि जल व आहार ग्रहण करनेकी अपेक्षा दोनोंमें ही समानता देखो जाती है। ५. एकेन्द्रिय जातिके बन्धयोग्य परिणाम = पं. का./ता. वृ/१९१०/१७५/१० स्पर्शनेन्द्रियविषयलाम्पट्यपरिणतेन जीवेन यदुपार्जित स्पर्शनेन्द्रियजनमेवेद्रियजातिनामकर्म स्पर्शनेन्द्रिय विषयकी सम्पतरूपसे परिगत होनेके द्वारा जीव स्पर्शनेन्द्रिय जन एकेन्द्रिय जाति नामकर्म बाँचता है। ६. अन्य सम्बन्धित विषय १. जाति नामकर्म की बन्ध उदय सत्त्वरूप प्ररूपणाए ४. जाति नामकर्मके अस्तित्व की सिद्धि 9 " घ. ६/१.११.२०/२१/४ जदि परिणामिओ सरिसपरिणामी परिथ तो सरिसपरिणामकज्जन्हापुनवत्तदो तस्कारणमस्स अत्थितं सिन्। किंतु गंगाभावादिपरिणामिओ सरिसपरिणामो उवलम्भदे, तदो अयंतियादो सरिसपरिणामो अप्पणी कारणीभूदकम्मस्स अत्थितं ण साहेदिति । ण एस दोसो गंगाबा आणं पुद्धविकाश्यणामकम्मोदएण सरिसपरिणामत्तन्भुवगमादो ।... किं च जदि जीव डिग्गहिदपोग्गलक्खं दस रिसपरिणामो पारिणामिओ वि अस्थि, तो हेऊ अणेयंतिओ होज्ज । ण च एवं तहाणुवलंभा । जदि जीवाणं सरिसपरिणामो कम्मायतो न हो तो चठरिदिया हयहरिथ-वय-वग्घ छवल्लादि संठाणा होज्ज, पंचिदिया वि भमर-मक्कुणसहिदगोव-ल-रुक्लठाणा होज्ज गचैवमनसंभा पछिविदसरिसपरिणामे अब द्विदरुवखादीणमुवाच प्रश्न- यदि पारिणामिक अर्थात् परिणमन करानेवाले कारणके सदृश परिणाम नहीं होता है, तो सदश परिणामरूप कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता, इस अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुसे उसके कारणभूत कर्मका अस्तित्व भले ही सिद्ध होवे । किन्तु गंगा नदोकी बालुका आदिमें पारिणामिक (स्वाभाविक) सह परिणाम पाया जाता है, इसलिए हेतु अनेकान्तिक होनेसे सहा परिणाम अपने कारणीभूत कर्मके अस्तित्वको नहीं सिद्ध करता । उत्तर- यह कोई दोष नहीं. क्योंकि, गंगानदीकी बालुकाके (भी) पृथिवीकायिक नामकर्मके उदयसे सदृश परिणामता मानी गयी है |... दूसरी बात यह है, कि यदि जीवके द्वारा ग्रहण किये गये पुडुगल-स्कन्धौका सदशपरिणाम पारिणामिक भी हो, तो हेतु अनैकान्तिक होवे । किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, उस प्रकारका अनुपलम्भ है। यदि जीवोंका सदृश परिणाम कर्मके अधीन म होने, तो चतुरिन्द्रिय जीम मोड़ा हाथी भेड़िया, नाम और चवत आदि आकारवाले हो जायेंगे तथा पंचेन्द्रिय जीव भी भ्रमर मत्कुण, शलभ, इन्द्रगोप, क्षुल्लक, अक्ष और वृक्ष आदिके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - दे० वह वह नाम । जाति ( न्याय ) १. लक्षण न्या. सू. सू./१/२/१८ साधर्म्यम्य प्रत्यवस्थानं जातिः १८। साधर्म्य और वैधर्म्य से जो प्रत्यवस्थान (दूषण) दिया जाता है उसको जाति कहते हैं ( श्लो. वा. / ४ / न्या / ३०६/४५६. ) न्या. वि./मू./२/२०३ / २३३ मिध्योत्तर जातिः यथानेका विि षाम् ] २०३ । न्या. वि./ /२/२०३/२३३/३ मानोपपन्ने साये धर्मे यस्मिद् मिथ्योतर भूतदोषस्योद्भावयितुमशक्यत्वेना सदूषणोद्भावनं सा जातिः । = एकान्तवादियोंकी भाँति मिथ्या उत्तर देना जाति है । अर्थात् प्रमाणसे उपपन्न साध्यरूप धर्ममें सद्भूत दोषका उठाना तो सम्भव नहीं है. ऐसा समझ कर अदभूत हो दोष उठाते हुए मिथ्या उत्तर देना जाति है। क्लो. वा. /२/ प्या. ४५८/५५०१६). स्या. म. / १० / ११२/१८ सम्यगृहेतौ हेत्वाभासे वा वादिना प्रयुक्ते, झटिति तद्दोषतत्त्वाप्रतिभासे हेतु प्रतिबिम्बनप्रायं किमपि प्रत्यवस्थानं जातिः दूषणाभास इत्यर्थः । वादी के द्वारा सम्यग् हेतु अथवा लामासके प्रयोग करनेपर, वादी के हेतुकी सदोषताकी विना परीक्षा किये हुए हेतुके समान मातृम होनेवाला शोधता कुछ भी कह देना जाति है। २. जातिके भेद न्या. सू./मू./५/२/१/५८६ साधर्म्यवैधम्र्योत्कषायकर्ष वर्ण्यवर्ण्यविकल्पसाभ्यामतिप्रसङ्गप्रतिदृष्टान्तामुत्पन्तिसंशयप्रकरण हाय विशेषन्ध्यनुपलब्धिनित्यानित्यकार्यसमाः |१| जाति २४ प्रकार की है- १. साधर्म्यसमः २. वैधर्म्यसमः ३. उत्कर्षसम; ४. अपकर्षसमः ५. वर्ण्यसमः ६, अवर्ण्यसम; ७. विकल्पसम ८ साध्यसम ६ प्राप्तिसम: १० अप्राप्तिसमः ११. प्रसंगसम; १२. प्रतिष्टान्तसम: ११. अनुत्पत्तिसमः १४. संशयसमः ११. प्रकरणसमः १६. हेतुसम १०. अतिसमः १८ अविशेषसमः ११. उपपत्तिसमः २०. उपलब्धिसमः २९, अनुपलब्धिराम २२. नित्यसमा २३. अनित्यसम और २४ कार्यसम । ( श्लो० वा. ४/ न्या. ३९६/४६१/३ ). न्या. वि./मू./२/२००/२२४ मिष्योत्तराणामानन्याच्या वा विस्तरोतितः । साधर्म्यादिसमत्वेन जातिर्ने प्रतन्यते । २०७१ (जैन मैयायिक जातिके २४ भेद ही नहीं मानते ) क्योंकि मिथ्या उत्तर अनन्त www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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