SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनकल्प ३२९ जिनमुखावलोकनव्रत ४. अवधि व विद्याधर जिनोंके लक्षण ध.६/४,१.१/४०/५ अवधयश्च ते जिनाश्च अवधिजिना.। ध.६/४,१,१/७५/७ सिद्धविज्जाणं पेसणं जे ण इच्छति केवल धरति चेव अण्णाणणिवित्तीए ते विज्जाहरजिणा णाम । अवधिज्ञान स्वरूप जो जिन वे अवधि जिन है । जो सिद्ध हुई विद्याओंसे काम लेनेकी इच्छा नहीं करते, केवल अज्ञानकी निवृत्तिके लिए उन्हे धारण करते है, वे विद्याधर जिन हैं। ५. निक्षेपों रूप जिनोंके लक्षण ध.६/४,१,१/६-८ सारार्थ (निक्षेपोके लक्षणोके अनुरूप हैं)। ६. पाँचों परमेष्ठी तथा अन्य सभी सम्यग्दृष्टियों को जिन संज्ञा प्राप्त है-दे० जिन/३। जिनकल्प-१. जिनकल्प साधुका स्वरूप भ, आ./वि./१५५/३५६/१७ जिनकल्पो निरूप्यते-जितरागट्टेषमोहा उपसर्गपरीषहारिवेगसहाः, जिना इव विहरन्ति इति जिनकल्पिका एक एवेत्यतिशयो जिनकल्पिकानाम् । इतरो लिङ्गादिराचार. प्रायेण व्यानणितरूप एव । = जिन्होंने राग-द्वेष और मोहको जीत लिया है, उपसर्ग और परीषहरूपी शत्रुके वेगको जो सहते है, और जो जिनेन्द्र भगवान्के समान विहार करते है, ऐसे मुनियों को जिनकल्पी मुनि कहते हैं। इतनी ही विशेषता इन सुनियों में रहती है। बाकी सब लिंगादि आचार प्राय जैसा पूर्व में वर्णन किया है, वैसा ही इनका भी समझना चाहिए। (अर्थात अहाईस मूल गुण आदिका पालन ये भी अन्य साधुओंवत् करते हैं।) (और भी-दे० एकल विहारो)। २. जिनकल्पी साधु उत्तम संहनन व सामायिक चारित्र पाला ही होता है गो, क.,जो प्र./५४७/७१४/५ श्रीवर्द्धमानस्वामिना प्राक्तनोत्तमसंहननजिनकल्पचारपापरिणतेषु तदेकधा चारित्रम् । = श्री वर्द्धमानस्वामीसे पहिले उत्तम संहननके धारी जिनकल्प आचरणरूप परिणते मुनि तिनके सामाधिकरूप एक ही चारित्र कहा है। जिनगुण संपत्ति व्रत इस व्रतको तीन विधि है-उत्तम, मध्य व जघन्य, १. उत्तम विधि-अर्हन्त भगवान के १. जन्मके १० अतिशयोंकी १० दशगियाँ २. केवलज्ञानके १० अतिशयोंकी दश दशमियाँ: ३. देवकृत १४ अतिशयोकी १४ चतुर्दशियाँ, ८ प्रातिहार्योंकी ८ अष्ठमियाँ, षोडशकारण भावनाओ की १६ प्रतिपदाएँ;६. पाँच कल्याणकोंकी। पंचमियॉ; इस प्रकार ६३ तिथियोके ६३ उपवास १० मास में पूरे करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (ह. पु/३४/१२२); बत विधान संग्रह/पृ. ६४); (किशनसिंह क्रियाकोश)। २. मध्यम विधि-६६ दिनमे निम्नक्रमसे ३६ उपवास ब ३० पारणा करे। 'ओ ह्रीं अर्हन्त परमेष्ठिने नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। क्रम(व, के स्थान पर पारणा समझना-२,१,१,१,१,१,२,१.१,१,१,१७ २,१,१,१,१,१२,१,१.१.१,१२,१,१,१,१.१। (वर्द्ध मान पुराण); (वत विधान संग्रह/पृ. ६५)। ३. जघन्य विधि-उपरोक्त ६३ गुणों के उपलक्ष्य में ६३ दिन तक एकाशना करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । (बत-विधान संग्रह/पृ.६६); (किशन सिह क्रियाकोश)। थे। समय-प्र० दृष्टि के अनुसार श सं. ४०-४६ (वी. नि. ६४५६५४) । द्वि० दृष्टि के अनुसार वी. नि. ६१४-६५४। दूसरी ओर एक जिन चन्द्र भद्रबाहु गणी के प्रशिष्य थे जिन्होंने वि स. १३६ (बी नि ६०६) में श्वेताम्बर संघ की नींव डाली थी। विशेष दे. कोश १/परिशिष्ट ४/३)। २ मुनि चन्द्र नन्दि के शिष्य । कन्नड कवि पोन्न के शान्ति पुराण में उल्लिखित । पोन्न (वि. १००७, ई. १५०) से पूर्व । जै./२/३६५) । ३. भास्कर नन्दि के गुरु । कृतिसिद्धान्तसार । ई. श, ११ का उत्तरार्ध १२ का पूर्व । (ती./३/१८६)। ४. श्रवण बेल के शिलालेस्व नं०५५ या ६६ (वि १९५७) में माघनन्दि (वि. १२५०) के पश्चात् उल्लिखित । त्रि. १२७५ (ई. १२१८) । (जै./२/३६६)। ५. तत्त्वार्थ सूत्र की सुखबोधिनी टीका के रचयिता। समय-लगभग वि. १३५३ (ई. १२६६)। (जै./१/४५१)। ६. नन्दिसंघ बलात्कारगण दिल्ली गद्दी के भट्टारक। कृति-सिद्धान्तसार चतुर्विशति स्तोत्र । समय-वि १५०७-१५७१ (ई. १४५०-१५१४) । (ती/३/३८१)। जिनदत्त चरित्र-आ० गुणभद्र (ई.८७०-११०) द्वारा रचित संस्कृत श्लोकबद्ध एक रचना । इसमें , सन्धि, व ८०० श्लोक हैं। पीछे दिल्ली निवासी पं० बखतावर सिंहने इसका भाषामें पद्यानुवाद किया है। (दे. गुण भद्र)। (ती./३/१४) । जिनदास १. नन्दि सघ बलात्कार गण ईडरगद्दी सकल कीति के शिष्य एक मुनि । कृतियें-- जम्बू स्वामी चरित, राम चरित, हरिवंश पुराण, पुष्पाञ्जलिव्रत कथा; जलयात्रा विधि, सार्द्धद्वय द्वीप पूजा, सप्तषि पूजा: ज्येष्ठ जिनवर पूजा, गुरु पूजा, अनन्तवत पूजा। वि. १४५०. १५२५ (ई १३६३-१४६८)। ती./३/३३८)। २. आयुर्वेद के पण्डित । कृतियें-हेलीरेणुका चरित, ज्ञानसूर्योदय । वि. १६००.१६५० (ई०१५४३-१५६३) । (ती/४/८३) । ३. मराठी के प्रथम ज्ञात कवि । भुवनकीर्ति के शिष्य । कृति-हरिवंश पुराण । समय बि० १७७८१७१७ (ई १७२१-१७४०) (ती./४/३१८)। ४. स्वर्गगत मित्र से प्राप्त आकाशगामी विद्या सेठ सोमदत्त को दी। (वृहद कथा कोष/४)। जिननंदि (आर्य)-भगवतो आराधनाके कर्ता शिवकोटिके गुरु थे। समय-ई श. १ का पूर्वपाद । (भ.आ./प्र.२.३/प्रेमीजी) जिनपालित-षटखण्डागमके कर्ता पुष्पदन्त आचार्यके मामा थे। आप बनवास देशके राजा थे। पीछे पुष्पदन्त आचार्य द्वारा सम्बोधित होकर दीक्षा ले लो। तदनुसार आपका समय-बी.नि. ६३३ वि.६३ (ई.६) के आसपास आता है (दे. (पुष्पदन्त) जिनपूजा-पुरंदरवत-किसी भी मासकी शुक्ला १ से लेकर ८ तक उपवास या एकाशना करे । नमस्कार मन्त्र का त्रिकाल जाप्य करे। (बत विधान संग्रह/पृ.६२); (किशन सिंह क्रियाकोश) जिनभद्र-आप एक श्वेताम्बराचार्य थे। गणी व क्षमाश्रमणकी उपाधिसे विभूषित थे। निम्न रचनाएँ की हैं-१. विशेषावश्यक भाष्य, २. बृहत्क्षेत्रसमास, ३. बृहत्संग्रहिणी विशेषवती आदि । ( वर्तमानमें उपलब्ध बृहत्संग्रहिणी चन्द्रमहर्षि कृत है। समयविशेषावश्यक भाष्य का रचनाकाल वि.६५०, अक्सान काल वि. श,७ का अन्त । अतः ई.५६०-६४३। (जै./२/६२)। जिनचन्द्र १. नन्दिसंघ की पट्टावली के अनुसार आप भद्रवाह द्वि० के प्रशिष्य आ० माघनन्दि थे और उनके शिष्य जिनचन्द्र कुन्दकुन्द के गुरु जिनमुखावलोकनवत-भाद्रपद कृ.१से आसौज कृ.१ तक, एक मास पर्यन्त प्रति दिन प्रातः उठकर अन्य किसीका मुख देखे बिना भगवान के दर्शन करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (बतविधान संग्रह/पृ.१०); (किशनसिंह क्रियाकोश)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy